नया-नया पत्रकार बना था। दोस्त की शादी में गया था। दोस्त ने अपने एक ब्यूरोक्रेट रिश्तेदार से मिलवाया। अच्छा आप पत्रकार हैं? पत्रकार तो पचास रुपये में बिक जाते हैं। काटो तो खून नहीं। क्या कहता? पिछले दिनों जब राडिया का टेप सामने आया तो उन बुजुर्ग की याद हो आई। बुजुर्गवार एक छोटे शहर के बड़े अफसर थे। उनका रोजाना पत्रकारों से सामना होता था। अपने अनुभव से उन्होंने बोला था। जिला स्तर पर छोटे-छोटे अखबार निकालने वाले ढेरों ऐसे पत्रकार हैं जो वाकई में उगाही में लगे रहते हैं। ये कहने का मेरा मतलब बिलकुल नहीं है कि जिलों में ईमानदार पत्रकार नहीं होते। ढेरों हैं जो बहुत मुश्किल परिस्थितियों में जान जोखिम में डालकर पत्रकारिता कर रहे हैं। इनकी संख्या शायद उतनी नहीं है जितनी होनी चाहिये। ऐसे में राडिया टेप आने पर कम से कम मैं बिलकुल नहीं चौंका।
हालांकि इन टेपों में पैसे के लेन-देन का जिक्र नहीं है। इसमें किसी को मंत्री बनाने के लिये लॉबिंग की जा रही है। पूरी बातचीत इशारा करती है- एक, किस तरह से बड़े-बड़े कॉर्पोरेट घराने सरकार की नीतियों को प्रभावित करते हैं? दो, किस तरह से नेता इन कॉर्पोरेट घरानों का इस्तेमाल मंत्री बनने के लिये करते हैं? तीन, किस तरह से पत्रकार कॉर्पोरेट घराने और नेता के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाते हैं? चार, किस तरह से इन तीनों का कॉकटेल सत्ता में फैले भ्रष्टाचार को आगे बढा़ता है? पत्रकार ये कह सकते हैं कि उसे खबरें पाने के लिये नेताओं और बिजनेस घरानों से बात करनी होती है। उन्हें अपना सोर्स बनाने के लिये नेताओं और विजनेस घरानों से उनके मन लायक बात भी करनी होती है। ये बात सही है लेकिन ये कहां तक जायज है कि पत्रकार बिजनेस हाउस से डिक्टेशन ले और जैसा बिजनेस हाउस कहे वैसा लिखे? या नेता को मंत्री बनाने के लिये उसकी तरफदारी करे?
हाई प्रोफाइल पंच-संस्कृति अंग्रेजी की पत्रकारिता में इसे भले ही लॉबिंग कहा जाता हो या फिर खबर के लिये नेटवर्किंग लेकिन खाटी हिंदी में इसे ‘दल्लागिरी’ कहते हैं और ऐसा करने वालों को ‘दल्ला’। और मुझे ये कहने में जरा भी संकोच नहीं है कि हम पत्रकारों को ये पता है कि हमारे बीच कौन पत्रकार ‘दल्ला’ है और कौन ‘दल्लागिरी’ कर रहा है। इसी दिल्ली में क्या हम नहीं जानते कि जो लोग पैदल टहला करते थे कैसे रातोंरात उनकी कोठियां हो गईं और बड़ी बड़ी गाडियों में घूमने लगे? टीवी की बदौलत पत्रकारिता में पैसा तो पिछले दस सालों से आया है। उसके पहले पत्रकार बेचारे की हैसियत ही क्या थी? झोलाछाप, टूटी चप्पल में घूमने वाला एक जंतु जो ऑफिस से घर जाने के लिये डीटीसी बस का इंतजार करता था। उस जमाने में भी कुछ लोग ऐसे थे जो चमचमाती गाड़ियों में सैर करते थे और हफ्ते में कई दिन हवाई जहाज का मजा लूटते थे। इनमें से कुछ तो खालिस रिपोर्टर थे और कुछ एडीटर। इनकी भी उतनी ही तनख्वाह हुआ करती थी जितनी की ड़ीटीसी की सवारी करने वाले की।
