यशवंत भाई,
मैंने 'भड़ास' बारे जो भी लिखा उस पे आपका बहसना समझ आ सकता था. तिलमिलाना और तू तड़ाक पे उतरना और मेरे नाम को बिगाड़ के छापना भी आपकी छवि के बहुत कोई बहुत ज्यादा अनपेक्षित नहीं है. मैंने जानबूझ कर बहुत जल्दी जवाब नहीं दिया. मैं चाहता था कि आप पहले अपना आप दिखा ही लें लोगों को.
देख ही रहे हैं पत्रकार भाई कि मैंने लिखा क्या है और जवाब आप क्या दे रहे हैं. मैंने लिखा कि अपने किये अनकिये की कीमत आप ये कह के लोगों से वसूल नहीं सकते कि देखो ये हालत तुम्हारी वजह से हुई है, सो खामियाजा तुम भुगतो. आपके अलावा कभी किसी भी तरह के मीडिया ने वो अपने लेखकों या पाठकों से वसूली भी नहीं. आप इसी मुद्दे पे रहते तो बात समझ में आती. मगर आप उस पे नहीं रुके. वो इस लिए कि उस पे आप के पास कोई ठोस तर्क नहीं था. सो आप ने पहले तो अपनी उपलब्धियां गिनाईं. बताया कि कैसे आपने लोगों को लिखने का एक मंच दिया. लिखने नहीं भड़ास निकालने का. जिस के खिलाफ जो जी में आया, आपने छापा. आपके हिसाब से 'जागरण' तो होना ही नहीं चाहिए था. शशि शेखर को हिंदुस्तान में नहीं होना चाहिए था. आपका बस चले तो भारत में भी नहीं. इंडियन एक्सप्रेस को आप पत्रकारिता का पाठ पढ़ाते हैं. जिस के बारे में जो जी में आये छापना अपना मौलिक अधिकार समझते हैं आप. छाप के नीचे लिख देते हैं कि भैया अगर गलत हो बता देना. वो भी छाप देंगे. क्या तरीका ढूँढा है आपने खुद को हिट करने का? किसी के खिलाफ कुछ भी छापने से गुरेज़ नहीं करते आप. खुद मान के चलते हैं कि पुष्टि नहीं की है छापने से पहले. क्या मानदंड है आपका ये पत्रकारिता का. अब अपने पे छपा है तो कपड़ों से बाहर हुए जा रहे हैं.
किसने कहा है कि न्यू मीडिया नहीं होना चाहिए. कौन कहता है कि आप ने लिखने वालों को मंच नहीं दिया है. मैं भी लिख चुका हूँ कि आपको इसका श्रेय मिलना चाहिए. आइकान होना चाहिए था आपको. आप नहीं हो पाए हैं तो अब झल्ला क्यों रहे हैं? मुझे अपने बराबर साईट हिट होने की चुनौती दे रहे हैं आप. क्यों? मेरा तो मुकाबला ही नहीं आप से. जैसी भी अच्छी बुरी पत्रकारिता कर रहे हैं आप, मुझे करनी ही नहीं. मुझे तो उदित साहू जी जैसे गुरुओं ने पच्चीस साल पहले ही सिखा दिया था अमर उजाला में कि अपने या अपने अखबार पे कोई हमला हो जाए तो अपनी अखबार में नहीं छपेगी खबर. वे कहते थे मज़ा तो तब है जब दूसरे आपकी लड़ाई लड़ें.
