हम ख़बर दिखाते हैं, चूरन नहीं बेचते
पंकज पचौरी पिछले 24 वर्षों से देश और देश के बाहर प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक, दोनों ही माध्यमों की पत्रकारिता में सक्रिय हैं। एक संवाददाता के रूप में वे ‘इंडिया टुडे’, ‘द संडे ऑबजर्वर’, ‘बीबीसी’ और ‘अमेरिकन पब्लिक ब्रॉडकास्टिंग सर्विस’ जैसी बड़ी संस्थाओं के लिए दिल्ली, हांगकांग, लंदन और बॉस्टन जैसी जगहों पर रिपोर्टिंग कर चुके हैं।
इन्होंने अपनी पत्रकारिता की शुरुआत ‘द पैट्रियॉट’ में ट्रेनी रिपोर्टर के रूप में की थी और जल्द ही ‘द संडे ऑबजर्वर’ के साथ संवाददाता के रूप में जुड़ गये। पंकज ‘इंडिया टुडे’ में नेशनल पॉलिटिक्स के वरिष्ठ संवाददाता रह चुके हैं। ‘द संडे ऑबजर्वर’ के साथ अपनी दूसरी पारी में वे हांगकांग में संवाददाता रहे। ‘बीबीसी वर्ल्ड वाइड सर्विस’ की पूर्वी सेवा के लिए वे लंदन में प्रोड्यूसर के रूप में जुड़े। अपने बीबीसी लंदन के दिनों में ही उनका चुनाव अमेरिका से प्रसारित होने वाले न्यूज और करेंट अफेयर्स प्रोग्राम के लिए हुआ। सन 1997 के दौर में पंकज पचौरी वर्ल्ड साउथ एशिया संवाददाता के रूप में भारत लौट कर आये।
अपने बेहतर काम के लिए पंकज पचौरी कई सम्मान पा चुके हैं। जिनमें 2008 में ‘बेस्ट न्यूज एंकर(हिंदी)’ और 1989 में ‘द स्टेट मेन अवार्ड फॉर रूरल रिपोर्टिंग’ सम्मान प्रमुख हैं। सेंट स्टीफेंस कॉलेज आगरा से कामर्स ग्रेजुएट पंकज पचौरी 1997 में एनडीटीवी के साथ जुड़े और इस समय यहां मैंनेजिंग एडिटर के तौर पर कार्यरत हैं।
न्यूज चैनल के कंटेंट और मीडिया की भूमिका पर उठ रहे सवालों पर एनडीटीवी के मैंनेजिंग एडिटर पंकज पचौरी अपनी राय रख रहे हैं समाचार4मीडिया के असिस्टेंट एडिटर नीरज सिंह और संवाददाता आरिफ खान मंसूरी के साथ।
एनडीटीवी को आदर्श चैनल माना जाता है, लेकिन टीआरपी के नजरिए से यह उतना लोकप्रिय नहीं है। तो चैनल की पॉलिसी क्या है आप आदर्श बनना चाहते हैं या लोकप्रिय ?
देखिए, आदर्श लोकप्रिय हो सकता है और लोकप्रिय आदर्श भी हो सकता है। यह हमारी सोच है और यह हमने साबित भी किया है। जो लोग अनादर्श हैं वो लोकप्रिय हो गए, तो उनको लोकप्रिय होने दीजिए। जिस तरह के लोगों से एनडीटीवी बात करना चाहता है। जिस तरह का एक डिस्कोर्स खड़ा करना चाहता है। उन लोगों में हम आज भी लोकप्रिय हैं। इसीलिए आपने देखा होगा कि जब भी अवार्ड दिए जाते हैं, एनडीटीवी हमेशा नंबर एक पर रहता है। ऐसा भी नहीं है कि हम सिर्फ श्याम बेनेगल टाइप फिल्में ही दिखाते हैं। हम मनोरंजक प्रधान कार्यक्रम भी दिखाते हैं। हमारा क्राइम शो भी उतना ही पॉपुलर है, क्योंकि हम उसे भी जिम्मेदारी के साथ करते हैं। या तो आप लोकप्रिय हों या फिर आदर्श हों। महात्मा गांधी बहुत लोकप्रिय थे और आदर्श भी। यह जरूरी नहीं है कि आप बस लोकप्रिय होकर ही पैसा कमा सकते हैं। हमारी फिल्म इंडस्ट्री में पिछले दिनों कई ऐसी फिल्में बनीं जो लोकप्रिय भी हैं और आदर्श भी एवं करोड़ों का कारोबार भी कर रही हैं। हाल में आई “थ्री इडियट” फिल्म इसका सबसे बढ़िया उदाहरण है। यह मॉडल न्यूज पर भी बाकायदा लागू होता है। हिंदी चैनलों में एनडीटीवी इंडिया का मार्केट बाकी चैनलों से ज्यादा है। वह इसलिए ज्यादा है, क्योंकि एडवरटाइजर यह जानते हैं कि यहां ऐड देने पर यह मैसेज जाता है कि ये जिम्मेदार लोग हैं। यहां ऐड भी दिखाया जाएगा तो वह जिम्मेदारी भरा होगा। आप किसी गैर जिम्मेदार पार्टी पर पैसे तो लगाएंगे नहीं। अगर आप किसी गैरजिम्मेदार चैनल पर पैसा लगाएंगे तो उसका मैसेज भी वैसा ही जाएगा।
एनडीटीवी की जो पहचान थी वह गंभीर खबरों को लेकर बनी थी। अब उसमें भी बदलाव आ रहा है। आप यूट्यूब की फुटेज दिखाते हैं। सनसनी भरी स्क्रिप्ट लिखी जा रही है। इस बदलाव की वजह क्या है ?
