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Nandita Mahtani hosts a birthday party for Tusshar Kapoor

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उमराव जान में जो नवाब सुल्तान अली का सुर होना था, नहीं हो पाया मेरा : फ़ारूख शेख



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फ़ारूख शेख के पास अब फ़िल्में लगभग नहीं हैं। शायद धारावाहिक भी नहीं। पर सत्तर और अस्सी के दशक में उन के पास फ़िल्में, शोहरत सब कुछ था। पर हां स्टारडम जिसे कहते हैं, उस की ऊंचाई वह नहीं छू पाए। मतलब दिलीप कुमार, राज कपूर, देवानंद या अमिताभ बच्चन नहीं बन पाए। इस का उन्हें मलाल भी बहुत है। अब उन के पास क्या बडा, क्या छोटा परदा शायद कहने भर का भी काम नहीं रह गया है। ज़ी टी. वी. पर जीना इसी का नाम भी अब गुम हो चुका है, जिस में वह अच्छी और ज़िंदादिल कमपेयरिंग करते दिखते थे। अब यह कार्यक्रम एक दूसरे नाम से, रवीना टंडन एन डी टी वी पर परोसने लगी हैं। तो भी फ़ारूख शेख के सामाजिक सरोकार उन से छूटे नहीं हैं। जब वह फ़िल्मों और थिएटर में सक्रिय थे तब भी सामाजिक सरोकारों से उन की गहरी संलग्नता थी, अब भी है। सामजिक सरोकारों को ले कर वह वैसे ही बेचैन रहते हैं जैसे गमन फ़िल्म में उन पर फ़िलमाया एक गाना है, ‘सीने में जलन, आंखों में तूफान सा क्यों है/ इस शहर में हर शख्श परेशान सा क्यों है।‘ लखनऊ उन का आना जाना इस परेशानी के तहत अब भी होता है। और साल में दो-चार बार वह आ ही जाते हैं। यहां की एक संस्था से भी वह जुड़े हुए हैं। तुम्हारी अमृता नाटक के कई शो भी वह शबाना आज़मी के साथ यहां जब-तब करते ही रहते हैं। उमराव जान की शूटिंग भी वह इसी लखनऊ में रेखा के साथ कर चुके हैं। १९९१ की सर्दियों में फ़ारूख शेख किसी सामाजिक सरोकार से ही लखनऊ आए हुए थे तभी नवभारत टाइम्स के लिए दयानंद पांडेय ने उन से यह बातचीत की थी।बातचीत ज़रा क्या बहुत पुरानी भले ही हो पर मसले तो लगता है जैसे आज भी वही और वैसे ही हैं। पेश है बात चीत:
फ़ारुख शेख को शायद ज़िंदगी भर यह मलाल बना रहेगा कि वह स्टारडम की ऊँचाइयों को क्यों नहीं छू पाए। उन को इस का अफसोस भी बहुत है। वह कहते हैं कि “मेरी अभिनय क्षमता को कहीं ज्यादा सराहा गया। पर स्टार रेटिंग मेरी कम हुई।”
विचारों बातचीत और बर्ताव में प्रगतिशील रुझान वाले फ़ारुख शेख फ़िल्म इंडस्ट्री की गणित में उलझते ही ‘किस्मत’ जैसी बात पर आ जाते हैं। वह साफ तौर पर कहते हैं कि, “बुनियादी तौर पर फ़िल्म इंडस्ट्री में किस्मत की दखल 95 प्रतिशत है। मिलना, काम व्यवहार वगैरह तो सब 5 परसेंट में हैं।” फ़ारुख मानते हैं कि “मेरी किस्मत ने कुछ हद तक साथ दिया। पर मैं जिन कुछ चीज़ों में ज़्यादा चाहता था कम मिला। पर वहीं कुछ चीज़ों में ज़्यादा मिला।”
