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Nandita Mahtani hosts a birthday party for Tusshar Kapoor

http://www.sakshatkar.com/2017/11/nandita-mahtani-hosts-birthday-party.html

: इंटरव्यू - शैलेष : मीडिया को कोई भी कंट्रोल नहीं कर सकता


Sabhar- Bhadas4media.com--
कई चैनलों और अखबारों में वरिष्ठ पदों पर रहे शैलेष इन दिनों एक नए न्यूज चैनल को लांच कराने का बीड़ा उठाए हुए हैं. अल्फा ग्रुप के बैनर तले चैनल की लांचिंग होनी है और शैलेष कंपनी के सीईओ हैं. मार्केटिंग, डिस्ट्रीब्यून से लेकर न्यूज कंटेंट तक का काम शैलेष ही देख रहे. कम बोलने और चर्चा में कम रहने वाले शैलेष ने हमेशा बेस्ट देने की कोशिश की. नए प्रयोगों को स्वीकारा और आगे बढ़ाया. बीएचयू से पत्रकारिता की पढ़ाई करने वाले शैलेष ने पत्रकारिता में बिना किसी गाडफादर के शून्य से शिखर तक की यात्रा की है. उनसे भड़ास4मीडिया के एडिटर यशवंत सिंह ने कई मुद्दों पर बातचीत की. पेश है साक्षात्कार के कुछ अंश...
-अपने बारे में शुरुआत से कुछ बताइए. बचपन. पढ़ाई-लिखाई. पत्रकारिता में आना...

--बिहार के छपरा जिले में थाना मल्हौरा के नगरा बाजार गांव में मेरा जन्म हुआ था. मेरे पिता भागलपुर में नौकरी करते थे तो पढ़ाई लिखाई वहीं भागलपुर में हुई. ग्रेजुएशन तक वहीं पढ़ने के बाद जर्नलिज्म की पढ़ाई करने 1979 में बीएचयू चला गया. उन दिनों देश में दो-तीन जगहों पर ही बीजे का कोर्स था उनमें से एक बीएचयू भी था. उस वहां समय प्रो. बनर्जी, प्रो. काजमी साहब और प्रो. बीआर गुप्ता जैसे लोग पढ़ाते थे. बीजे की पढ़ाई के दौरान ही दैनिक जागरण, वाराणसी में काम करने लगा था. मैं बीएचयू में पढ़ते हुए ही रिपोर्टिंग करने लगा. बनारस दैनिक जागरण का नया संस्करण था. वह तब इलाहाबाद से छपता था. पढ़ाई खत्म होने के बाद अमृत प्रभात लखनऊ आ गया. लखनऊ में ही 1983 में नवभारत टाइम्स ज्वाइन किया और 84 में प्रिंसिपल करेस्पांडेंट बनकर रविवार में चला गया. दो साल बाद 86-87 में पुनः नवभारत टाइम्स आ गया. उसी में 89 में चीफ रिपोर्टर बन कर दिल्ली आ गया. नवभारत टाइम्स में काम के दौरान मैं बीहड़ इलाके का कवरेज करता था. उन दिनों बीहड़ में डकैतों का आतंक था. फूलन देवी भी उन दिनों बीहड़ में ही थीं. मैंने बीहड़ में जाकर उस समय आतंक का पर्याय बन चुकीं डकैत फूलन देवी को कवर किया था.

-शुरुआती दिनों में किन किन लोगों से विशेष सपोर्ट या प्रेरणा मिली?

--उस प्रकार की किसी मदद की जरूरत नहीं पड़ी. मैं साहित्यिक बैकग्राउंड का था. चूकि साहित्य में मेरी दिलचस्पी थी, कुछ-कुछ कविताएं और कहानियां लिखने की कोशिश करता था. इसलिए मेरी भाषा अच्छी थी, खबर की समझ अच्छी थी. पहली बार मुझे जब अमृत प्रभात में ब्रेक मिला तो वह एक रिटेन टेस्ट के द्वारा हुआ था. उसके बाद जो छपा हुआ होता था वही सबसे बड़ी मदद बन गया. वही सारी चीजें लेकर मैं नवभारत टाइम्स में इंटरव्यू के लिए गया. उन दिनों उसके प्रधान संपादक राजेन्द्र माथुर थे और नवभारत के लखनऊ एडिशन की तैयारी कर रहे थे. उन्होंने छपा हुआ सब देखा और लखनऊ के लिए मुझे रख लिया. तो मदद की कोई बात नहीं है लेकिन निश्चित तौर से मैं जिन दो प्रमुख लोगों से प्रभावित रहा हूं, वे हैं राजेन्द्र माथुर और एसपी सिंह.

