राष्ट्रीय सहारा, पटना में स्थानीय संपादक द्वारा डांटे जाने के बाद अत्यधिक तनाव के चलते अचानक एक जर्नलिस्ट के बेहोश होने की घटना के बारे में कई नए तथ्य पता चले हैं. भड़ास4मीडिया की जांच से खुलासा हुआ है कि इस घटनाक्रम के लिए पूरी तरह जिम्मेदार स्थानीय संपादक हरीश पाठक हैं. संतोष चंदन, जो कुछ महीने पहले तक दिल्ली में सहारा समय न्यूज चैनल के हिस्से हुआ करते थे, अपनी मर्जी से पटना गए और अपनी मर्जी से टीवी की बजाय प्रिंट को चुनकर उसके हिस्से बने. ऐसा पत्रकारीय समझ और बेहतर काम करने की इच्छा-तमन्ना-भावना के कारण.
आज के दौर में जब लोग पटना-लखनऊ-भोपाल आदि से दिल्ली की तरफ भागते हैं, कोई जर्नलिस्ट दिल्ली से खुद ट्रांसफर लेकर पटना जा रहा हो और टीवी की बजाय प्रिंट को पत्रकारिता के लिए बेहतर आप्शन के रूप में चुन रहा हो, तो समझा जा सकता है कि वह संवेदनशील जर्नलिस्ट होगा. समझदार जर्नलिस्ट होगा. नया कुछ करने की आकांक्षा रखने वाला जर्नलिस्ट होगा.
संतोष चंदन के बैकग्राउंड के बारे में पता चला है कि वे रंगकर्मी और एक्टिविस्ट रहे हैं. वाम आंदोलनों से बेहद करीब का उनका रिश्ता रहा है. थिएटर के मोर्चे पर काफी कुछ किया है उन्होंने. 'समकालीन जनमत' पत्रिका से जुड़े रहे हैं. उधर, दूसरी तरफ हरीश पाठक हैं जो खुद को साहित्यकार बताते हैं. पत्रकारिता में लंबे समय से हैं. उनकी कई किताबें भी हैं. पर आफिस में जिस तरह का उनका व्यवहार अपने सहकर्मियों के साथ होता है, वह न सिर्फ अशोभनीय बल्कि अशालीन भी है. प्यून से लेकर पेज मेकर तक और ट्रेनी से लेकर एनई तक, ज्यादातर लोग, आफिस के 90 फीसदी लोग हरीश पाठक के व्यवहार से परेशान रहते हैं. छोटी छोटी बातों पर अत्यधिक गुस्सा करना, झिड़कना, डांटना, फटकारना, दबाव में लेना... यह सब रूटीन का हिस्सा है.
भड़ास4मीडिया के पास लंबे समय से हरीश पाठक के व्यवहार को लेकर कई तरह की शिकायतें व मेल आती रही हैं पर इन मेलों पर कभी इसलिए ध्यान नहीं दिया गया क्योंकि माना गया कि कुछ लोग इरादतन हरीश पाठक को बदनाम करने के मकसद से 'मेल भेजो अभियान' चला रहे होंगे. पर हाल में जो घटना हुई और उस घटना के बारे में जिस तरह से झूठ बोलकर हरीश पाठक ने अपना बचाव करने की कोशिश की, वह शर्मनाक है. हरीश पाठक ने संतोष चंदन के स्वास्थ्य को लेकर ही कई तरह के सवाल खड़े कर दिए.
हद तो ये है कि बेहोश होने के बाद हास्पिटल भर्ती हुए और अब घर पर आराम कर रहे संतोष चंदन को हरीश पाठक ने आज तक फोन कर उनके स्वास्थ्य के बारे में जानकारी तक नहीं ली. कोई खुद को साहित्यकार और पत्रकार कहे और उसके अंदर संवेदना बिलकुल ना हो, ये कैसे हो सकता है? साहित्यकारों के लिए तो खासतौर पर कहा जाता है कि उनके लिए मनुष्य की गरिमा और मर्यादा ही सबसे बड़ा सवाल होता है. लेकिन हरीश पाठक की असंवेदनशीलता देखिए कि उनके सामने उनका जो सहकर्मी उनकी डांट-फटकार से तनाव बर्दाश्त न करने के कारण बेहोश हो गया, वे उसका हालचाल पता करने तक न पहुंचे और न ही फोन किया.