यह बात सही है कि मार्केट के हिसाब से आपको बदलना पड़ेगा और इसमें दो राय नहीं है। अब आप केवल टेस्ट क्रिकेट की ही तो बात नहीं कर सकते हैं न। क्योंकि यह बदल कर अब वन डे और ट्वंटी-20 हो चुका है। आपको भी इसी हिसाब से बदलना होगा और यह बदलाव होना भी चाहिए। लेकिन उसमें आप क्रिकेट की आत्मा को भूल जाएं इसमें मुझे आपत्ति है। आईपीएल के ऊपर आज इसलिए आरोप लग रहे हैं क्योकि इसमें क्रिकेट की आत्मा कम हो रही है और चीयर लीडर, ड्रिंक, सिनेमा हस्ती और दूसरे तत्वों की ज्यादा। हम लोगों ने भी इसी हिसाब से खुद को थोड़ा बदलने की कोशिश की है। यू-ट्यूब पर ऐसी तमाम चीजे हैं जिन्हें देखकर लोगों का मनोरंजन होता है। जहां तक सनसनी की बात है तो अब भाषा के साथ-साथ पैकेजिंग में भी बदलाव हो रहा है। जैसे शर्ट है पहले उसे कपड़ा खरीदकर दर्जी से सिलवाया जाता था। अब उसी मार्केट में केवल रेडीमेड शर्ट बिकती हैं, अगर अब आप यह कहें कि नहीं हम तो कपड़ा खरीद कर ही शर्ट सिलवाएंगे, तो हो सकता है कि उसकी बटन कमजोर मिले या कॉलर खराब हो। हम लोगों ने शोएब-सानिया वाले मामले में तब तक कुछ भी कवर नहीं किया जब तक उन्होंने प्रेस कांफ्रेंस नहीं की। तो वापस मैं वहीं लौटकर आता हूं कि न्यूज की परिभाषा बड़ी है और इसमें धीरे-धीरे बदलाव भी हो रहा है। जो बदलाव हमने किया है, वह समय की मांग है।
न्यूज चैनल अगर सनसनी फैला रहे हैं और लोकप्रियता बटोर रहे हैं तो इसके पीछे कारण क्या हैं। जिम्मेदारी का अभाव या फिर बाजार का दबाव ?
देखिए, बाजार का दबाव किसी के ऊपर नहीं है। अगर सरकार आपको लाइसेंस देती है कार बनाने के लिए तो आप बैलगाड़ी तो बनाएंगे नहीं। अगर आप हफ्ते में आधे घंटे भी न्यूज चलातें हैं तब भी आपका लाइसेंस तो जारी ही रहेगा। समस्या यहां यह है कि न्यूज चैनलों में इंटरटेनमेंट का जो तत्व है वह बढ़ गया है। वह इसलिए है क्योंकि लोग इंटरटेनमेंट को ज्यादा पसंद कर रहे हैं। आंकड़े देखें तो न्यूज चैनल आठ फीसदी के करीब न्यूज दिखा रहे हैं, जबकि इंटरटेनमेंट करीब 29 फीसदी दिखाया जा रहा है। और न्यूज केवल वही नहीं है जो राजनीतिज्ञ बोलें। टाटा की नई कार आई है तो वह भी न्यूज है और खेल भी न्यूज है। समस्या ट्रीटमेंट की है। शोएब औऱ सानिया की शादी को आप इस तरह भी ट्रीट कर सकते हैं कि भारतीय टेनिस खिलाड़ी सानिया मिर्जा की शादी पाकिस्तानी क्रिकेटर शोएब मलिक के साथ हो रही है। दूसरे आप उसे कितना दिखाएंगे ? जिस दिन सानिया-शोएब मामला उछला था, उस दिन दिल्ली में राइट टू फूड बिल को लेकर बहस हो रही थी। साथ ही उसी दिन विदेश मंत्री पी. चिदंबरम चीन गए हुए थे जो कि उनकी पहली चीन यात्रा थी। लेकिन वह सब सानिया-शोएब से पीछे छूट गया। जब हम न्यूज की बात करते हैं तो जब तक 26/11 न हो जाए, मुंबई हमला न हो जाए, भोपाल गैस त्रासदी न हो जाए, तब तक आप यह तो नहीं कर सकते न कि पूरे अखबार में एक ही न्यूज जाए और अगर ऐसा होता भी है तो उसे विशेष संस्करण कहते हैं। यह रोज तो नहीं हो सकता। और न्यूज की परिभाषा सबको पता है। यह सिर्फ बचने की तरीका है। हम दुनिया में अकेले ऐसे देश थोड़े ही हैं जहां न्यूज चैनल चल रहे हैं। दुनिया में हर जगह न्यूज को पारिभाषित भी किया गया है। जो लोग न्यूज को इंटरटेनमेंट मानते हैं, वे न्यूज का नुकसान करते हैं।
हिंदी मीडिया के सामने इस समय जो बड़ा संकट है वह गैरजिम्मेदारी का है, इस संकट से निकलने का क्या रास्ता हो सकता है ?