-एसपी सिंह ने आजतक शुरू किया था, तब आप भी उस टीम में थे?

--आजतक शुरू होने के एक महीने बाद मैंने ज्वाइन कर लिया था. बाद में मैं जी न्यूज चला गया. सात साल वहां संपादक रहते हुए अलग-अलग कई विंग को संभाला. मैंने उसके रीजनल चैनलों बांग्ला, मराठी, पंजाबी, गुजराती व तेलगू भाषाओं के चैनलों को शुरू कराया. उन दिनों जी अल्फा नाम से आधे घंटे के लिए बुलेटिन चलाए जाते थे. उसके बाद मैंने कंसलटेंट के तौर पर घर से ही काम करने का मन बनाया और डिस्कवरी चैनल से जुड़कर इस चैनल के लिए भाषा सुधार हेतु काम करने लगा. डिस्कवरी में भाषा को लेकर बड़ी कठिनाई थी. उनके अनुवादकों के साथ काम करके वहां मैंने बोलचाल की भाषा को ठीक कराया. इस बीच फिर मुझे आजतक से आफर मिला तो मैंने ज्वाइन कर लिया. वहां फिर साढ़े छह-सात साल रहा.

-आजतक को इंडिया टीवी जैसे न्यूज चैनल ने नंबर दो पर आने को मजबूर कर दिया था. कम संसाधनों वाले इंडिया टीवी की भारी भरकम संसाधनों वाले आजतक को पछाड़ने के पीछे क्या वजह मानते हैं?

--ये करीब तीन चार साल पहले की बात है. जब टेलीविजन का विस्तार बहुत तेजी से हुआ. दूसरी तरफ छोटे और डिजिटल कैमरे बाजार में आ गये. मोबाइल में भी कैमरे आ गये. इसमें विजुअल ब्राडकास्ट की क्वालिटी थी. नतीजा लोगों ने छोटी चीजों को भी शूट करके भेजना शुरू किया. चूकि हमारे देश में यह बिलकुल नई चीज थी तो दर्शकों ने उसे पसंद भी किया. जहां भी अजीबो-गरीब चीज दिखाई जाती थी दर्शक भी उधर ही जाने लगा. लेकिन 2012 में मैं कह सकता हूं कि न्यूज की तरफ वापसी होने लगी है और नान न्यूज, ड्रामा, फैब्रिकेटेड या क्रिएटेड न्यूज अब दर्शक नहीं देखना चाहता. अब वह उब गया है. दरअसल अजब गजब मसाले की एक सीमा होती है. पिछले छह महीनों में मैंने महसूस किया कि सारे न्यूज चैनल इस पर ध्यान दे रहे हैं.

-शुरू में आजतक हमेशा नंबर वन रहा पर आप लोगों के दौर में ही वह पिटने लगा. उस वक्त कहा जाने लगा कि जो लोग वहां हैं उन्हें टीवी की समझ नहीं है, पुराने लोग हैं. ये सब बातें आप तक पहुंचती थीं या नहीं?

--देखिए चैनल के नीचे गिरने पर आलोचनाएं तो होती ही हैं. मैं अब आजतक में नहीं हूं तो कोई कमेंट नहीं करूंगा. लेकिन टेलीविजन मीडिया में जो भी प्रयोग हुआ या हो रहा है वह कमोवेश सबने किया. चार घंटे तक दो ज्योतिषी बात करते, और चंद्रग्रहण, सूर्य ग्रहण पर चर्चा होती थी. स्वर्ग का रास्ता और नर्क का दरवाजा जैसी खबरें बनाईं गईं जिसे आम परिभाषा में खबरें नहीं कहा जा सकता. ये जो प्रोग्राम का प्रपोर्शन था वह ठीक नहीं था. उससे दशर्क तो कटा ही बाजार और एडवरटाइजर का भी दबाव बढ़ गया. वह आपको एस्ट्रोलाजी और अजूबे के लिए पैसे नहीं देता. उसे भी पता है कि न्यूज क्या है.

-खबर आई थी कि आप इंडिया टुडे का हिन्दी अखबार लांच कराने वाले थे इसीलिए आजतक से हटाकर वहां शिफ्ट किया गया. यह भी चर्चा थी कि अखबार तो निकलना ही नहीं था इसलिए आप को वहां डंप कर दिया गया था. क्या ऐसा ही था?

--मैं कहना चाहूंगा कि एक बड़ा ग्रुप किसी को डंप करने के लिए इतने पैसे खर्च नहीं करेगा.

-वैसे, कहा यह भी जाता है कि डंप करने के लिए इतना पैसा कोई बड़ा ग्रुप ही खर्च कर सकता है?