इनमे से कई ऐसे भी थे जिनकी सैलरी बस नौकरी का बहाना था। जब पत्रकारिता में आया तब दिल्ली में एक खास बिजनेस घराने के नुमाइंदे से मिलना राजधानी के सोशल सर्किट में स्टेटस सिम्बल हुआ करता था। और जिनकी पहुंच इन ‘महाशय’ तक नहीं होती थी वो अपने को हीन महसूस किया करते थे। ऐसा नहीं था कि पाप सिर्फ बिजनेस घराने तक ही सिमटा हुआ था। राजनीति में भी पत्रकारों की एक जमात दो खांचों मे बंटी हुई थी। कुछ वो थे जो कांग्रेस से जुड़े थे और कुछ वो जो बीजेपी के करीबी थे। और दोनों ही जमकर सत्ता की मलाई काटा करते थे। जो लोग सीधे मंत्रियों तक नहीं पंहुच पाते थे उनके लिये ये पत्रकार पुल का काम किया करते थे। ट्रासफर पोस्टिंग के बहाने इनका भी काम चल जाया करता था। और जेब भी गरम हो जाती थी। सत्ता के इस जाल में ज्यादा पेच नहीं थे। बस पत्रकार को ये तय करना होता था कि वो सत्ता के इस खेल में किस हद तक मोहरा बनना चाहता था।
क्षेत्रीय पत्रकारिता में सत्ता का ये खेल और भी गहरा था। मुझे याद है भोपाल के कुछ पत्रकार जिन्हें इस बात का अफसोस था कि वो अर्जुन सिंह के जमाने में क्यों नहीं रिपोर्टर बने। लखनऊ में भी ढेरों ऐसे पत्रकार थे जो कई जमीन के टुकड़ों के मालिक थे। किसी को मुलायम ने उपकृत किया तो किसी को वीर बहादुर सिंह ने। और जब लखनऊ विकास प्राधिकरण के मामले में मुलायम पर छींटे पड़े तो पत्रकारों की पूरी लिस्ट बाहर आ गई। इसमें कुछ नाम तो बेहद चौंकाने वाले थे। हालात आज भी नहीं बदले हैं। आज भी उत्तर प्रदेश की राजधानी में किसी रिपोर्टर या एडीटर के लिये राज्य सरकार के खिलाफ लिखने के लिये बड़ा जिगरा चाहिये। अब इस श्रेणी में नीतीश के बिहार का पटना भी शामिल हो गया है। फर्क सिर्फ इतना आया है अब मलाई सिर्फ रिपोर्टर और एडीटर ही नहीं काट रहे हैं। अखबार के मालिक भी इस फेहरिश्त में शामिल हो गये हैं। अखबार मालिकों को लगने लगा है कि वो क्यों रिपोर्टर या एडीटर पर निर्भर रहें। अखबार उनका है तो सत्ता के खेल में उनकी भी हिस्सेदारी होनी चाहिये। तब नया रास्ता खुला। और फिर धीरे धीरे पेड न्यूज भी आ गया।
कुछ लोग ये कह सकते हैं कि आर्थिक उदारीकरण ने इस परंपरा को और पुख्ता किया है या यो कहें कि बाजार के दबाव और प्रॉफिट के लालच ने मीडिया मालिकों को सत्ता के और करीब ला दिया है। दोनों के बीच एक अघोषित समझौता है। और अब कोई भी गोयनका किसी भी बिजनेस हाउस और सत्ता संस्थान से दो-दो हाथ कर घर फूंक तमाशा देखने को तैयार नहीं है। क्योंकि ये घाटे का सौदा है। और इससे खबरों के बिजनेस को नुकसान होता है। क्योंकि खबरें अब समाज से सरोकार से नहीं तय होतीं बल्कि अखबार का सर्कुलेशन और न्यूज चैनल की टीआरपी ये तय करती है कि खबर क्या है? ये बात पूरी तरह से गलत भी नहीं है।
ऐसे में सवाल ये है कि वो क्या करे जो ईमानदार है और जो सत्ता के किसी भी खेल में अपनी भूमिका नहीं देखते, जो खालिस खबर करना चाहते हैं? तो क्या ये मान लें कि ईमानदारी से पत्रकारिता नहीं की जा सकती? मैं निराश नही हूं। एक, पिछले दिनों जिस तरह से मीडिया ने एक के बाद एक घोटालों को खुलासा किया है वो हिम्मत देता है। और हमें ये नहीं भूलना चाहिये कि पत्रकारों की पोल खोलने वाले राडिया के टेप का खुलासा भी तो पत्रकारों ने ही किया है? दो, इसमे संदेह नहीं है कि बाजार ने पत्रकारिता को बदला है लेकिन बाजार का एक सच ये भी है कि प्रतिस्पर्धा और प्रोडक्ट की गुणवत्ता बाजार के नियम को तय करते हैं। और लोकतंत्र बाजारवादी आबादी को इतना समझदार तो बना ही देता है कि वो क्वॉलिटी को आसानी से पहचान सके। बाजार का यही चरित्र आखिरकार मीडिया की गंदी मछलियों को पानी से बाहर करने मे मदद करेगा। और जीतेगी अंत में ईमानदार पत्रकारिता ही, सत्ता की दलाली नहीं।