मीडिया की सबसे बड़ी संपत्ति क्या है। सबसे बड़ी संपत्ति यह है कि आप जो कहते हैं लोग उसे मानते हैं। पहले लोग पोस्टर छपवाकर, पर्चे बांटकर अपनी बात लोगों तक पहुंचाते थे आज वह माध्यम आप हैं, क्योंकि आप पर लोगों को विश्वास है। तो अगर आप अपने कर्तव्य के प्रति जिम्मेदार नहीं होंगे तो आप इसे खो देंगे। जो लोग गैर-जिम्मेदार हैं वे यह भूल रहे हैं कि यह एक लंबे समय की संपत्ति है। और आज लोग इसे इसलिए खो रहे हैं क्योंकि वे कम समय में पैसा कमाना चाह रहे हैं। अमेरिका में एक रिसर्च हुई जिसमें यह बात सामने आई कि 1975 के दौर में करीब 69 प्रतिशत लोग ऐसे थे जिनका मानना था कि मीडिया में ज्यादातर लोग जिम्मेदार हैं। इराक युद्ध के बाद इसमें कमी आई और यह आंकड़ा घटकर 29 प्रतिशत पहुंच गया। भारत में अगर कोई ऐसी रिसर्च हो तो यह आंकड़ा और भी कम हो जाएगा, क्योंकि यहां पर जिम्मेदारी में पहले से कमी आई है। अगर आप दिखाते हैं कि सांप ने पेड़ से शादी कर ली तो इसे कौन मानेगा? लोग देख रहे हैं, क्योंकि उन्हें मजा आ रहा है। आपको उससे टीआरपी मिल जाएगी, लेकिन कोई उसे मानेगा नहीं। मजा इसलिए आ रहा है क्योंकि इंटरटेनमेंट की वैल्यू है। लेकिन आपकी जो जवाबहदेही की संपत्ति है। जो जिम्मेदारी की संपत्ति है। आप उसे खत्म कर रहे हैं। मुझे मीडिया में 12 साल हो गए औऱ मैं देखता हूं कि जिन लोगों ने खबरों के साथ वफादारी निभाई। अपनी भूमिका के साथ न्याय किया, लोग आज भी उन्हें याद करते हैं। बीबीसी की कई रिपोर्ट हैं जो आज भी लोगों के जेहन में हैं। दूसरा कारण है जल्दबाजी। आप पहले के चक्कर में गलती कर बैठते हैं। प्रणव रॉय कहते हैं कि आप कम से कम तीस साल काम करिए फिर आपको खबरों की समझ होती है। अभी अमेरिका में ऐंकर्स की एक पूरी खेप रिटायर हुई औऱ वो सभी साठ साल से ऊपर के लोग थे। अनुभवी लोगों पर लोगों को अभी भी विश्वास है। गैरजिम्मेदार लोग इस संपत्ति को नुकसान पहुंचा रहे हैं।
आपने कहा मैसेज नहीं जा पा रहा है, लेकिन चैनल वाले ही कहते हैं कि जो लोग देखना चाह रहे हैं, वही हम दिखाते हैं। अगर ऐसा है तो फिर कंटेट और एडिटोरियल पॉलिसी को लेकर इतना हंगामा क्यों ?