--उसकी जरूरत ही नहीं है. आजकल न्यूज चैनलों में किसी को हटाना होता है तो बस बुलाकर बता दिया जाता है और वह चला जाता है. ये सच है कि वे हिन्दी अखबार लाना चाहते हैं. जब मैं वहां था तब उसकी प्लानिंग चल रही थी. प्रारम्भिक तौर पर उसके पेज कंटेंट और डिजाइन पर भी काफी काम हुआ था. केवल किसी को संपादक बना देने से अखबार नहीं शुरू हो जाता. उसका पूरा बिजनेस प्लान होता है. मेरी जानकारी में उस प्रोजेक्ट को टाला नहीं गया. मैंने ही नया चैलेंज लेने के अपने स्वभाव को जारी रखते हुए यहां आ गया.

-फिलहाल आप जिस चैनल में हैं उसके बारे में कुछ बताएं.

--यह एक बड़ा ग्रुप है जिसमें कई लोग हैं. जिनका पहले से मीडिया में बैकअप है. मुख्य रूप से श्याम टेलीकाम है और दूसरे भी लोग हैं. उनकी कोशिश है कि एक ऐसा न्यूज चैनल लाएं जिसकी तुलना दुनिया के बड़े न्यूज चैनलों में की जा सके और न्यूज चैनल का जो दायित्व है उसे पूरा कर सके. खुद इसके संचालक लोग उसमें किसी तरह की सेंसेशनल मिलावट नहीं चाहते. वह केवल न्यूज चैनल चाहते हैं जिसकी हिन्दी में आज बहुत कमी है. मुझे भी यह एक्साइटिंग लगा. पुराने चैनल को बदलना कठिन है लेकिन नये को नई विचारधारा के साथ लाना आसान है.

मैं हमेशा से ही नये प्रोजेक्ट में काम करता रहा हूं. करियर का पहला काम दैनिक जागरण उन दिनों वाराणसी में नया नया आया था. लखनऊ में अमृत प्रभात, नवभारत टाइम्स के साथ भी नई लांचिंग में ही जुड़ा. दिल्ली में टेलीविजन में पहले चैनल बीआई टीवी और आजतक की शुरुआत करने वाली टीम में था. जी न्यूज में गया तो वहां बीस मिनट के न्यूज को चौबीस घंटे में तब्दील करने वाली टीम में रहा. टुडे ग्रुप के तेज और दिल्ली आजतक को शुरू करने वाली टीम में भी था. कंसलटेंट के तौर पर भी मैंने टोटल टीवी और एक-दो चैनल शुरू कराए जो आज भी चल रहे हैं. कुल मिलाकर ऐसा लगता है कि मैं नया काम करने के लिए ही बना हूं. नये चैलेंज में मुझे कोई दिक्कत नहीं होती. इसलिए मुझे लगा कि इस काम को मैं कर सकता हूं.

-चैनल का नाम क्या है और कब तक लांच करा रहे हैं?

--कुछ कारणों से चैनल का नाम अभी नहीं बता सकता. चैनल की लांचिंग जुलाई अगस्त के बीच होने की संभावना है.

-मुकेश अंबानी ने मीडिया में बड़ी पूंजी लगाकर मीडिया के भी बड़े मालिकों में से एक हो गये हैं. दूसरे बिजनेस कोरपोरेट घराने भी अब मीडिया में पैसा लगा रहे हैं. तो क्या लगता है आपको कि बड़े-बड़े पत्रकार अब अंबानी के नौकर हो गए?

--देखिए, कोई इनवेस्टर अगर यह सोचता है कि वह मीडिया को बदल देगा तो वह संभव नहीं है. आज बहुत टफ कंपटीशन है. पहले भी कोशिशें हुईं. हां, मीडिया बिजनेस बन चुका है, अगर इस पक्ष को हम स्वीकार नहीं करेंगे तो हम मीडिया के साथ न्याय नहीं कर पाएंगे. बिजनेस भी इसलिए बना क्योंकि इसमें खर्चे बहुत जुड़ गये हैं.

-मीडिया जब बिजनेस बन गया है तो मीडिया का जो असल अर्थ या मकसद था- मीडिया माने विपक्ष, जनता के लिए, जनता की आवाज, सरोकार इत्यादि, वह कितना शेष रह गया है?  