वह कहते हैं कि, “अगर आप का रेट ज़्यादा है तो फ़िल्में भी ज़्यादा मिलेंगी। और जब ज़्यादा फ़िल्में मिलेंगी तो सेलेक्शन की मारजिन भी ले सकता हूँ। अब अपनी मर्जी से 50 फ़िल्में ऑफर तो नहीं कर सकता। हकीकत यह है कि इस समय साल भर में औसतन चार फ़िल्में करता हूँ। पहले साल भर में 12-15 फ़िल्में मुझे आफर होती थी। अब साल में आफर होती हैं 5 या 6 तो उस में से दो या तीन हर हाल में सेलेक्ट करना है। टीवी सिरियल भी अब करने ही लगा हूँ। आप हालात समझ सकते हैं। तो क्या इस के लिए मेरा काम या व्यवहार जिम्मेवार है?” वह जैसे पूछते हैं और खुद ही जवाब भी दे लेते हैं , “जाहिर है कि नहीं।” और जोड़ते हैं, “सब किस्मत का खेल है।”
फिर जैसे वह किस्मत के खेल को साबित भी करना चाहते हैं। और बताते हैं कि, “अपने गए गुज़रे दिनों में भी जितेंद्र को संजीव कुमार से लगभग ड्योढ़ा पैसा मिलता था। और तो और यह बताते हुए भी अफ़सोस होता है कि संजीव कुमार के साथ मैं ने एक फ़िल्म की है और उस में भी उन्हें मुझ से भी कम पैसे दिए गए थे। तो जब संजीव कुमार जैसे विरले अभिनेता के साथ फ़िल्म इंडस्ट्री का ऐसा सुलुक था तो मेरी आप समझ सकते हैं।” वह जैसे बुदबुदाते हैं, “अभिनेता होना, और मजा हुआ अभिनेता होना किसी काम का नहीं होता। काम का होता है स्टार होना, स्टार रेटिंग ठीक होना।” वह कहते हैं कि, “यह स्टार रेटिंग का ही कमाल है कि अमिताभ बच्चन की पिटी हुई फ़िल्म भी किसी और फ़िल्म से ज़्यादा कमाती है।” वह कहते हैं, “सोचिए कि मैं अमिताभ हूँ। एक फ़िल्म का मैं एक करोड़ लेता हूँ। एक का चालीस लाख। तो पैसा फूंकने वाला क्यों फूंकेगा?” वह जोड़ते हैं, “फ़िल्म इतना खर्चीला माध्यम है कि कोई ‘रिस्क’ नहीं लेना चाहता।”
“परदे पर आप अमूमन मध्यवर्गीय चरित्र ही ज़्यादातर जीते हैं?” सवाल पर वह कहते हैं, “नहीं। ” बिल्कुल ऐसा ही नहीं है। इसी लखनऊ में उमराव जान शूट हुई थी। उस में नवाब की भूमिका है मेरी। पर आप की बात एक हद तक ज़्यादा सच है। दरअसल जिस किस्म की फ़िल्में हम करते हैं उस में मिडिल क्लास ही आ पाता है। और चूंकि शुरुआत भी मेरी फ़िल्मों में मध्यवर्गीय चरित्र से हुई है इस लिए ऐसे ही रोल ऑफर होते रहे और करता रहा।”
“आप को नहीं लगता कि आप मध्यवर्गीय भूमिकाओं में लगभग ‘टाइप्ड’ हो चले हैं?”
“इंडिया में कोई भी ऐसा आर्टिस्ट नहीं जो टाइप्ड न हो।” “पर जैसे धर्मेंद्र, जितेंद्र सरीखे लोग हर फ़िल्म में चाहे कोई भूमिका कर रहे हों रहेंगे वह धर्मेंद्र, जितेंद्र ही। ठीक उसी तर्ज पर आप भी कुछ क्या ज़्यादातर फ़िल्मों में जब ‘फ़ारुख शेख’ ही बने रह जाते हैं तो आप को अपने अभिनेता होने पर मलाल नहीं होता? तब जब आप खुद ही स्वीकारते हैं कि आप की अभिनय क्षमता को ज़्यादा सराहा गया है?”