((आईबीएन – 7 के मैनेजिंग एडिटर आशुतोष के ब्लॉग ब्रेक के बाद से साभार))
हालांकि इन टेपों में पैसे के लेन-देन का जिक्र नहीं है। इसमें किसी को मंत्री बनाने के लिये लॉबिंग की जा रही है। पूरी बातचीत इशारा करती है- एक, किस तरह से बड़े-बड़े कॉर्पोरेट घराने सरकार की नीतियों को प्रभावित करते हैं? दो, किस तरह से नेता इन कॉर्पोरेट घरानों का इस्तेमाल मंत्री बनने के लिये करते हैं? तीन, किस तरह से पत्रकार कॉर्पोरेट घराने और नेता के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाते हैं? चार, किस तरह से इन तीनों का कॉकटेल सत्ता में फैले भ्रष्टाचार को आगे बढा़ता है? पत्रकार ये कह सकते हैं कि उसे खबरें पाने के लिये नेताओं और बिजनेस घरानों से बात करनी होती है। उन्हें अपना सोर्स बनाने के लिये नेताओं और विजनेस घरानों से उनके मन लायक बात भी करनी होती है। ये बात सही है लेकिन ये कहां तक जायज है कि पत्रकार बिजनेस हाउस से डिक्टेशन ले और जैसा बिजनेस हाउस कहे वैसा लिखे? या नेता को मंत्री बनाने के लिये उसकी तरफदारी करे?
हाई प्रोफाइल पंच-संस्कृति अंग्रेजी की पत्रकारिता में इसे भले ही लॉबिंग कहा जाता हो या फिर खबर के लिये नेटवर्किंग लेकिन खाटी हिंदी में इसे ‘दल्लागिरी’ कहते हैं और ऐसा करने वालों को ‘दल्ला’। और मुझे ये कहने में जरा भी संकोच नहीं है कि हम पत्रकारों को ये पता है कि हमारे बीच कौन पत्रकार ‘दल्ला’ है और कौन ‘दल्लागिरी’ कर रहा है। इसी दिल्ली में क्या हम नहीं जानते कि जो लोग पैदल टहला करते थे कैसे रातोंरात उनकी कोठियां हो गईं और बड़ी बड़ी गाडियों में घूमने लगे? टीवी की बदौलत पत्रकारिता में पैसा तो पिछले दस सालों से आया है। उसके पहले पत्रकार बेचारे की हैसियत ही क्या थी? झोलाछाप, टूटी चप्पल में घूमने वाला एक जंतु जो ऑफिस से घर जाने के लिये डीटीसी बस का इंतजार करता था। उस जमाने में भी कुछ लोग ऐसे थे जो चमचमाती गाड़ियों में सैर करते थे और हफ्ते में कई दिन हवाई जहाज का मजा लूटते थे। इनमें से कुछ तो खालिस रिपोर्टर थे और कुछ एडीटर। इनकी भी उतनी ही तनख्वाह हुआ करती थी जितनी की ड़ीटीसी की सवारी करने वाले की।
इनमे से कई ऐसे भी थे जिनकी सैलरी बस नौकरी का बहाना था। जब पत्रकारिता में आया तब दिल्ली में एक खास बिजनेस घराने के नुमाइंदे से मिलना राजधानी के सोशल सर्किट में स्टेटस सिम्बल हुआ करता था। और जिनकी पहुंच इन ‘महाशय’ तक नहीं होती थी वो अपने को हीन महसूस किया करते थे। ऐसा नहीं था कि पाप सिर्फ बिजनेस घराने तक ही सिमटा हुआ था। राजनीति में भी पत्रकारों की एक जमात दो खांचों मे बंटी हुई थी। कुछ वो थे जो कांग्रेस से जुड़े थे और कुछ वो जो बीजेपी के करीबी थे। और दोनों ही जमकर सत्ता की मलाई काटा करते थे। जो लोग सीधे मंत्रियों तक नहीं पंहुच पाते थे उनके लिये ये पत्रकार पुल का काम किया करते थे। ट्रासफर पोस्टिंग के बहाने इनका भी काम चल जाया करता था। और जेब भी गरम हो जाती थी। सत्ता के इस जाल में ज्यादा पेच नहीं थे। बस पत्रकार को ये तय करना होता था कि वो सत्ता के इस खेल में किस हद तक मोहरा बनना चाहता था।