--मैं समझता हूं कि कोई भी मीडिया को कंट्रोल नहीं कर सकता. आज देश में चौदह नेशनल हिन्दी चैनल हैं. हर राज्य में पांच-छह रीजनल चैनल हैं तो किस-किस को रोकेंगे. किसी मंत्री की खबर को सरकार नहीं रोक पाती. कोई भी मीडिया हाउस या कारपोरेट सरकार से ताकतवर तो नहीं हो सकता. दरअसल जो प्रतियोगिता है वही मीडिया की आजादी को बचाकर रखेगा. नये और चैनल आ रहे हैं वह मीडिया के लिए अच्छी खबर है.

-न्यू मीडिया यानि वेब ब्लाग सोशल नेटवर्किंग आदि के बारे में आपका क्या कहना है?

--निश्चित तौर से है न्यू मीडिया का बहुत महत्व है. सोशल मीडिया या न्यू मीडिया का विस्तार बहुत ज्यादा है. न्यू मीडिया का हर शख्स खुद ही दर्शक और रिपोर्टर भी है, अतः उसे अगर खबर की समझ है तो वह बिना कहीं जाए उसे शेयर कर सकता है. यह टू वे कम्यूनिकेशन है. आने वाले समय में भारत सहित पूरी दुनिया में न्यू मीडिया और टेलीविजन का चेहरा बदलने वाला है. जब 4जी का प्रयोग होने लगेगा और जैसे लोग चलते फिरते अखबार पढ़ते हैं वैसे ही अपने टैबलेट और मोबाइल पर ही न्यूज चैनल और वेबसाइट देखने लगेंगे. तब आज की तरह टीवी का फार्मेट नहीं रह जायेगा. टैबलेट और 4जी का दौर चैनलों को बदलकर रख देगा.

-आप पढ़ने-लिखने वाले पत्रकारों-संपादकों में गिने जाते हैं. खासतौर से चैनल की दुनिया में ऐसे लोगों का अभाव है. इधर क्या कुछ लिख-पढ़ रहे हैं आप?  

--मेरे पास एक अच्छी लाइब्रेरी है. मेरे बारे में कहा भी जाता है कि किताबें मेरे लिए ‘स्लिपिंग पिल्स’ हैं. जब तक मैं कोई किताब नहीं पढ़ता, मुझे नींद नहीं आती. पिछले छह महीने से मैं उन पुरानी किताबों को दोबारा पढ़ रहा हूं जो भाषा और शब्दों के लिहाज से उम्दा हैं. अभी जो नया चैनल शुरू कर रहा हूं उसके भाषा के लिए कुछ नया करना चाहता हूं. हाल में रागदरबारी और गुनाहों का देवता को फिर से पढ़ना शुरू किया है.

-लगता है आपके आने वाले चैनल की भाषा में कुछ नया प्रयोग होगा?

--जी हां, हम भाषा पर काम करने जा रहे हैं. मैं किसी पर आरोप नहीं लगा रहा लेकिन आज चैनलों की भाषा बिलकुल बाजारू हो गई है. खुद ही मैं उससे जुड़ा रहा लेकिन अब संयमित लेकिन आक्रामक, संतुलित लेकिन बेबाक, भाषा की जरूरत है. ऐसी, एक समय में जो रविवार की भाषा थी जिसमें किसी तरह की गंदगी न हो. आज बहुत से शब्द व मुहावरे ऐसे प्रयोग हो रहे हैं जो सीधे तौर पर अवमानना हैं. इसलिए नई भाषा की खोज पर काम करना चाहता हूं.

-आप फेसबुक और ट्विटर पर क्यों नहीं हैं और कब तक आ रहे हैं?

--मैं वहां नहीं हूं लेकिन अब जरूरत महसूस कर रहा हूं. दरअसल काम में इतना अधिक इंवाल्वमेंट होता रहा है कि अन्य चीजों के लिए समय नहीं बचता था. लेकिन अब जैसे पढ़ने के लिए समय निकालता हूं वैसे ही मार्च के बाद सोशल और न्यू मीडिया के लिए भी निकालूंगा.

-जीवन, करियर में क्या-क्या करना बाकी रह गया है?

--मैं सोच समझ कर ही पत्रकारिता में आया था. मैं यही करना चाहता था. हां, जो नहीं कर पाया वह यह कि लेखक बनना चाहता था, नहीं बन पाया. कहानियां व कविताएं लिखता था जो छूट गया. इसलिए छूटा कि जो शब्द और चिंतन है उसका इस्तेमाल कहीं एक ही जगह किया जा सकता है. इस मामले में पत्रकार तो रोज ही खाली हो जाता है. मेरे भाई ब्रजमोहन और मैंने मिलकर एक रिपोर्टिंग पर ‘स्मार्ट रिपोर्टर’ नामक किताब लिखी है.
शैलेष से बातचीत के वीडियो को यहां क्लिक करके देख सुन सकते हैं...

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