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Nandita Mahtani hosts a birthday party for Tusshar Kapoor

http://www.sakshatkar.com/2017/11/nandita-mahtani-hosts-birthday-party.html

इस्लाम के नाम पर सूदख़ोरी

इस्लाम धर्म में आस्था रखने वालों को ब्याज लेने और देने के लिए सख्ती के साथ मना किया गया है। एक हदीस में तो यहां तक फ़रमाया गया है कि ब्याज इतना बड़ा गुनाह है कि यदि उसके सत्तर भाग किये जाएं तो उनमें से सबसे हल्का भाग भी ऐसा है कि जैसे कोई व्यक्ति अपनी मां के साथ दुराचार करे। सामाजिक दृष्टिकोण से यदि देखा जाए तो ब्याज एक ऐसी लानत है जिसको अपनाने पर समाज में बहुत सी बुराइयां जन्म ले लेती हैं। जैसे कि ब्याज लेने वाले व्यक्ति को पैसे से इतना लगाव और लालच हो जाता है कि उसको यदि किसी की मदद करनी पड़ जाए तो वह यह सोचने लगता है कि इस धन को किसी को मदद में देने के बजाय अगर ब्याज पर उठा दिया जाए तो इसमें कुछ न कुछ इज़ाफ़ा ही होगा। दूसरी बात यह है कि अगर कोई व्यक्ति तंगहाली के दौर से गुज़र रहा हो और अपने बच्चों को फ़ाक़ों से बचाने के लिए भीख मांगने के बजाय कुछ रुपये उधार लेना चाहता है अथवा किसी व्यक्ति के घर में मौत हो जाए और यदि कफ़न दफ़न के लिए उसे धन की आवश्यकता हो तो ऐसी परिस्थिति में भी उधार दिये गए धन पर सूदख़ोर ज़ालिम सूद लेने से बाज़ नहीं आता। इस सब के नतीजे में एक ऐसे समाज का निर्माण होने लगता है कि जिसमें ग़रीब और ज़रूरतमंद लोगों को देखकर उनसे हमदर्दी का जज़्बा पैदा होने के बजाय सूदखोरों के चेहरों पर बिल्कुल इस प्रकार से चमक आ जाती है कि जैसे पैथोलोजिकल टैस्ट में से कमीशन खाने वाले डाक्टर के चेहरे पर मरीज़ को देखकर आती है अथवा किसी बेक़सूर व्यक्ति को अपराधी कहकर लॉकअप में डालने वाले रिश्वतखोर पुलिस मैन के चेहरे पर आती है या फिर भूकम्प आदि प्राकृतिक आपदा आने के बाद सरकारी सहायता को देखकर उन भ्रष्ट अधिकारियों के चेहरों पर आती है जिनको उस सहायता राशि को पीड़ितों तक पहुंचाने की ज़िम्मेदारी सौंपी जाती है। इसके साथ ही एक ख़ास बात और ध्यान देने योग्य यह है कि सूदख़ोर व्यक्ति छोटा महाजन है तथा बैंक बड़ा महाजन। और यदि दोनों का तुलनात्मक अध्ययन किया जाए तो आप देखेंगे कि महाजन तो कभी न कभी समाज के कुछ असरदार लोगों के कहने से परेशानहाल कर्जदार का ब्याज माफ़ भी कर देता है परन्तु बैंक के यहां माफी का कोई ख़ाना नहीं होता बल्कि जिस प्रकार से सामन्ती युग में ज़मींदार के लठैत ग़रीब किसान से लगान वसूल करके लाते थे उसी प्रकार से सरकार बैंकों को वसूलयाबी के साधन उपलब्ध करा देती है तथा ज़मींदार तो केवल अपना बक़ाया धन ही वसूल करता था और धन वसूलने में लठैतों पर किया गया ख़र्चा ख़ुद वहन करता था परन्तु सरकार वसूल करने का खर्चा भी बैंक से न लेकर ग़रीब कर्जदार से ही हासिल करती है चाहे उसके लिए उस व्यक्ति का वजूद ही खतरे में क्यो न पड़ जाए। इस्लामी व्यवस्था के अनुसार सूद, चाहे बैंक से लिया गया हो और चाहे किसी दूसरे साधन से, पूर्ण रूप से हराम है तथा सूद के लेने वाले और देने वाले दोनों बराबर के ज़िम्मेदार हैं। अफ़सोस की बात यह है कि मुसलमान सूद के दलदल में इस बुरी तरह से फंस गया है कि उससे बाहर निकलना मुश्किल नज़र आ रहा है। इससे भी ज़्यादा परेशानकुन बात यह है कि मुसलमान इस दलदल से निकलने की तदबीर करने के बजाय इस कोशिश में रहने लगा है कि सूद पर आधारित इस व्यवस्था को किसी न किसी प्रकार से शरीअत तसलीम कर ले। इसी लिए कभी सूद को मुनाफ़ा कहने की साज़िश करते हैं तो कभी बैंक के सूद को सूद की परिभाषा से अलग रखने की दलील तलाश