बताया जा रहा है कि डिप्टी चीफ रिपोर्टर संतोष चंदन को हरीश पाठक ने सिटी की सारी खबरों के एक-एक अक्षर तक को पढ़ने और दुरूस्त करने की जिम्मेदारी सौंप रखी थी. जब संतोष चंदन प्रत्येक खबर को पेजीनेशन व प्रिंटिंग के लिहाज से ओके करते थे तब हरीश पाठक उसे चेक करते थे. संतोष चंदन को जो काम दिया गया है, वह कतई आसान काम नहीं है. बेहद जिम्मेदारी भरा काम है. बेहद सावधानी व दिल-दिमाग लगाकर किए जाने वाला काम है. यह काम अगर किसी से डांट फटकार करके लिया जाएगा तो स्पष्ट है कि वह न सिर्फ गल्तियां करेगा बल्कि तनाव में उसकी कार्यक्षमता घटेगी.
घटना के दिन आफिस में मौजूद एक जर्नलिस्ट का कहना है कि आजकल के संपादक अपने आगे किसी को कुछ समझते ही नहीं हैं. वे मान लेते हैं कि उनके सामने बैठा हर शख्स मोटी चमड़ी वाला है, जितना डांटो-फटकारो, कोई असर नहीं पड़ेगा. संतोष चंदन सुलझे और संवेदनशील जर्नलिस्ट हैं. उन्हें ऐसी किसी स्थिति की उम्मीद न थी. वे सहारा के दिल्ली आफिस में काम कर चुके हैं. उन्हें अंदाजा नहीं था कि पटना में राष्ट्रीय सहारा अखबार के अंदर माहौल इस तरह का होगा. अगर उन्हें तनिक भी अंदाजा होता तो वे यहां न आए होते या फिर प्रिंट की जगह टीवी में ही रहे होते.
पता नहीं इस घटना के बाद से हरीश पाठक ने अपना व्यवहार और तौर-तरीका बदला है या नहीं, परंतु उन्हें अगर नहीं पता हो तो वे जान लें कि अच्छा एडिटर वही होता है जो अपने सहकर्मियों का विश्वास व दिल जीतकर साथ लेकर चले. असली कप्तान वही होता है जो टीम में ऊर्जा भर दे, टीम स्पिरिट डेवलप करा दे. कई विद्वान लोग इतने खराब टीम लीडर होते हैं कि अच्छी खासी टीम चौपट कर देते हैं. कई बुरे कहे जाने वाले लोग इतने अच्छे टीम लीडर होते हैं कि बेहद पस्त व त्रस्त टीम में जान फूंककर उसी के जरिए सभी मैच जीतकर ट्राफी पर कब्जा कर लेते हैं.
दुनिया भर की बड़ी कंपनियां कर्मियों की कार्यक्षमता बढ़ाने के लिए क्या-क्या प्रयोग कर रही हैं, हम हिंदी वाले इसके बारे में या तो जानते नहीं या फिर जानने बूझने के बावजूद अपनी लठैती पर अड़े रहते हैं. आफिसों में कम से कम तनाव हो, इसके लिए कई तरह की कवायद की जा रही है. स्माइल करने, प्रेम से बोलने, योगा करने, संगीत सुनने.... रोजाना ऐसी खबरें हम अखबार वाले ही छापते हैं. पर जब खुद के आफिस की बात आती है तो हम भूत बन जाते हैं और सामने वाले को डराने लगते हैं.
आखिर में, हरीश पाठक से एक विनम्र अपील...
प्लीज सर, अब सुधर जाइए. अपने सहकर्मियों से प्रेम से काम लीजिए. सबको सम्मान और गरिमा दीजिए. अनुशासन बिलकुल बनाए रखिए, डिकोरम का पालन हर हाल में कराते रहिए. पर यह सब बिना डांटे-फटकारे संभव है. बेवजह तनाव पैदा किए बिना भी यह सब संभव है. आप भी कभी सब एडिटर रहे होंगे. कभी चीफ सब एडिटर बने होंगे. कभी न्यूज एडिटर हुए होंगे. तो उन दिनों में आप अपने संपादक से जैसे व्यवहार की अपेक्षा करते थे, वैसा ही व्यवहार आप अपने अधीनस्थों से करें तो आपके प्रति हम लोगों के मन में सम्मान का भाव बढ़ जाएगा. आप उम्र और अनुभव दोनों में बड़े हैं, उम्मीद है, कभी-कभी छोटे-मोटे लोगों की भी सलाह-बात मान लिया करेंगे.