क्षेत्रीय पत्रकारिता में सत्ता का ये खेल और भी गहरा था। मुझे याद है भोपाल के कुछ पत्रकार जिन्हें इस बात का अफसोस था कि वो अर्जुन सिंह के जमाने में क्यों नहीं रिपोर्टर बने। लखनऊ में भी ढेरों ऐसे पत्रकार थे जो कई जमीन के टुकड़ों के मालिक थे। किसी को मुलायम ने उपकृत किया तो किसी को वीर बहादुर सिंह ने। और जब लखनऊ विकास प्राधिकरण के मामले में मुलायम पर छींटे पड़े तो पत्रकारों की पूरी लिस्ट बाहर आ गई। इसमें कुछ नाम तो बेहद चौंकाने वाले थे। हालात आज भी नहीं बदले हैं। आज भी उत्तर प्रदेश की राजधानी में किसी रिपोर्टर या एडीटर के लिये राज्य सरकार के खिलाफ लिखने के लिये बड़ा जिगरा चाहिये। अब इस श्रेणी में नीतीश के बिहार का पटना भी शामिल हो गया है। फर्क सिर्फ इतना आया है अब मलाई सिर्फ रिपोर्टर और एडीटर ही नहीं काट रहे हैं। अखबार के मालिक भी इस फेहरिश्त में शामिल हो गये हैं। अखबार मालिकों को लगने लगा है कि वो क्यों रिपोर्टर या एडीटर पर निर्भर रहें। अखबार उनका है तो सत्ता के खेल में उनकी भी हिस्सेदारी होनी चाहिये। तब नया रास्ता खुला। और फिर धीरे धीरे पेड न्यूज भी आ गया।
कुछ लोग ये कह सकते हैं कि आर्थिक उदारीकरण ने इस परंपरा को और पुख्ता किया है या यो कहें कि बाजार के दबाव और प्रॉफिट के लालच ने मीडिया मालिकों को सत्ता के और करीब ला दिया है। दोनों के बीच एक अघोषित समझौता है। और अब कोई भी गोयनका किसी भी बिजनेस हाउस और सत्ता संस्थान से दो-दो हाथ कर घर फूंक तमाशा देखने को तैयार नहीं है। क्योंकि ये घाटे का सौदा है। और इससे खबरों के बिजनेस को नुकसान होता है। क्योंकि खबरें अब समाज से सरोकार से नहीं तय होतीं बल्कि अखबार का सर्कुलेशन और न्यूज चैनल की टीआरपी ये तय करती है कि खबर क्या है? ये बात पूरी तरह से गलत भी नहीं है।
ऐसे में सवाल ये है कि वो क्या करे जो ईमानदार है और जो सत्ता के किसी भी खेल में अपनी भूमिका नहीं देखते, जो खालिस खबर करना चाहते हैं? तो क्या ये मान लें कि ईमानदारी से पत्रकारिता नहीं की जा सकती? मैं निराश नही हूं। एक, पिछले दिनों जिस तरह से मीडिया ने एक के बाद एक घोटालों को खुलासा किया है वो हिम्मत देता है। और हमें ये नहीं भूलना चाहिये कि पत्रकारों की पोल खोलने वाले राडिया के टेप का खुलासा भी तो पत्रकारों ने ही किया है? दो, इसमे संदेह नहीं है कि बाजार ने पत्रकारिता को बदला है लेकिन बाजार का एक सच ये भी है कि प्रतिस्पर्धा और प्रोडक्ट की गुणवत्ता बाजार के नियम को तय करते हैं। और लोकतंत्र बाजारवादी आबादी को इतना समझदार तो बना ही देता है कि वो क्वॉलिटी को आसानी से पहचान सके। बाजार का यही चरित्र आखिरकार मीडिया की गंदी मछलियों को पानी से बाहर करने मे मदद करेगा। और जीतेगी अंत में ईमानदार पत्रकारिता ही, सत्ता की दलाली नहीं।
((आईबीएन – 7 के मैनेजिंग एडिटर आशुतोष के ब्लॉग ब्रेक के बाद से साभार))
हा हा हा , नही समझेंगे । ये लोग हम नही सुधरेंगे वाली क्वालिटी के हैं । सुशील जी मुझे तो पाकिस्तानी पत्रकारों को बधाई देने का मन करता है । कम से कम गलत छापने के लिये माफ़ी तो मांगी । यहां तो कोई विस्फ़ोट हुआ नही , आई एस आई का हाथ चैनल वालों को नजर आता है , भले हीं सरकारी एजेंसी को दुर दुर तक आइ एस आइ न दिखे .
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