करते नज़र आते हैं। सूद के बारे में कोई संदेह न रहे इसलिए स्पष्ट रूप से बता दिया गया है कि उधार दिये गए धन पर बढ़ा कर दिया गया ऐसा धन जिसका रेट पहले से तय कर दिया गया हो वह सूद कहलाता है। इसी प्रकार से क़र्ज़ के रूप में दिये गए धन में यदि वक़्त गुज़रने के साथ इज़ाफ़ा होता रहे तो वह सूद की श्रेणी में आता है। इसी के साथ एक बात और स्पष्ट रूप से समझ लेनी चाहिए कि जो लोग किसी के व्यवसाय में रुपया लगाकर केवल लाभ में हिस्सेदार बन कर मुनाफ़ा लेते हैं वह तब तक जायज़ नहीं माना जा सकता जब तक कि नुक़सान में भी हिस्सेदार न हों। उपरोक्त सभी बातों को ध्यान में रखते हुए जनता को सूदखोरों के चंगुल से सुरक्षित रखने के लिए कुछ मुस्लिम विद्वानों ने मुस्लिम फ़ण्ड के नाम से कुछ संस्थाओं का गठन किया था। इनकी कार्यशैली इस प्रकार से बनाई्र गई थी कि जो लोग सूद से बचना चाहें वह अपना रुपया इन संस्थाओं के द्वारा स्थापित बैंकों में जमा करें और अपनी जमा की गई रक़म में से जब और जितना चाहें धन निकाल लें। इस प्रकार से जो रक़म इनके पास जमा रहे उसमें से ज़रूरतमन्दों को उचित ज़मानत लेकर बिना किसी सूद के क़र्ज दे दें। इस तरह से ज़रूरतमन्दों की ज़रूरत पूरी हो जाएगी तथा रक़म भी सुरक्षित रहेगी। इस सबके बावजूद ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ शैतानी प्रवृत्ति के लोगों ने अपने जीवन का उद्देश्य ही यह बनाया हुआ है कि हर उस गंदगी को किसी न किसी प्रकार से समाज में क़ायम रखेंगे जिसको इस्लामी शरीअत हराम क़रार देती है। अतः इन ’’शरीफ़ लोगों’’ नें इन संस्थाओं का दुरुपयोग करते हुए पूर्ण रूप से राह से भटका दिया है। और इस समय हालत यह है कि सरकारी बैंकों की कार्य प्रणाली जिस प्रकार सूद पर आधारित है उसी प्रकार से इन संस्थाओं के द्वारा क़ायमशुदा बैंकों को चलाया जा रहा है बस फ़र्क़ केवल इतना है कि सरकारी बैंक प्रत्यक्ष रूप से सूद का कारोबार करते हैं और यह बैंक इस्लाम के नाम पर सूद का कारोबार कर रहे हैं। सरकारी बैंकों और उपरोक्त मुस्लिम बैंकों में एक ख़ास फ़र्क यह भी है कि सरकारी बैंकों में जमा किये गए धन पर सूद दिया जाता है और उसको ज़रूरतमंदों को क़र्ज़ के रूप देकर उनसे सूद लिया जाता है परन्तु इन मुस्लिम बैंकों में जो धन जमा किया जाता है वह ज़्यादातर उन लोगों का होता है जो अपने माल को सूद की गंदगी से बचाना चाहते हैं अतः उनके इस जज़्बे के अन्तर्गत बग़ैर किसी सूद के जो धन जमा होता है उसका दुरुपयोग देखकर ऐसा प्रतीत होता है जैसे उस धन को जमा करने वालों से यह कहा जा रहा हो कि सूद जैसी हराम चीज़ को खाने वाले जब हम लोग मौजूद हैं तो फिर किसी और की क्या आवश्यकता है अतः तुम्हारे इस माल पर हम सूद खाएंगे और तुमको तुम्हारा रुपया जब चाहोगे वापस कर दिया जाएगा। उपरोक्त इदारों के द्वारा चलाए जा रहे बैंकों में जमा धन को क़र्ज़ के रूप में जब दिया जाता है तो प्रति सैकड़ा प्रति माह की दर से स्टाफ़ के खर्च के नाम पर सूद वसूल किया जाता है तथा बाक़ी धन को सरकारी बैंकों में जमा करके उस पर सूद हासिल किया जाता है। अब ग़ौर करने की बात यह है कि इस्लाम के नाम का सहारा लेकर सूद का धन्धा करना क्या ऐसा नहीं है कि जैसे हलाल गोश्त की दुकान पर सूअर का गोश्त बेचा जा रहा हो। अतः मुस्लिम धर्मगुरुओं को चाहिए कि इस मामले पर ग़ौर करें और अगर इन मुस्लिम इदारों के कारोबार को नाजायज़ पाएं तो इनको इस बात के लिए पाबन्द करें कि या तो इन इदारों के नाम में से मुस्लिम शब्द हटाएं या फिर सूद के काम को बन्द http://haqnama.blogspot.com/

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