जो लोग देखते हैं और आप दिखा रहे हैं ठीक है। लेकिन आप चूरन नहीं बना रहे हैं। अगर आप चूरन बना रहे होते, और लोगों को आपका चूरन पसंद आ रहा होता, तो आप चूरन बनाते रहिए। हालांकि अब जैसे-जैसे चूरन का भी बाजार आधुनिक होता जाएगा। आपको चूरन में भी यह बताना पड़ेगा कि इस चूरन में कितना नमक है कितना सल्फेट है औऱ इसके अलावा क्या-क्या मिला हुआ है। लेकिन जो लोग मीडिया में हैं वे चूरन नहीं बना रहे हैं। आप मीडिया में इसलिए आए हैं, क्योंकि आपका समाज से लेना-देना है। और अगर आपका समाज से लेना-देना है तो इस समाज के जितने भी चरण हैं आपको उन्हें ध्यान में रखना ही पड़ेगा। अगर आप जो लोग देखते हैं वही दिखाते हैं तो इंटरनेट पर पोर्न साइट तो सबसे ज्यादा देखी जाती हैं। तो आप भी पोर्नोग्राफी दिखाए। उसमें आपको डर लगता है, क्योंकि वहां पर जो कानून है वह कड़ा है और वह आप पर लागू हो सकता है। अगर आप इसे दिखाते हैं तो मालिक से लेकर एडिटर तक सबको सजा होगी। यहां पर लोग जो देखना चाहते हैं कि आड़ में आप जो दिखाना चाहते हैं वो लोगों को दिखाते हैं। यह बिल्कुल दोमुही किस्म की बात है। अगर लोग जो चाहते हैं वो आपको दिखाना था तो आप फिल्म बनाइए। फिल्म के अलग पैरामीटर हैं वहां पर भी सेंसर बोर्ड है और सिर्फ हमारे मुल्क में ही नहीं, पूरी दुनिया में है। वहां पर भी आप मनमाना नहीं दिखा सकते। तो जो लोग यह कहते हैं कि हम वही दिखाते हैं, जो लोग देखते हैं तो वे लोग कामचोर हैं। ये लोग अपनी खबरों को न्यूज के पारस पत्थर पर घिसना नहीं चाहते। हिंदुस्तान में तो आप एक पेड़ के नीचे दिय़ा जला दीजिए तो शाम तक सैकड़ों लोग वहां बैठ जाएंगे। कौतुहल तो आम व्यक्ति का चरित्र है। दो सांप अगर पेड़ के आस-पास घूम रहे हैं तो आप दिखाएगे लोग देखेंगे ही। यह मदारी का खेल नहीं है, न्यूज चैनल है और आप एक जिम्मेदारी का काम कर रहे हैं।
कौतुहल औऱ सनसनी फैलाने की यह प्रवृत्ति अंग्रेजी चैनलों में कम है और उनकी विश्वसनीयता भी ज्यादा है। एनडीटीवी के पास हिंदी और अंग्रेजी न्यूज चैनल दोनों है, आप किसे बेहतर मानते हैं।
एनडीटीवी का जो हिंदी चैनल है, वह हिंदी में अंग्रेजी चैनल है। हमारे जो मानक हैं वो हमें अंग्रेजी चैनल के स्तर पर लेकर चलते हैं। और जैसा कि आपने कहा कि हम लोग यू-ट्यूब दिखाते हैं तो वहां भी अगर हम कोशिश करें तो भी अपना स्तर नीचे नहीं ला सकते। लेकिन दूसरी ओर अंग्रेजी में भी ऐसे चैनल आ रहे हैं जो हिंदी के चैनलों की तरह बर्ताव कर रहे हैं। अगर शोएब मलिक आएशा को तलाक दे देते हैं तो आप तुरंत फिल्म निकाह का डायलॉग तलाक-तलाक-तलाक बाइट के तौर पर लगा देते हैं। यह अंग्रेजी के चैनलों में हो रहा है। ऐसे में हम लोग समझ लीजिए कि एक तलवार के धार पर चल रहे हैं, क्योंकि हम हिंदी में भी अंग्रेजी के स्टैंडर्ड बनाए रखते हुए चल रहे हैं। यह मुश्किल भी है क्योंकि हिंदी का जो दर्शक है वह अंग्रेजी से सात गुना ज्यादा है। तो हमारे सामने दिक्कत है कि या तो हम अपने दर्शकों के साथ समझौता करें या फिर अपनी क्वालिटी के साथ। हम इन दोनों के बीच तालमेल बिठाकर चल रहे हैं। ऐसा नहीं है कि किसी ने हमसे ऐसा करने को कहा है, हम इसलिए करते हैं। हम समझते हैं कि यह हमारी जिम्मेदारी है। जो हमारी सच्ची खबर की प्रतिबद्धता है उसकी वजह से हम ऐसा कर रहे हैं। और अच्छी बात तो यह है कि बाजार में ऐसे तमाम लोग हैं जो इसे पसंद करते हैं।
सरकार टीआरपी को टीवी कार्यक्रमों में गिरते स्तर के लिए दोषी मान रही है। नई टीआरपी व्यवस्था लागू होने की बात चल रही है। अगर ऐसा होता है तो इसमें कितनी सफलता मिलेगी, जबकि निजी चैनलों के बीच इतनी कड़ी प्रतिस्पर्धा है ?
