सच तो यह है कि पिछले चुनाव में बसपा को जो जीत हासिल हुई थी, उनमें से 81 सीटें ऐसी थीं, जिनमें से 25 सीटों पर हार-जीत का फैसला जहां हजार से कम वोटों के मार्जिन से हुआ था, वहीं 27 सीटें ऐसी थीं, जहां हार-जीत का फैसला हजार से दो हजार वोटों के अंतर से हुआ था। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दिन जैसे-जैसे नजदीक आ रहे हैं, राजनीतिक दलों की सांसें फूलती जा रही हैं। सरकार चला रही बसपा के वोट बैंक दलित, ब्राह्मण और मुसलमान इस बार मायावती पर कितना ऐतबार करेंगे, इसका पता लगाने की पूरी कोशिश की जा रही है। इसके लिए बसपा ने कई एजेंसियां ‘हायर’ कर रखी हैं और अपने कई प्यादों को भी लगा रखा है।
शुरुआती दौर के जो आंकड़े माया के पास पहुंचे हैं, वे ज्यादा संतोषजनक तो नहीं हैं, लेकिन कुल मिलाकर कुछ पार्टियों के गठबंधन से सरकार फिर बनती दिख रही है। सूत्रों की मानें, तो इस शुरुआती आंकड़े से मायावती की धड़कनें तेज हो गई हैं और कहा जा रहा है कि वोटों के मुकम्मल इंतजाम के लिए माया ने अपने आठ कारिंदों को ‘चाहे जिस कीमत पर हो, वोट हमें चाहिए’ के इंतजाम के लिए लगा दिया गया है। इनमें से दो कारिंदे इन दिनों दिल्ली के आसपास के इलाकों में लोगों की टोह लेते फिर रहे हैं। दरअसल, इस पूरे खेल के पीछे का सच यह है कि पिछले विधानसभा चुनाव 2007 के दौरान बसपा को जो जीत हासिल हुई थी, उनमें से 81 सीटें ऐसी थीं, जिस पर बसपा को 34 सीटें मात्र 70 से लेकर 3000 वोटों के अंतर से मिली थीं।
इन 81 सीटों में से 25 सीटों पर हार-जीत का फैसला जहां हजार से कम वोटों के मार्जिन से हुआ था, वहीं 27 सीटें ऐसी थीं, जहां हार जीत का फैसला हजार से दो हजार वोटों के अंतर से हुआ था। इसके अलावा 29 सीटों पर हार-जीत का अंतर 2000 से 3000 वोटों का था। यानी, 403 सदस्यीय विधानसभा में अभी 81 लोगों की जीत 70 से 3000 सें कम वोटों से हुई थी। आप यह भी कह सकते हैं कि इन्हीं सीटों पर 81 लोगों की हार उपरोक्त वोटों के अंतर से हुई थी। इन 81 सीटों में से बसपा को 34 सीटें मिली थीं, सपा को 29 सीटें, कांग्रेस को 4 सीटें, भाजपा को 10 सीटें और अन्य दलों को 4 सीटें मिली थीं।
चौंकाने वाली बातें ये हैं कि इन 81 सीटों में 13 सीटें शाहगंज, जलेसर, सरायमीर, महाराजगंज, कोंच, हंसाबाजार, सिसमऊ, चरदा, चढ़तवाल, कादीपुर, मलीहाबाद, बांसगांव और चकिया सुरक्षित थीं, जिनमें सपा के खाते में 6 सीटें गई थीं, बसपा को 5 सीटें मिलीं, जबकि कांग्रेस और भाजपा को क्रमश: सिसमऊ और जलेसर सीट ही हाथ लगी थी। सिसमऊ सें कांग्रेस के संजीव दरियावादी ने भाजपा के राकेश सोलंकी को 1364 वोटों से हराया था। उधर, जलेसर से भाजपा उम्मीदवार कुबेर सिंह ने बसपा उम्मीदवार रणवीर सिंह कश्यप को मात्र 72 वोटों के अंतर से हराया था। भाजपा को यहां 31038 वोट मिले थे, जबकि बसपा को 30966 वोट मिले थे। तीसरे स्थान पर सपा थी, जिसे 22527 वोट मिले थे। 81 में से 13 सुरक्षित सीटों में 6 पर सपा की जीत को बेहतर माना जा सकता है और आप कह सकते हैं कि 2007 के चुनाव में ही सपा ने माया के गढ़ को भेदने की कोशिश की थी।
आपको बता दें कि सपा की कोशिश आसन्न चुनाव में 2007 में अपनी जीती 29 सीटों को बचाने की तो है ही साथ ही, कम मार्जिन से हारी 28 सीटों को भी जीतने की है। प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश यादव कहते हैं कि ‘हमारा सबसे ज्यादा ध्यान उन सीटों पर है, जहां कम वोटों के अंतर से हमारी हार हुई थी। हम पूरी तरह से उन सीटों को पाने की कोशिश करेंगे। इसके अलावा बसपा के कुशासन को जनता तक पहुंचाकर हम उन सीटों पर भी मजबूती से लड़ेंगे, जहां हम तीसरे नंबर पर चले गए थे।’ यही हाल बसपा खेमे का भी है। हालांकि बसपा की तरफ से कोई भी नेता इस मसले पर सार्वजनिक तौर पर कुछ भी बोलने को तैयार नहीं है, लेकिन अंदरखाने बसपा, सपा से पिछड़ गई सीटों को वापस प्राप्त करने की तैयारी कर रही है। बसपा के एक सांसद कहते हैं कि इस चुनाव में बसपा के वोट बैंक में जाति समीकरण में आ रहे बदलाव से कमी आ सकती है, लेकिन सपा और कांग्रेस से नाराज लोगों की भी हमारे पास लंबी सूची है। ये लोग उन सीटों को वापस लाने में मददगार होंगे, जिन्हें कम मार्जिन से पिछले चुनाव में पार्टी ने खो दिया था।
