Feature

Nandita Mahtani hosts a birthday party for Tusshar Kapoor

http://www.sakshatkar.com/2017/11/nandita-mahtani-hosts-birthday-party.html

महाराष्ट में पिट रहे हैं पत्रकार


महाराष्ट में पिट रहे हैं पत्रकार


ashok-wankhede-new.jpg
अशोक वानखड़े 
दो सप्ताह पहले प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष व सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू ने महाराष्ट्र सरकार को पत्र लिखकर यह पूछा था कि राज्य में पत्रकारों पर लगातार बढ़ते हमलों को रोकने में विफल राज्य सरकार की बर्खास्तगी का क्यों नहीं राष्ट्रपति से अनुरोध किया जाए? काटजू ने राज्य के मुख्यमंत्री को यह पत्र उनसे खासतौर से महाराष्ट्र से दिल्ली मिलने आए पत्रकार हल्ला विरोधी कृति समिति के सदस्यों के अनुरोध पर लिखा था। इस पत्र पर कई तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आईं। कुछ का कहना था कि काटजू ने लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन किया है तो कुछ का कहना था कि काटजू ने सही किया। वैसे इस तरह का पत्र भी काटजू ने इसलिए लिखा, क्योंकि इस विषय में काटजू द्वारा राज्य सरकार को पहले भी लिखे दो पत्रों का कोई जवाब नहीं मिला था। काटजू के पत्र का राज्य के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने तुरंत जवाब दिया और काटजू के कार्यालय से इस पर एक विज्ञप्ति जारी हुई। काटजू ने कहा कि उन्हें महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री का पत्र प्राप्त हुआ है और मुख्यमंत्री ने उन्हें आश्वस्त किया कि वह पत्रकारों पर हो रहे हमलों को लेकर जांच करवाएंगे और शीघ्र कार्रवाई करेंगे। इतना ही नहीं, काटजू का यह भी कहना था कि एक जेंटलमैन मुख्यमंत्री ने मेरे पत्र का तुरंत जवाब दिया, इसलिए मैं नोटिस वापस लेता हूं। 
महाराष्ट्र जैसे प्रगतिशील राज्य में पत्रकारों की हालत देश के पिछड़े राज्यों से भी बदतर है। पत्रकार हल्ला विरोधी कृति समिति द्वारा जारी किए गए व्हाइट पेपर के अनुसार १ जुलाई २००९ से १ जुलाई २०११ तक पत्रकारों, अखबार और न्यूज चैनलों के कार्यालयों पर १८५ हमले हुए हैं। विगत कुछ वर्षों में उल्हासनगर के एके नारायण, पुणे के कराडकर, वसई के जितेंद्र कीर, अकोला के किसनलाल निरबाण, रायगढ़ के अनिल चिटनिस, नागपुर के अरुण दिकाते और मुंबई के इकबाल नातिक, सुरेश खनोलकर, ज्योतिर्मय डे आदि राज्य के बड़े व स्थापित पत्रकारों की हत्याएं हुई हंै। 
बीड के 'झुंझार नेता' अखबार के कार्यालय पर, मुंबई के आपल महानगर, आउटलुक, नवाकाल, महाराष्ट्र टाइम्स के कार्यालयों पर, लोकमत के धुले और पुणे कार्यालयों पर, लोकसत्ता के अहमदनगर कार्यालय पर, धुले में देशदूत और आपला महाराष्ट्र के कार्यालयों पर, सामना के नांदेड कार्यालय पर, पुण्यनगरी के लातूर कार्यालय पर, कृषिवल के अलीबाग कार्यालय पर हमले हुए हैं। न्यूज चैनलों में आईबीएन-लोकमत, जी २४ तास और स्टार न्यूज के मुंबई कार्यालयों पर भी हमले हुए हैं। 
सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार पर खुल कर बोलने व लिखने के लिए निखिल वागले, कुमार केतकर और प्रकाश पोहरे जैसे बड़े संपादकों को भी हमलावरों ने नहीं छोड़ा। लेकिन इन सबके बीच सबसे बड़ी चिंता सरकारी दहशतवाद की है। राज्य में ६ दिसंबर २००५ को औरंगाबाद में सात प्रेस फोटोग्राफरों को पुलिस ने बेरहमी से पीटा। आज तक वह पिटे फोटोग्राफर न्याय का इंतजार कर रहे हैं। टीवी जर्नलिस्ट एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष और वरिष्ठ पत्रकार रवींद्र आंबेकर को एक प्रदर्शन के दौरान पुलिस ने बेरहमी से पीटा। २००५ से आज तक आंबेकर न्याय पाने के लिए इंतजार में हैं। कुछ दिन पहले राज्य के उप मुख्यमंत्री अजीत पवार ने एक रैली में संबोधित करते हुए कहा था कि पत्रकारों को तो डंडों से पीटना चाहिए। ऐसे माहौल में राज्य में पत्रकारिता कैसे स्वतंत्र हो सकती है? व्हाइट पेपर इस बात को रेखांकित करता है कि महाराष्ट्र में आज तक किसी भी मुजरिम को पत्रकारों, अखबार या न्यूज चैनलों के कार्यालयों पर हमले के लिए सजा नहीं मिली है। ज्यादातर मामलों में हमलावर किसी न किसी राजनीतिक दल से संबंधित होने के कारण उस पर कार्रवाई करने में सरकार कोताही करती है। 
२५ दिसंबर २००५ को मुंबई में राज्य के गृह मंत्री आरआर पाटिल ने मराठी पत्रकार परिषद के कार्यक्रम में यह घोषणा की थी कि पत्रकारों को संरक्षण देने के लिए राज्य सरकार एक नया कानून बनाएगी। फिर २०११ में औरंगाबाद में 'दिव्य मराठी' के लोकार्पण समारोह में मुख्यमंत्री ने इस वादे को दोहराया था, लेकिन वादे बातों में ही रह गए। नया कानून तो छोडि़ए पत्रकारों पर हो रहे हमलों के मामलों को फास्ट ट्रैक कोर्ट में चलाने की मांग तक सरकार पूरी नहीं कर पा रही है। 
समिति के अध्यक्ष व वरिष्ठ पत्रकार एसएम देशमुख ने बताया कि समिति नेे सरकार के सामने दो मांगे रखीं। एक, राज्य में पत्रकारों, अखबारों और न्यूज चैनलों के कार्यालयों पर हो रहे हमलों को गैर जमानती अपराध की श्रेणी में रखा जाए। दूसरा, इन हमलों के मामलों को फास्ट ट्रैक ोर्ट में चलाया जाए। लेकिन विगत दो वर्षों से राज्य सरकार ने इन मांगों पर चुप्पी साध रखी है। समिति के सदस्य व वरिष्ठ पत्रकार प्रफुल्ल मारपकवार का कहना था कि हमारी मांगें बहुत साधारण सी हैं। न ही हम बॉडीगार्ड मांग रहे हैं, न ही हथियारों के लाइसेंस। जब किसी महिला को छेडऩे पर नॉन बेलेबल ऑफेंस के तहत केस दायर होता है तो प्रजातंत्र के चौथे खंभे पर हमले पर क्यों नहीं? 
काटजू के नोटिस पर मुख्यमंत्री के जवाब से राज्य के पत्रकार हल्ला विरोधी कृति समिति की फाइल में दो और पत्र जुड़ गए। इसका नतीजा क्या निकला? अपनी कलम से अंग्रेजी हुकूमत की जड़ें हिलाने वाले स्वतंत्रता सेनानी लोकमान्य तिलक जैसे पत्रकारों की भूमि पर आज पत्रकारिता की जडें हिल रही हैं। 
(दैनिक भास्कर से साभार)

No comments:

Post a Comment

Famous Post