दरअसल समस्या टीआरपी को लेकर यह है कि एक तरफ तो लोग कहते हैं कि जिस भी इंडस्ट्री में इन्वेस्टमेंट ज्यादा होगा वहां-वहां पर प्रतियोगिता बढ़ेगी। आप किसी भी इंडस्ट्री को लीजिए यह बात दिखाई देगी। ऑटो इंडस्ट्री में निवेश बढ़ा तो कई नए मॉडल आए औऱ गाड़ियां भी सस्ती हुईं। एविएशन सेक्टर को लीजिए इसे निजी क्षेत्र के लिए खोल दिया गया, तो और भी एयरलाइंस आईं और आम आदमी भी हवाई जहाज का सफर करने लगा। तो यह प्रतियोगिता हर एक सेक्टर में बढ़ी है। लेकिन टीआरपी का जो सेक्टर है, वहां प्रतियोगिता नहीं है। इसलिए उसकी क्वालिटी खराब है। टीआरपी की कंपनियों में भी प्रतियोगिता होनी चाहिए, तभी बेहतर टीआरपी सामने आएगी। हमको तमाम लोग ऐसे मिलते हैं, जो यह कहते हैं कि हमारा वह प्रोग्राम बहुत ही अच्छा था, लेकिन वह टीआरपी में नहीं आता। इसका मतलब यह है कि कहीं न कहीं आप उस प्रोग्राम को सही ढंग से कैच नहीं कर पा रहे हैं। इसलिए मेरा मानना है कि जो ऑडियंश मीजरमेंट का काम है उसमें और भी कंपनियों का आना चाहिए। इसमें सरकार को भी शामिल होना चाहिए। दूरदर्शन को भी शामिल होना चाहिए। इसमें जब औऱ कंपनियां आएंगी और अपना बेस बढ़ाएंगी तब सही टीआरपी मालूम चलेगी। हमारे मुल्क में 14-15 भाषाओं में टेलीविजन कार्यक्रम बनाए जा रहे हैं। लोगों की इच्छाएं अलग-अलग हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के लोगों का टेस्ट गुजरात के लोगों से बिल्कुल अलग है। तो जब तक टीआरपी को बड़े पैमाने पर नहीं लाया जाएगा, यह बहस का विषय बना रहेगा। हम यह नहीं कह रहे है कि टीआरपी बंद कर दीजिए या यह खराब सिस्टम है। टीआरपी जरूरी है और यह इसलिए जरूरी है क्योंकि यह एडवरटाइजर के लिए एक पैमाना है, पैसा लगाने के लिए। तो आप उस पैमाने को बेहतर बनाइए। लेकिन जो पैमाना इस समय चल रहा है, यह सबका प्रतिनिधत्व नहीं कर पाता। देश में 13 करोड़ टेलीविजन हाउस हैं। इतने घरों के लिए अगर आप पंद्रह हजार मीटर लगाते हैं तो यह आपको कभी सही आंकड़ा नहीं दे सकता। चुनाव से पहले लाखों लोगो का इंटरव्यू होता है फिर भी बाद में सारे आंकड़े उलट जाते हैं। इस मुल्क में सरकार की तीन अलग-अलग एजेंसियां बताती हैं कि गरीबी के आंकड़े क्या हैं। तो आप 15 हजार सेट टॉप बॉक्स लगाकर इतनी बड़ी जनसंख्या की पसंद को कैसे माप सकते हैं ? इसलिए मैं कह रहा हूं कि इस क्षेत्र में और प्लेयर आने चाहिए, ऐसा होगा तभी बेहतर टीआरपी मिल सकेगी।
मीडिया को रेगुलेट करने और कुछ मामलों पर प्रतिबंध लगाने की बात की जाती है, जबकि पोस्ट मार्डन सोसाईटी सूचना समाज की ओर बढ़ रही है ऐसे में यह लक्ष्य कैसे संभव है ?
