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Nandita Mahtani hosts a birthday party for Tusshar Kapoor

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'भ्रष्‍टाचार का कड़वा सच' : एक राजनेता से लड़ता साहित्‍यकार


भ्रष्टाचार के खिलाफ यकायक एक बुजुर्ग गांधीवादी अन्ना हजारे जिद ठान लेता है कि अनशन से हलचल मचा दूंगा और इरादे इतने अटल की 13 दिनों के उपवास में सत्ता के शिखर पर बैठे लोग उसकी मांग मान लेने को मजबूर हो जाते हैं। हिमाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री एवं वर्तमान राज्यसभा सांसद शांता कुमार की नई किताब का विषय भी भ्रष्टाचार है और वह भ्रष्टाचार के खिलाफ कलम से लड़ते दिखते हैं। 'भ्रष्टाचार का कड़वा सच' उनका भोगा नहीं तो करीब से देखा हुआ सच प्रतीत होता है। तीन साल पहले उन्होंने हिमप्रस्थ के दिसंबर अंक में एक साक्षात्कार में कहा था कि जीवन में कई बार कुछ घटनाएं इतनी गहरी चोट करती और अमिट छाप छोड़ती हैं, उन्हीं से मन प्रेरित होता है और लिखने की इच्छा पैदा होती है। 'राजनीति की शतरंज' में राजनीति की सत्यकथाएं लिखने पर अपने ही कई समकालीन नेताओं के निशाने पर रहे शांता कुमार की प्रखरवादिता 'भ्रष्टाचार का कड़वा सच' से भी उनके दुश्मनों संख्या में हरगिज इजाफा ही करेगी।
हालांकि शांता कुमार ने 19 साल की उम्र में ही लेखन शुरू कर दिया था, लेकिन 1975 तक वह विविध लेखन करते रहे। इमरजेंसी के दौरान नाहन जेल में उन्होंने 'लाज्जो' उपन्यास लिख डाला। शांता कुमार अपने साक्षात्कारों में कई बार जिक्र कर चुके हैं कि 'लाज्जो' उपन्यास उनके अपने गांव गढज़मूला की एक विधवा की सत्यकथा है। एक महीने में 'लाज्जो' का लेखन पूरा करने वाले शांता कुमार ने कल्पना के घोड़े दौड़ाने की जगह यर्थाथ को साहित्य में साधने की हर संभव कोशिश की है। मुख्यमंत्री रहते उपरी शिमला में फटे बादल की भीषण तबाही से आहत एक राजनेता का लेखक इतना व्यथित हुआ कि 'लाज्जो', 'कैदी' और 'मन के मीत' लिखने वाले शांता कुमार ने प्रकृति से छेड़छाड़ के खतरों का खुलासा करने वाला 'बृंदा' उपन्यास लिख दिया। पांच में से तीन उपन्यास उन्होंने अपनी जेल यात्राओं के दौरान ही लिखे हैं।
बेबाकी उनके व्यवहार में भी पढ़ी जा सकती है। लेखन में यह और मुखर होकर बोलती दिखती है। वह स्वीकार करते हैं कि वह मूल रूप से लेखक हैं। वह कहते हैं कि अगर उनके मन में लेखक के दायित्व की भावना नहीं होती तो राजनीति के सफर में कई बार समझौते कर लेते। 'राजनीति की शतरंज' को छपने को लेकर प्रसंग याद आता है। लेखक के मित्रों की सलाह थी कि राजनीतिक संस्मरण के तौर पर लिखी गई इस पुस्तक का प्रकाशन उनके राजनीतिक भविष्य के लिए खतरनाक हो सकता है, लेकिन लेखक मित्रों की सलाह पर कुछ वक्त तो रुका पर ज्यादा देर रुका नहीं रह सका। इस पुस्तक के प्रकाशन के बाद शांता कुमार की जम कर आलोचना हुई और कई लोग नाराज भी हुए। उस वक्त भी उन्होंने एक ही बात कही कि वह राजनेता नहीं हैं, एक लेखक हैं और लेखक अपने अनुभव अपने राजनीतिक स्वार्थ के कारण समाज से छुपा कर नहीं रख सकता। यह भी किसी से छुपा नहीं है कि एक प्रमाणिक दस्तावेज के रूप में इस पुस्तक की आलोचना से ज्यादा चर्चा और सराहना हुई।