तर्क जिसके पास नहीं होता वो काटने को दौड़ता है आप की तरह. आप मुझ से बहस नहीं रहे मूल मुद्दे पे. मुझ से मेरे जीवन के निजी सवाल पूछ रहे हैं. पूछ रहे कि मैं अपना खर्च कैसे चलाता हूँ. आप जिज्ञासु हैं तो चलिए मैं बता ही देता हूँ. मैं बता चुका हूँ कि मैं एक संपन्न परिवार से हूँ और पत्रकारिता में मैं अपनी कमिटमेंट और कन्विक्शन की वजह से आया था. कुछ लाख हमारे लिए कभी भी बहुत बड़ी रकम नहीं रही और पांच लाख रूपये भी कहीं ठीक से लगे हों किसी प्रापर्टी में पांच साल में पांच गुने और दस लाख, दस साल में एक करोड़ बिना कुछ किये भी हो जाते हैं. किसी के भी. दारु मैं पीता नहीं. इतना ईश्वर दे देता है कि मेरे पास दूसरों के लिए भी बच रहता है. मैं कभी अलग से बता दूंगा आपको कि पत्रकार भाइयों समेत कितनों का मैंने इलाज कराया है पीजीआई में. पचास से अधिक बार अपना खून दे कर भी. रसम किरया, अंतिम अरदास, श्रद्धांजलि और जर्नलिस्टकम्युनिटी.कॉम भी मेरे लिए कमाई का ज़रिया नहीं हैं. आप की तरह मैं उतारता नहीं फिरता लोगों की. फिर भी पीछे एक महीने में चौदह लाख का आंकड़ा हमने छुआ है. आप की साईट की कामयाबी आपको मुबारक. भगवान आपको और ऊपर ले के जाए. लेकिन सच तो ये है कि आप भारत में खुद को नंबर वन लिखने के बावजूद मांग रहे हैं. और मेरे हाथों से ईश्वर कहीं सलाहकार सम्पादक नहीं होने के बावजूद कुछ न कुछ समाज को लौटवा रहा है. ये भी बताता चलूँ आपको कि कभी भजन लाल ने मुख्यमंत्री रहते मुझे एक एक कनाल के दो प्लाट आफर किये थे. मैंने वो लेने से इनकार कर दिया था. उस से पहले गुडगाँव के सेक्टर 15 पार्ट 2 में आठ मरले का एक प्लाट अलाट कर के चिट्ठी भी भेज दी थी. मैंने वो भी लौटा दिया था. आप चाहें तो सरकारी रिकार्ड से इसकी पुष्टि कर सकते हैं. वो अकेला प्लाट भी आज तीन करोड़ से कम का नहीं होगा. आप अंदाज़ लगा सकते हैं कि मेरी ज़रूरतें और मेरी प्राथमिकताएं क्या रहीं होंगी जीवन में.
लगे हाथ मैं अमित सिन्हा के हवाले से की आपकी टिप्पणी पे भी अपना पक्ष रखता चलूँ. अमित सिन्हा मेरे बीस साल पुराने परिचित और मित्र हैं. दोस्तों की तरह से हम दुश्मनों की तरह लड़ें भी हैं. मुश्किल की घड़ी में साथ खड़े भी हैं. लेकिन उन के खिलाफ पैसों के लिए मेरा कौन सा केस दुनिया की किस अदालत में चल रहा है, ज़रा बता तो दीजिये.
आप लिखते हैं मैं छिछोरा निकला. अचानक क्यों? आपके बारे में कुछ लिखा जाने के बाद क्यों? कोई भी आप की कैसी भी आलोचना करेगा तो आप उसको (अपनी आदत और अपेक्षा के अनुरूप) जवाब या खंडन नहीं भेजेंगे, गरियायेंगे? क्यों? आप कोई अंडरवर्ल्ड हैं? दादा है? या मवाली? कौन अधिकार देता है आपको मेरा नाम गलत तरीके से छापने का? जैसा मैंने पहले कहा मैं चाहता तो आपको अभी गलती पे गलती करते देता. और फिर एक दिन इधर बुला के किसी सक्षम न्यायालय के सामने खड़ा कर देता. मैं जानता था आप सभ्यता, संस्कार और व्यवहार की सीमाएं लांघ जाने के आदी हो. कुछ भी कह और लिख सकते हो. जैसे ये....
आपने छापा है कि मैंने राजीव गाँधी की हत्या की साज़िश पे खबर लिखी. प्रभाष जी ने कहा कि मुझे लिखना नहीं आता. और मैं राजस्थान पत्रिका को चिट्ठी लिख दी प्रभाष जी के खिलाफ.
कुछ भी छापने से पहले उसकी पुष्टि करना तो आपकी पत्रकारीय नैतिकता मैं शामिल है नहीं. होता और आप मुझ से एक बार पूछ ही लेते तो आप को पता होता कि जिस पंतनगर में हत्या की जिस साज़िश की बात है वो रिपोर्ट राजीव गाँधी नहीं, श्रीमती इन्दिरा गाँधी के बारे में थी. और वो छपी थी उनकी हत्या होने से पहले 'गंगा' में सन 84 के अक्टूबर अंक में. अब ज़रा अपने तेज़ तर्रार दिमाग का इस्तेमाल कर के बताइये कि क्या इंदिरा जी की हत्या की साज़िश की खबर उनकी हत्या हो चुकने के तीन साल बाद छप सकती है? मैं तो ' 87 में आया 'जनसत्ता' में. आदरणीय प्रभाष जी से पहली बार तभी मिला था. ज़रा बताइये न कि सन 84 में 'जनसत्ता' (जो तब चंडीगढ़ में था ही नहीं) में खबर दी जा सकती है छपने के लिए? और नहीं छपने पे चिट्ठी वो भी राजस्थान पत्रिका को? फिर आप कितने भोलेपन से छाप रहे हैं कि वो चिट्ठी कहीं छपी भी नहीं है और आपके या आपके लेखक पास भी नहीं है. जो चिट्ठी किसी ने कभी देखी ही नहीं उस के हवाले से आप मुझे तो फिर रगड़ दो कोई बात नहीं कम से कम प्रभाष जी आत्मा को तो बख्श दो! मैं ठोक बजा के कह रहा हूँ कि मैंने प्रभाष जी के बारे में कभी कहीं एक शब्द नहीं लिखा. चिट्ठी तो बहुत दूर की बात है. जैसा मैंने ऊपर लिखा राजीव गाँधी की हत्या जैसे किसी विषय पर मेरी किसी रिपोर्ट का तो कोई सवाल ही नहीं, 'जनसत्ता' से मैं खुद गया था. इस्तीफ़ा देकर और प्रभाष जी का आशीर्वाद ले कर. मेरे इस्तीफे की तस्दीक इंडियन एक्सप्रेस कंपनी के एच आर डिपार्टमेंट से कर भी कर सकते हैं आप. आप अपने ही यहाँ मेरे पुराने लेख देख लें तो पाएंगे कि मैंने पहले भी लिखा है कि मेरे 'जागरण' में जाने का फैसला मेरे 'जनसत्ता' में रहते ही हो गया था. फिर भी मेरी तरफ से चिट्ठी लिखी बतानी ही थी तो विवेक गोयनका को लिखवाते. राजस्थान पत्रिका से प्रभाष जी या मेरा क्या मतलब?