देखिए, रेगुलेट करना और प्रतिबंध लगाना, दोनों अलग बाते हैं। हमारे देश में रेगुलेशन के लिए कई अगल-अलग संस्थाएं हैं। शेयर मार्केट को रेगुलेट करने के लिए सेबी है। बैंको को रेगुलेट करने के लिए आरबीआई है। टेलकॉम के लिए ट्राई है। और सबसे बड़ी रेगुलेट्री अथॉरिटी तो हमारे देश में चुनाव आयोग है। अब यह संस्थाएं बैन तो करा नहीं रही हैं, सिर्फ रेगुलेट करा रही हैं। आप किसी के घर बंदूक लेकर पहुंच जाएं कि हमें वोट दो, तो उसके खिलाफ चुनाव आयोग है। न्यूज चैनलों पर रेगुलेशन की जहां तक बात हैं, तो हम किसी सरकारी संस्था द्वारा रेगुलेशन नहीं चाहते हैं। हम चाहते हैं कि एक पैनल बने जो कंटेट को परखे और न्यूज चैनलों का जो कंटेट है, अगर वह समाज की स्थापित मान्यताओं के खिलाफ जा रहा है, तो उस को रोकें। जैसे बीईए की बात करें तो हाल ही में वारंगल में एक आत्मदाह की घटना घटी थी औऱ बीईए के सर्वसम्मति पर हमने उसे प्रसारित नहीं किया। आज मार्केट में तरह-तरह की सीडी उपलब्ध हैं इतने सारे स्ट्रिंगर हैं। किसी ने सांप खा लिया, इतने बड़े देश में ऐसे कई सारे मामले रोज आते रहते हैं। सबका वीडियो उपलब्ध है। बीईए के सभी लोग ई-मेल के द्वारा संपर्क में रहते हैं औऱ ऐसे किसी भी प्रकरण को आपस में चर्चा कर दिखाने से मना कर दिया जाता है। हमारा सारा कोड ऑफ कंडक्ट एनबीए से तय होता है। जस्टिस वर्मा इसके चेयरमैन हैं उनके साथ हमारी मीटिंग होती रहती है औऱ जस्टिस वर्मा जो कहते हैं, उसे लोग आदर और डर दोनों के साथ मानते हैं। इन सब प्रयासों से न्यूज चैनलों का रवैया और जिम्मेदाराना हुआ है। अभी एक रिसर्च हुआ है जिसमें यह बताया गया है कि 2008 में करीब 10.30 प्रतिशत राजनीति कवर होती थी। 21 प्रतिशत स्पोर्टस कवर होता था और 13.5 प्रतिशत के आस-पास इंटरटेनमेंट कवर होता था। इन्हीं सब प्रयासों के चलते इस ट्रेंड में बदलाव दिखाई दिया और 2009 में पॉलिटिक्स का कवरेज दोगुना हो गया, हालांकि इसकी एक बड़ी वजह यह भी थी इस वर्ष चुनाव थे। स्पोर्ट्स का कवरेज कम होकर 16 फीसदी रह गया और इंटरटेनमेंट दस प्रतिशत रह गया। यहां पर उठापठक कोई समस्या नहीं हैं। समस्या है कि यह उठापटक क्यों हुई ? शोएब और सानिया की शादी खबर है, इसमें कोई दो राय नहीं है। समस्या है कि आप उसको टोन क्या दे रहे हैं ? आप एक मौलवी लाकर बिठा दे रहे हैं, जो यह बता रहा है कि यह शादी जायज है या नहीं। या फिर उसको एक खबर की तरह बताएं कि आज इन्होंने प्रेस कांफ्रेंस की जिसमें यह कहा। पुलिस ने आज केस दर्ज कर लिया है। जबकि लोग थर्ड पार्टी को लाकर खबर को मसाला बना देते हैं। भूत है उसके लिए जरूरी है, ऐसे आदमी को लाना जिसने भूत से बात की हो। तथ्यों को परखने का मापदंड अब बदल दिया गया। यह न्यूज चैनलों की तमाम प्रयासों के बाद भी काबू में नहीं आ पा रही है।
एक बात आपने कही कि लोगों की डिजायर अलग-अलग है इसीलिए अब क्षेत्रीय चैनलों में बढ़ोतरी हो रही है। तो क्या मीडिया जो पहले दिल्ली केंद्रित था, धीरे-धीरे दिल्ली से दूर होता जाएगा ?
मीडिया दिल्ली केंद्रित इसलिए है, क्योंकि सीट ऑफ पावर दिल्ली में है। राजनीति मीडिया को गाइड करती है, क्योंकि पॉलिसी मेकिंग वहीं पर होगी जो आपकी राजधानी होगी। चाहे वह लंदन या फिर मास्को हो। केवल अमेरिका में ऐसा है कि न्यूयार्क में ज्यादा चैनल हैं। हमारे यहां रीजनल मीडिया अब मजबूत हो रहा है, क्योंकि हिंदुस्तान अब धीरे-धीरे छोटे शहरों की ओर बढ़ रहा है। पैसा अब छोटे शहरों की ओर बढ़ रहा है। अब आपको गुजरात में गुजराती के चैनल चाहिए, महाराष्ट्र में मराठी के चैनल चाहिए और साउथ में भी चाहे वह तमिल हो या फिर तेलुगू क्षेत्रीय भाषा के चैनलों में बढ़ोतरी हुई है। 100 हफ्तों में जो सबसे ज्यादा देखे जाने वाले प्रोग्राम की लिस्ट निकाली जाती है, उसमें सन टीवी के 20-22 कार्यक्रम होते हैं। तो एक क्षेत्रीय चैनल ने हिंदी जैसी बड़ी मार्केट वाले चैनल को पछाड़ रखा है। इसीलिए पिछले दिनों हिंदी न्यूज में जो कमी आई वह इसीलिए क्योंकि भोजपुरी में आपके चैनल आ गए, मराठी में आ गए। गुजराती, हरियाणवी और पंजाबी में भी चैनल आ रहे हैं। और यह अच्छी बात है।
मीडिया में जो नए चेहरे हैं उन्हें पहचान नहीं मिल पा रही है। आज भी कुछ पुराने चेहरे हैं वो ही केवल अपनी रिपोर्ट से पहचाने जाते हैं। तो क्या माना जाए कि न्यूज चैनल चेहरे नहीं गढ़ रहे हैं या फिर नए लोगों को मौका नहीं मिल रहा है ?