यह सर्द सवाल उन्हें चिहुंका गया है और वह मुंबइया खोल से जैसे बाहर निकल आते हैं और पालथी मार कर बैठ जाते हैं। और बिल्कुल सहज हो कर कहते हैं, “ इस पर तो मैं ने अपने …कभी सोचा ही नहीं। और जिस भी किसी चरित्र को जीते हुए मैं फ़ारुख शेख रह गया हूँ तो यह मेरी कमजोरी है। मेरी ही । यह फ़ारुख शेख की कमजोरी है। और डाइरेक्टर्स की भी।”
“अच्छा चलिए अपनी कुछ फ़िल्मों में अपनी की हुई कुछ गलतियों को बताइए।”
“ कोई फ़िल्म ऐसी नहीं बता सकता जिस में गलती न की हो। पर मुझे अपना सब से ज़्यादा खराब काम अगर किसी फ़िल्म में लगा तो उमराव जान में है। हालां कि उमराव जान फ़िल्म अच्छी लगी। इन टोटल। पर अपना रोल नहीं। मैं ने किया अच्छा किया। पर मुझे पता नहीं क्यों वह रोल नहीं जमा। हो सकता है आप की वह बात भी कहीं सच हो कि मैं मध्यवर्गीय भूमिकाओं के ही लिए बना हूँ। यह वजह भी कहीं जेहन में रही होगी। पर दरअसल कभी-कभी एक्टर का सुर गलत लग जाता है। तो उमराव जान में जो नवाब सुल्तान अली का सुर होना था, नहीं हो पाया मेरा। पर रेखा और नसीर का सुर अच्छा था।”
फिर वह अच्छा अभिनय करने का जैसे गुर बताने लग जाते हैं, “एक तो काम आता हो। काम ही नहीं आएगा तो वह करेगा क्या? दूसरे, तार से तार मिले सुर मिले। तीसरे सामने वाले से अच्छा कर लेने की खुंदक न हो।” बात ही बात में वह बताते हैं कि उत्सव में रेखा के साथ लीड रोल पहले मुझे ही ऑफर हुआ था। पर किसी वजह से नहीं कर पाया।
“मध्यवर्गीय भूमिकाएं आप फिल्मों में तो करते हैं पर जीवन स्तर पर आप अपने को निजी जीवन में किस वर्ग में शुमार करते हैं ?”
“मध्य वर्ग में ही। फ़िल्मों में आने से पहले भी मिडिल क्लास बिलांग करता था और आज फ़िल्मी दुनिया में होने के बावजूद भी मध्यवर्गीय दुनिया में ही जीता हूँ।” वह बताते हैं, “पिता मुंबई में ही वकालत करते थे। बी.ए. के बाद मैं ने भी एल. एल. बी. किया 1975 में। पर प्रैक्टिस की कभी सोची नहीं। जब एल.एल.बी. में पढ़ रहा था जब भी प्रैक्टिस के बारे में नहीं सोचा था”।
“क्यों?”