उपन्यास, कहानी, कविता और संस्मरण लिखने में माहिर शांता कुमार कहते हैं कि छोटी सी उम्र से ही उनका जीवन सार्वजनिक जीवन रहा है। 19 साल की उम्र में जेल यात्रा और फिर सक्रिय राजनीतिक जीवन, बावजूद इसके तमाम व्यस्तताओं के बीच एक कद्दावर राजनेता के अंदर का लेखक हमेशा संवेदनशील होकर ईमानदारी से लिखता रहा है। वह कहते हैं कि लिखा तभी है जब उनके पास कहने को कुछ हुआ है और वह कुछ इतना शक्तिशाली रहा है कि जीवन की अति व्यस्तता के बावजूद राजनेता के अंदर के लेखक को लिखने के लिए मजबूर कर दिया। एक सजग लेखक पर कभी राजनीतिक भविष्य की भीरू कल्पना हावी नहीं हुई। कई बार तो किसी घटना पर मन का लेखक इतना हावी हो गया कि राजनीति में बड़ा नुकसान उठाना पड़ा, लकिन यह भी सच है कि नफे नुक्सान के आकलन में एक लेखक ने कोई राजनीतिक समझौता करना गवारा नहीं समझा। फिर चाहे गुजरात दंगों के बाद मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को खरी खरी सुनाने की बात हो अथवा हाल ही में कर्नाटक के प्रभारी बनने के बाद वहां के मुख्यमंत्री यदुरप्पा की शिकायत पार्टी आलाकमान से करने का प्रसंग।
कर्नाटक के प्रभारी रहत हुए सत्ता के भ्रष्टाचार से नजदीकी से सामना हुआ और उसके बाद ही शांता कुमार की भ्रष्टाचार का कड़वा सच प्राकशित हुई। जाहिर है कि हमेशा सच्ची घटनाओं को अपने लेखन का आधार बनाने वाले एक लेखक को अपनी किताब के लिए वहीं से प्रेरणा मिली हो। पंचायत के पंच के पद से राजनीति की शुरुआत करने वाला एक वकील पंचायत समिति, जिला परिषद, विधानसभा, लोकसभा से होता हुआ राज्यसभा में पहुंचा है तो जाहिर है हर स्तर पर होने वाले भ्रष्टाचार को करीब से समझने-जानने का मौका भी मिला है। इसी व्यवस्था की सडांध को उनकी ताजा प्राकशित पुस्तक बेनकाब करती है। वह कहते भी हैं कि जो अनुभव किया, जिस पर अभिव्यक्ति की इच्छा पैदा हुई और संदेश देने का लक्ष्य रहा, उसे  हमेशा सामने रख पाठकों के लिए प्रस्तुत कर दिया। मूल रूप से एक राजनेता होने के बावजूद उन्होंने हमेशा लेखकीय को वरीयता दी है और सामाजिक सरोकारों के प्रति हमेशा सजग रहे हैं। एक उच्चकोटि के रचनाकार के तौर पर उनका साहित्य उनके अपने राजनीति जीवन का एक लेखा जोखा भी है। अपनी साहित्यिक रचनाओं से उन्होंने हमेशा किसी न किसी सामाजिक सरोकार को पाठकों के सम्मुख रखने में यकीन किया है।
गीता और स्वामी विवेकानंद के साहित्य से प्रभावित रहे लेखक के रचनाकर्म में लेखकीय समझौते परिलक्षित नहीं होते। आजादी के चालीस साल होने पर लेखक ने एक जगह लिखा है कि चालीस साल की आजादी के बाद भारत में एक मंत्री हिंदी बोलते समय सिर झुकाए, हीन भवना से ग्रसित खड़ा था और अंग्रेजी बोलने वाले सिर उठाए गौरव का अनुभव कर रहे थे। आजादी को सात दशक होने को आए हैं और लेखक कहता है कि देश को हिंदी दिवस मनाने की जरूरत महसूस होती है। यह बड़ा सबूत है कि अभी हिंदी का बनवास खत्म नहीं हुआ है। इसी बीच लेखक की हिंदी में नई पुस्तक 'भ्रष्टाचार का कड़वा सच' हिंदी की वकालत करते हुए भ्रष्टाचार के खिलाफ चोट करती है और भ्रष्ट आचरण वालों को बेनकाव करती है। भ्रष्टाचार पर कलम से वार को लेकर लेखक शांता कुमार बधाई के पात्र हैं।
लेखक विनोद भावुक दैनिक भास्‍कर, हिमाचल प्रदेश में मंडी जिले के ब्‍यूरोचीफ एवं युवा लोककवि हैं
Sabhar- Bhadas4media.com.

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