इसकी सबसे बड़ी वजह है कि पुराने लोग अपनी जिम्मेदारी को समझते हैं। पुराने चेहरों पर आज भी लोगों को विश्वास होने की सबसे बड़ी वजह यही है। नए लोगों को भी पिछले दिनों में तमाम मौके मिले हैं। विनोद दुआ 1984 से टेलीविजन में हैं, लेकिन अगर आप आज भी हिंदी न्यूज चैनल देखें तो भी विनोद दुआ आपको शुरुआती कुछ नामों में मिलेंगे। मैं तो बहुत बाद में टेलीविजन में आया। यह इसलिए है क्योंकि आप जिम्मेदारी के साथ-साथ अपना एक रिश्ता बना लेते हैं। विनोद दुआ चाहे खाने का कार्यक्रम कर रहे हों या फिर चुनाव पर कार्यक्रम कर रहे हों, लोगों को उन पर भरोसा है। आप फिल्मों में देख लीजिए अमिताभ बच्चन हैं साठ साल से ऊपर के हैं। दूसरे जो भी सुपर स्टार आज के जमाने के हैं चाहे वह शाहरुख हों सलमान हों या आमिर हों सब चालीस साल के ऊपर के हैं। जहां तक रही बात नए लोगों को मौका न मिलने की तो ऐसा नहीं है। इंडस्ट्री में नए कलाकार भी आते हैं, न्यूज चैनल में भी नए लोग आते हैं जो लोग बेहतर काम करते हैं, वे जाने जाते हैं। उनको पहचान भी मिलती है। इसके लिए अलग हटकर काम करना पड़ता है। लेकिन जो नए लोग आते हैं वे नए तरीकों से बचते हैं। वे यह चाहते हैं कि जो पुराना पैटर्न बन गया है उसी पर चला जाए। जबकि अब जमाना है नीस का। रवीश कुमार सोशल मामलों पर अच्छी स्टोरी करते हैं उनका नाम बन रहा है। ऋचा अनिरुद्ध हैं टॉक शो अच्छा करती हैं तो उनका नाम बन रहा है। फरहान अख्तर लीक से अलग फिल्में बनाते हैं तो उनका नाम बन रहा है। मौके नए लोगों को मिलते हैं, जो लोग अलग हटकर भेंड़चाल से बचते हुए काम कर रहे हैं उनका नाम हो रहा है, पहचान भी मिल रही है।
आप बीईए के सदस्य भी हैं। संस्था का मानना है कि चैनलों को रेगुलेट करने में कई सारी समस्याएं हैं। वास्तव में समस्या क्या है।
सबसे बड़ी समस्या तो यह है कि समस्याओं को कैसे समझा जाये। अभी हाल ही में सीआईआई ने एक बैठक बुलाई थी। सभी टेलीविजन सीईओ की राउंड टेबल थी। उसमें ब्रॉडकास्ट मिनिस्टर भी थीं, सेक्रेटरी भी थे। जितने भी स्टेक होल्डर्स हैं, केबल वाले या डीटीएच वाले हैं, ब्रॉडकास्टर्स, कंटेंट प्रोवाइडर थे। वेबसाइट के लोग थे। उनकी सात घंटे तक मीटिंग चली और निष्कर्ष यह निकला कि जो ब्रॉडकास्टर्स हैं, वो यह नहीं समझते हैं, किसी भी तरह के कंटेंट के रेगुलेशन की जरूरत है। उनका कहना यह है कि वो अपने आप कंटेंट को रेगुलेट कर लेंगे। दो साल पहले एक कवायद शुरू हुई थी, एक रेगुलेट्री ऑथरिटी बनाने की। जिसके बाद तीन मिनिस्टर बदल चुके हैं। लेकिन अभी तक रेगुलेट्री ऑथरिटी नहीं बन पाई है, क्योंकि ब्रॉडकास्टर्स समझते हैं कि वे सेल्फ रेगुलेशन से काम चला लेंगे। सेल्फ रेगुलेशन का मैकेनिज्म हम लोगों ने बना दिया। उस मैकेनिज्म की एफिशियंशी अभी तक पक्की नहीं है। यह अच्छा कदम है, सकारात्मक कदम है कि आपने सेल्फ रेगुलेट करने की कोशिश की है। लेकिन वो अभी तक पटरी पर नहीं आया है। अगर हम देखे तो तीन महीनों से हम लोग टेलीविजन के ऊपर सारे जितने भी न्यूज ब्रॉकास्टर्स एसोशियसन के चैनल हैं, वे पिछले तीन महीनें से यह दिखा रहे है कि अगर आपको कंटेंट के प्रति कोई शिकायत है, तो आप आप इस वेबसाइट पर जाकर शिकायत दर्ज करें। लेकिन वहां भी कम ही लोग अपनी शिकायत दर्ज करा रहे हैं। जबकि लोगों की शिकायतें न्यूज चैनल के बारे में बढ़ती ही जा रही हैं। ये