आपका ही
यशवंत सिंह
एडिटर
भड़ास4मीडिया
संपर्क : 09999330099
yashwant@bhadas4media.com
आज के दौर में जब लोग पटना-लखनऊ-भोपाल आदि से दिल्ली की तरफ भागते हैं, कोई जर्नलिस्ट दिल्ली से खुद ट्रांसफर लेकर पटना जा रहा हो और टीवी की बजाय प्रिंट को पत्रकारिता के लिए बेहतर आप्शन के रूप में चुन रहा हो, तो समझा जा सकता है कि वह संवेदनशील जर्नलिस्ट होगा. समझदार जर्नलिस्ट होगा. नया कुछ करने की आकांक्षा रखने वाला जर्नलिस्ट होगा.
संतोष चंदन के बैकग्राउंड के बारे में पता चला है कि वे रंगकर्मी और एक्टिविस्ट रहे हैं. वाम आंदोलनों से बेहद करीब का उनका रिश्ता रहा है. थिएटर के मोर्चे पर काफी कुछ किया है उन्होंने. 'समकालीन जनमत' पत्रिका से जुड़े रहे हैं. उधर, दूसरी तरफ हरीश पाठक हैं जो खुद को साहित्यकार बताते हैं. पत्रकारिता में लंबे समय से हैं. उनकी कई किताबें भी हैं. पर आफिस में जिस तरह का उनका व्यवहार अपने सहकर्मियों के साथ होता है, वह न सिर्फ अशोभनीय बल्कि अशालीन भी है. प्यून से लेकर पेज मेकर तक और ट्रेनी से लेकर एनई तक, ज्यादातर लोग, आफिस के 90 फीसदी लोग हरीश पाठक के व्यवहार से परेशान रहते हैं. छोटी छोटी बातों पर अत्यधिक गुस्सा करना, झिड़कना, डांटना, फटकारना, दबाव में लेना... यह सब रूटीन का हिस्सा है.
भड़ास4मीडिया के पास लंबे समय से हरीश पाठक के व्यवहार को लेकर कई तरह की शिकायतें व मेल आती रही हैं पर इन मेलों पर कभी इसलिए ध्यान नहीं दिया गया क्योंकि माना गया कि कुछ लोग इरादतन हरीश पाठक को बदनाम करने के मकसद से 'मेल भेजो अभियान' चला रहे होंगे. पर हाल में जो घटना हुई और उस घटना के बारे में जिस तरह से झूठ बोलकर हरीश पाठक ने अपना बचाव करने की कोशिश की, वह शर्मनाक है. हरीश पाठक ने संतोष चंदन के स्वास्थ्य को लेकर ही कई तरह के सवाल खड़े कर दिए.
हद तो ये है कि बेहोश होने के बाद हास्पिटल भर्ती हुए और अब घर पर आराम कर रहे संतोष चंदन को हरीश पाठक ने आज तक फोन कर उनके स्वास्थ्य के बारे में जानकारी तक नहीं ली. कोई खुद को साहित्यकार और पत्रकार कहे और उसके अंदर संवेदना बिलकुल ना हो, ये कैसे हो सकता है? साहित्यकारों के लिए तो खासतौर पर कहा जाता है कि उनके लिए मनुष्य की गरिमा और मर्यादा ही सबसे बड़ा सवाल होता है. लेकिन हरीश पाठक की असंवेदनशीलता देखिए कि उनके सामने उनका जो सहकर्मी उनकी डांट-फटकार से तनाव बर्दाश्त न करने के कारण बेहोश हो गया, वे उसका हालचाल पता करने तक न पहुंचे और न ही फोन किया.