“ जैसा मैं सोचता हूँ, चाहता हूँ वैसी प्रैक्टिस आज के दौर में कर नहीं सकता। जैसे कि क्रिमिनल लॉ मेरा फ़ेवरिट है। पर मैं सिर्फ़ काला कोट पहन कर घूमना नहीं चाहता था। हां टीवी पर एक फ़िल्म आई थी, ‘दूसरा कानून’ उस में वकील की भूमिका ज़रूर कर ली।”
नफ़ासत के साथ अच्छी उर्दू में बतियाने वाले फ़ारुख शेख कहते हैं, “मेरे अगल बगल सात पुश्तों तक कोई फ़िल्मी नहीं है मेरे खानदान में।” यह पूछने पर कि, “आप मूल निवासी कहाँ के हैं?” वह बताते हैं, “पला, बढ़ा, पढ़ा लिखा सब मुंबई में पर खानदान गुजरात से आया। और मेरी भी पैदाइश गुजरात में बरोडा के पास अमरौला गांव में हुई। हालां कि माता पिता तब भी मुंबई में ही रहते थे। पर जब मेरी पैदाइश का वक्त आया माँ को गाँव भेज दिया गया। क्यों कि पिता चाहते थे कि मेरी पैदाइश खानदानी गाँव में हो।”
1975 में एल.एल.बी किए फ़ारुख की शादी 1974 में आयशा के साथ हुई। और अब उन की दो बेटियाँ हैं। शाइस्ता 12 बरस की और शाना 7 बरस की। कोई 19 बरस हो गए उन्हें फ़िल्मी दुनिया में आए। फ़िल्मों में आने से पहले फ़ारुख शेख भी नाटकों में काम करते थे। पर अब वह थियेटर नहीं करते। वह बताते हैं कि, “थियेटर के लिए वक्त नहीं मिल पाता।” वह जैसे सफाई देने लगते हैं, “असल में स्टेज मेरे खून में नहीं उतर पाया। और फिर घर वालों का समय काट कर मैं नाटक नहीं कर सकता क्यों कि अमूमन आठ साढ़े आठ बजे रात तक मैं अपने घर आ जाता हूँ।”
बात शबाना आज़मी के साथ उन के प्रेम प्रसंगों की चल पड़ी और वह फिर सफाई देने पर उतर आए, ‘शबाना के साथ शुरु में कुछ नाटक किए थे। हमारे खयालात मिलते हैं। कुछ फ़िल्में की हैं। पर प्रेम नहीं। शबाना दरअसल मेरी बीवी की क्लासमेट रही हैं। फिर वह फ़िल्मी प्रेस पर विफर पड़ते हैं, ‘फ़िल्मी पत्रकार फ़िल्म इंडस्ट्री को किसी सर्कस की तरह ट्रीट करते हैं। आर्टिस्टों को भी मदारी बना देते हैं। मैगजिन बेचने के लिए ढेरों झूठ लिख जाते हैं। लोगों का हमारे प्रति इंप्रेशन खराब हो जाता है।”
फ़िल्म इंडस्ट्री में औरतों के शोषण की बात चली तो वह बोले, ‘इसमें भी आधी गप होती है।“ फिर वह पुरुष मानसिकता पर आ गए, “जब हम सड़क पर चलते हैं तब औरतों को धक्का मारते चलते हैं। फिर फ़िल्म इंडस्ट्री तो फिर भी फ़िल्म इंडस्ट्री है”।
फ़िल्मी एक्स्ट्राओं की बात चली तो वह कहने लगे, “एक्स्ट्राओं की हालत अब पहले से बहुत बेहतर है”। बात फ़िल्मों में ‘फैंटेसी’ की चली तो वह बोले, ‘फैंटेसी’ तो सिनेमा की ज़रुरत है।
“आप अपनी सब से महत्वपूर्ण फ़िल्म का नाम लेंगे?”
“किसी एक का नहीं चार पांच का ले सकता हूँ। कथा, बाज़ार, महानंदा, उमराव जान।”
“कथा में जो चरित्र आप ने किया था, कहते हैं बासु भट्टाचार्य को केंद्र में रख कर यह चरित्र सई परांजपे ने रचा था?”
“कहने को तो कोई कुछ भी कह सकता है।”
“तो क्या इस फ़िल्म को करने के पहले बासु भट्टाचार्य के चरित्र को आपने बहुत बारीकी से जांचा था?”
“नहीं। बिल्कुल नहीं। और मैं नहीं समझता कि बासु भट्टाचार्य को ध्यान में रख कर वह चरित्र रचा गया था। बासु ऐसे नहीं हैं।”
‘गर्म हवा’ से फ़िल्मी जीवन शुरु कर ‘गमन’ से अपनी पहचान बनाने वाले फ़ारुख शेख अब तक कोई 23 फिल्मों में बतौर नायक आ चुके हैं। यह पूछने पर कि, “फिल्मों में मिला हुआ पैसा कहाँ इंवेस्ट करते हैं?”
वह बोले, “पैसा बचता ही नहीं।”। इंवेस्ट क्या करुंगा?
“एक फ़िल्म का औसतन आप कितना पैसा लेते हैं”?