शिकायतें मॉनिटर नहीं हो पा रही है, उसके कई कारक हैं। एक तो हमारे पास मॉनिटर का सिस्टम नहीं है कि आप किस तरह से मॉनिटर करेंगे। चार सांसदों को जो चीज बुरी लग जाती है, वो संसद में बोल देते हैं। तो वो आप को लगता है कि गलती हो गई, वो नहीं दिखाना चाहिए था। पार्लियामेंट की जो कमेटियां हैं और बाकि जो कमेटी है। उनमें बाकायदा इसकी चर्चा हुई है। उन्होंने दुख जताया है कि आज के समय में जो टेलीविजन कार्यक्रम दिखाए जा रहे हैं वह देश के लिए खतरा हैं। तो इतनी सारी शिकायतों में कुछ ना कुछ दम तो होगा। सरकार चाहती है कि वो को-रेगुलेटर लेकर आएं। जिसमें कि जो सेल्फ रेगुलेशन मैकेनिज्म है, उसमें सरकार से जुड़े हुए भी कुछ लोग या फिर सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर लोग उसमें शामिल हों। लेकिन ब्रॉडकास्टर्स ने मना कर दिया कि ऐसा नहीं होगा। सेल्फ रेगुलेशन ही काफी है। इससे मालूम पड़ता है कि ब्रॉडकास्टर्स सेल्फ रेगुलेशन के प्रति उतना ज्यादा गंभीर नहीं हैं, जितना लोग उनसे आशा करते हैं। पिछले दिनों से कंटेंट में जो बेहतरी आई है. वह इसलिए आई है क्योंकि लोगों ने कंटेंट के खिलाफ आवाज उठाई। अब लोगों को लगने लगा है कि अगर हम सुधार नहीं करेंगें तो दर्शक हमसे दूर चला जाएगा।
एनडीटीवी के पास अच्छे पत्रकार हैं, अच्छें ऐंकर हैं, रिपोर्टर हैं नंबर वन मार्केटिंग औऱ रिपोर्टिंग की टीम है, लेकिन एनडीटीवी नंबर एक चैनल नहीं है ऐसा क्यों।
देखिए आप एक पब्लिक स्पेस में हैं जहां पर जनता आपको बताएगी कि आप नंबर वन हैं या नंबर दो। यहां पर कोई हम बैंक तो हैं नहीं कि हम बता दें कि हमारा इतना टर्न ओवर है, जो हम बता दें कि हम नंबर वन हैं। हम मुकेश अंबानी भी नहीं कि बता दें कि हमारे पास इतनी संपत्ति है, इसलिए हम सबसे अमीर हैं। यहां आप रोज नंबर वन और नंबर टू बनते हैं। फिल्म इंडस्ट्री के सारे खान जो हैं उनकी पिछली फिल्म पर निर्भर करता है कि वे नंबर वन हैं या नंबर दो। हम तो खुद को नंबर वन मानते हैं क्योंकि जिन तरह के लोगों में हम नंबर एक बनना चाहते हैं, वहां हम नंबर वन हैं। कितने लोग आपको देख रहे हैं, केवल यही मायने नहीं रखता। कौन लोग आपको देख रहे हैं, यह भी मायने रखता है। सनसनी खेज किस्म के प्रोग्राम हमें नंबर वन बना सकते हैं, लेकिन वह हमें नहीं चाहिए। बॉलीवुड गॉसिप करके हम आगे नहीं जाना चाहते। हम उन लोगों में नंबर वन बनना चाहते हैं जो सही औऱ जिम्मेदाराना खबर देखना चाहते हैं। मैं जितने लोगों से मिलता हूं वे कहते हैं कि आपकी नौ बजे की बुलेटिन बिना लाग-लपेट के दिन भर की खबर दे देती है इसलिए हम वह देखते हैं। तो नंबर वन जो है वह स्टेज ऑफ माइंड है। चूंकि पब्लिक का मूड रोज बदलता है वह रोज आपको अपने पैमाने पर उतार रही है, इसलिए आपको रोज नंबर वन बनना है। अगर कोई शोएब-सानिया को दिखाकर और एक पंडित बिठाकर हमसे ज्यादा टीआरपी ले जा रहा है तो हमें कोई शिकवा नहीं है। क्योंकि हमारा दर्शक उनसे अलग है। बाजार में निरमा भी बिकता है और सर्फ एक्सेल भी। लेकिन दोनों को खरीदने वाला वर्ग अलग है। दोनों प्रोडक्ट एक ही काम करते हैं, कपड़े धोते हैं। लेकिन दोनों का मार्केट अलग है। जो लोग सीरियस न्यूज देखना चाहते हैं वे हमें देख रहे हैं और यही हमारी सफलता है
Sabhar:- Samachar4media.com
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