बताया जा रहा है कि डिप्टी चीफ रिपोर्टर संतोष चंदन को हरीश पाठक ने सिटी की सारी खबरों के एक-एक अक्षर तक को पढ़ने और दुरूस्त करने की जिम्मेदारी सौंप रखी थी. जब संतोष चंदन प्रत्येक खबर को पेजीनेशन व प्रिंटिंग के लिहाज से ओके करते थे तब हरीश पाठक उसे चेक करते थे. संतोष चंदन को जो काम दिया गया है, वह कतई आसान काम नहीं है. बेहद जिम्मेदारी भरा काम है. बेहद सावधानी व दिल-दिमाग लगाकर किए जाने वाला काम है. यह काम अगर किसी से डांट फटकार करके लिया जाएगा तो स्पष्ट है कि वह न सिर्फ गल्तियां करेगा बल्कि तनाव में उसकी कार्यक्षमता घटेगी.
घटना के दिन आफिस में मौजूद एक जर्नलिस्ट का कहना है कि आजकल के संपादक अपने आगे किसी को कुछ समझते ही नहीं हैं. वे मान लेते हैं कि उनके सामने बैठा हर शख्स मोटी चमड़ी वाला है, जितना डांटो-फटकारो, कोई असर नहीं पड़ेगा. संतोष चंदन सुलझे और संवेदनशील जर्नलिस्ट हैं. उन्हें ऐसी किसी स्थिति की उम्मीद न थी. वे सहारा के दिल्ली आफिस में काम कर चुके हैं. उन्हें अंदाजा नहीं था कि पटना में राष्ट्रीय सहारा अखबार के अंदर माहौल इस तरह का होगा. अगर उन्हें तनिक भी अंदाजा होता तो वे यहां न आए होते या फिर प्रिंट की जगह टीवी में ही रहे होते.
पता नहीं इस घटना के बाद से हरीश पाठक ने अपना व्यवहार और तौर-तरीका बदला है या नहीं, परंतु उन्हें अगर नहीं पता हो तो वे जान लें कि अच्छा एडिटर वही होता है जो अपने सहकर्मियों का विश्वास व दिल जीतकर साथ लेकर चले. असली कप्तान वही होता है जो टीम में ऊर्जा भर दे, टीम स्पिरिट डेवलप करा दे. कई विद्वान लोग इतने खराब टीम लीडर होते हैं कि अच्छी खासी टीम चौपट कर देते हैं. कई बुरे कहे जाने वाले लोग इतने अच्छे टीम लीडर होते हैं कि बेहद पस्त व त्रस्त टीम में जान फूंककर उसी के जरिए सभी मैच जीतकर ट्राफी पर कब्जा कर लेते हैं.
दुनिया भर की बड़ी कंपनियां कर्मियों की कार्यक्षमता बढ़ाने के लिए क्या-क्या प्रयोग कर रही हैं, हम हिंदी वाले इसके बारे में या तो जानते नहीं या फिर जानने बूझने के बावजूद अपनी लठैती पर अड़े रहते हैं. आफिसों में कम से कम तनाव हो, इसके लिए कई तरह की कवायद की जा रही है. स्माइल करने, प्रेम से बोलने, योगा करने, संगीत सुनने.... रोजाना ऐसी खबरें हम अखबार वाले ही छापते हैं. पर जब खुद के आफिस की बात आती है तो हम भूत बन जाते हैं और सामने वाले को डराने लगते हैं.
आखिर में, हरीश पाठक से एक विनम्र अपील...
प्लीज सर, अब सुधर जाइए. अपने सहकर्मियों से प्रेम से काम लीजिए. सबको सम्मान और गरिमा दीजिए. अनुशासन बिलकुल बनाए रखिए, डिकोरम का पालन हर हाल में कराते रहिए. पर यह सब बिना डांटे-फटकारे संभव है. बेवजह तनाव पैदा किए बिना भी यह सब संभव है. आप भी कभी सब एडिटर रहे होंगे. कभी चीफ सब एडिटर बने होंगे. कभी न्यूज एडिटर हुए होंगे. तो उन दिनों में आप अपने संपादक से जैसे व्यवहार की अपेक्षा करते थे, वैसा ही व्यवहार आप अपने अधीनस्थों से करें तो आपके प्रति हम लोगों के मन में सम्मान का भाव बढ़ जाएगा. आप उम्र और अनुभव दोनों में बड़े हैं, उम्मीद है, कभी-कभी छोटे-मोटे लोगों की भी सलाह-बात मान लिया करेंगे.
आपका ही
यशवंत सिंह
एडिटर
भड़ास4मीडिया
संपर्क : 09999330099
yashwant@bhadas4media.com
साभार -भड़ास4मीडिया.कॉम
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