“सागर सरहदी की ‘बाज़ार’ जैसी फ़िल्म में मुफ़्त में भी काम किया है। कहीं कम ज़्यादा भी कर लेता हूँ। पर आप औसतन पूछ रहे हैं तो तकरीबन चार लाख रुपए लेते हैं एक फ़िल्म का”। फ़ारुख का सब से पसंदीदा काम फ़िल्म ही है पर वह भूकंप, मंदिर, मंडल जैसे मुद्दों पर भी खुल कर बोलते हैं। और मानते हैं कि, सारे हालातों के लिए ज़िम्मेदार राजनीतिज्ञ हैं। इन को ठीक करना सीख जाएं हम तो हमारा मुल्क दुनिया के नक्शे पर फिर से अव्वल हो जाए।” वह बात फिर दुहराते हैं, “75 प्रतिशत समस्याएं हमारे देश के राजनीतिज्ञों की देन हैं।” और कहते हैं, “पर अब स्लीपिंग पार्टनर की तरह देश नहीं चल सकता। इस तरह तो केले का ठेला भी नहीं चल सकता। कि साहब पूँजी लगा दी और सो गए। पर अफसोस कि हमारे देश का वोटर यही कर रहा है।”
शायद यह उन की सोच का ही प्रतिफल है कि फ़ारुख पहले फ़िल्मों की शूटिंग के सिलसिले में लखनऊ आते थे। पर अब उन का लखनऊ आना दूसरे कामों से भी होने लगा है। जैसे पिछले बरस जब वह लखनऊ आए थे तो यही मौसम था। लेकिन वह उत्तर काशी में आए भूकंप से तबाह लोगों को राहत सामग्री भिजवाने के इंतज़ाम के फेर में तब लखनऊ आए थे। और अब की लखनऊ धर्मनिरपेक्ष जन अभियान के सम्मेलन में शरीक होने वह आए थे। परेशान वह पिछली बार भी थे पर अब की वह तबाह थे। तो इस शिफ़त की कैफ़ियत सिर्फ़ यही भर नहीं हो सकती कि मुंबई की फ़िल्मी दुनिया में उन के पास काम ज़्यादा नहीं है बल्कि सबब यह भी है कि सामाजिक सरोकारों के प्रति भी वह किंचित सचेत हैं।
साभार- सरोकारनामा
दयानंद पांडेय
दयानंद पांडेय ,लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. अपनी कहानियों और उपन्यासों के मार्फ़त लगातार चर्चा में रहने वाले दयानंद पांडेय का जन्म 30 जनवरी, 1958 को गोरखपुर ज़िले के एक गांव बैदौली में हुआ। हिंदी में एम.ए. करने के पहले ही से वह पत्रकारिता में आ गए। 33 साल हो गए हैं पत्रकारिता करते हुए। उन के उपन्यास और कहानियों आदि की कोई डेढ़ दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हैं। लोक कवि अब गाते नही पर प्रेमचंद सम्मान तथा कहानी संग्रह ‘एक जीनियस की विवादास्पद मौत’ पर यशपाल सम्मान। बांसगांव की मुनमुन, वे जो हारे हुए, हारमोनियम के हजार टुकड़े, लोक कवि अब गाते नहीं, अपने-अपने युद्ध, दरकते दरवाज़े, जाने-अनजाने पुल (उपन्यास), प्रतिनिधि कहानियां, बर्फ में फंसी मछली, सुमि का स्पेस, एक जीनियस की विवादास्पद मौत, सुंदर लड़कियों वाला शहर, बड़की दी का यक्ष प्रश्न, संवाद (कहानी संग्रह), हमन इश्क मस्ताना बहुतेरे (संस्मरण), सूरज का शिकारी (बच्चों की कहानियां), प्रेमचंद व्यक्तित्व और रचना दृष्टि (संपादित) तथा सुनील गावस्कर की प्रसिद्ध किताब ‘माई आइडल्स’ का हिंदी अनुवाद ‘मेरे प्रिय खिलाड़ी’ नाम से प्रकाशित। उनका ब्लाग है- सरोकारनामा

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