मामला केवल सपा और बसपा के बीच का ही नहीं है। भाजपा भी पिछले चुनाव में दर्जनभर से ज्यादा सीटें कम मार्जिन से हार गई थी। भाजपा भी उन हारी हुई सीटों पर नजर रखे हुए है और एक अलग रणनीति के तहत उन सीटों को अपने कब्जे में लाने की चाल भी चल रही है। 2007 के चुनाव में कांग्रेस को मात्र 22 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा था और करीब एक दर्जन सीटें उसने कम वोटों के मार्जिन से गंवार्इं थी।
इस बार राहुल गांधी की अगुवाई में सीटों में बढ़त क्या होगी, अभी कहना मुश्किल है, लेकिन इतना तय माना जा रहा है कि कांग्रेस उन दो दर्जन सीटों पर नजर गड़ाए हुए है, जहां पिछले चुनाव में उसकी हार पांच हजार से कम वोटों से हुई थी। 2012 के चुनाव में अगर जातीय समीकरण में बदलाव आते भी हैं, तो भी बसपा वोट बैंक के सामने अभी किसी भी दल का पहुंचना संभव नहीं है, लेकिन जिस तरह से सपा की तैयारी चल रही है, उसे कम करके आंकना भी उचित नहीं होगा। अभी चुनाव होने में समय है, लेकिन सभी दलों ने उन 81 सीटों पर ज्यादा ध्यान केंद्रित कर रखा है, जहां उसकी हार तीन हजार से कम वोटों से हुई थी। आप कह सकते हैं कि यही 81 सीटें किसी भी दल की जीत और हार का पैमाना हो सकती है। यही वजह है कि इन सीटों के लिए राजनीतिक दलों में ‘महासंग्राम’ छिड़ना भी तय है।
आपको बता दें कि सपा की कोशिश आसन्न चुनाव में 2007 में अपनी जीती 29 सीटों को बचाने की तो है ही साथ ही, कम मार्जिन से हारी 28 सीटों को भी जीतने की है। प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश यादव कहते हैं कि ‘हमारा सबसे ज्यादा ध्यान उन सीटों पर है, जहां कम वोटों के अंतर से हमारी हार हुई थी। हम पूरी तरह से उन सीटों को पाने की कोशिश करेंगे। इसके अलावा बसपा के कुशासन को जनता तक पहुंचाकर हम उन सीटों पर भी मजबूती से लड़ेंगे, जहां हम तीसरे नंबर पर चले गए थे।’ यही हाल बसपा खेमे का भी है। हालांकि बसपा की तरफ से कोई भी नेता इस मसले पर सार्वजनिक तौर पर कुछ भी बोलने को तैयार नहीं है, लेकिन अंदरखाने बसपा, सपा से पिछड़ गई सीटों को वापस प्राप्त करने की तैयारी कर रही है। बसपा के एक सांसद कहते हैं कि इस चुनाव में बसपा के वोट बैंक में जाति समीकरण में आ रहे बदलाव से कमी आ सकती है, लेकिन सपा और कांग्रेस से नाराज लोगों की भी हमारे पास लंबी सूची है। ये लोग उन सीटों को वापस लाने में मददगार होंगे, जिन्हें कम मार्जिन से पिछले चुनाव में पार्टी ने खो दिया था।
मामला केवल सपा और बसपा के बीच का ही नहीं है। भाजपा भी पिछले चुनाव में दर्जनभर से ज्यादा सीटें कम मार्जिन से हार गई थी। भाजपा भी उन हारी हुई सीटों पर नजर रखे हुए है और एक अलग रणनीति के तहत उन सीटों को अपने कब्जे में लाने की चाल भी चल रही है। 2007 के चुनाव में कांग्रेस को मात्र 22 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा था और करीब एक दर्जन सीटें उसने कम वोटों के मार्जिन से गंवार्इं थी।
इस बार राहुल गांधी की अगुवाई में सीटों में बढ़त क्या होगी, अभी कहना मुश्किल है, लेकिन इतना तय माना जा रहा है कि कांग्रेस उन दो दर्जन सीटों पर नजर गड़ाए हुए है, जहां पिछले चुनाव में उसकी हार पांच हजार से कम वोटों से हुई थी। 2012 के चुनाव में अगर जातीय समीकरण में बदलाव आते भी हैं, तो भी बसपा वोट बैंक के सामने अभी किसी भी दल का पहुंचना संभव नहीं है, लेकिन जिस तरह से सपा की तैयारी चल रही है, उसे कम करके आंकना भी उचित नहीं होगा। अभी चुनाव होने में समय है, लेकिन सभी दलों ने उन 81 सीटों पर ज्यादा ध्यान केंद्रित कर रखा है, जहां उसकी हार तीन हजार से कम वोटों से हुई थी। आप कह सकते हैं कि यही 81 सीटें किसी भी दल की जीत और हार का पैमाना हो सकती है। यही वजह है कि इन सीटों के लिए राजनीतिक दलों में ‘महासंग्राम’ छिड़ना भी तय है।
वरिष्ठ पत्रकार अखिलेश अखिल का विश्लेषण.
Sabhar- Bhadas4media.com
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