मैं निवेदन कर रहा हूँ आपसे कि वो चिट्ठी नहीं है आपके पास तो तुरंत स्पष्टीकरण छापें. और जब वो कोई हो कभी आपके पास तो शब्द नहीं, गोली चला देना मुझ पर. मैंने आपकी प्रतिक्रिया में अपमानजनक शैली और उस में दर्ज किसी शब्द पर आप से कुछ नहीं कहा. पाठक देख रहे हैं कि शालीनता का साथ कौन थामे है, कौन छोड़े. मैं लेखन की बात लेखन और पत्रकारिता की बात पत्रकारिता तक ही सीमित रखता. लेकिन आप यों बिना कारण, (और खुद के मुताबिक़ भी) बिना सबूत मानहानि करेंगे तो मुझे आपकी इस निजी लड़ाई की काट ढूंढनी पड़ेगी. चिठ्ठी या स्पष्टीकरण नहीं छापेंगे तो, मुझे पता है नियम, क़ानून, नैतिकता का मतलब की समझाया जाता है. मैं कोर्ट जाऊँगा. स्पष्टीकरण न छापने की सूरत में बचाव के लिए चिट्ठी तैयार रखियेगा.
-जगमोहन फुटेला
मैंने 'भड़ास' बारे जो भी लिखा उस पे आपका बहसना समझ आ सकता था. तिलमिलाना और तू तड़ाक पे उतरना और मेरे नाम को बिगाड़ के छापना भी आपकी छवि के बहुत कोई बहुत ज्यादा अनपेक्षित नहीं है. मैंने जानबूझ कर बहुत जल्दी जवाब नहीं दिया. मैं चाहता था कि आप पहले अपना आप दिखा ही लें लोगों को.
देख ही रहे हैं पत्रकार भाई कि मैंने लिखा क्या है और जवाब आप क्या दे रहे हैं. मैंने लिखा कि अपने किये अनकिये की कीमत आप ये कह के लोगों से वसूल नहीं सकते कि देखो ये हालत तुम्हारी वजह से हुई है, सो खामियाजा तुम भुगतो. आपके अलावा कभी किसी भी तरह के मीडिया ने वो अपने लेखकों या पाठकों से वसूली भी नहीं. आप इसी मुद्दे पे रहते तो बात समझ में आती. मगर आप उस पे नहीं रुके. वो इस लिए कि उस पे आप के पास कोई ठोस तर्क नहीं था. सो आप ने पहले तो अपनी उपलब्धियां गिनाईं. बताया कि कैसे आपने लोगों को लिखने का एक मंच दिया. लिखने नहीं भड़ास निकालने का. जिस के खिलाफ जो जी में आया, आपने छापा. आपके हिसाब से 'जागरण' तो होना ही नहीं चाहिए था. शशि शेखर को हिंदुस्तान में नहीं होना चाहिए था. आपका बस चले तो भारत में भी नहीं. इंडियन एक्सप्रेस को आप पत्रकारिता का पाठ पढ़ाते हैं. जिस के बारे में जो जी में आये छापना अपना मौलिक अधिकार समझते हैं आप. छाप के नीचे लिख देते हैं कि भैया अगर गलत हो बता देना. वो भी छाप देंगे. क्या तरीका ढूँढा है आपने खुद को हिट करने का? किसी के खिलाफ कुछ भी छापने से गुरेज़ नहीं करते आप. खुद मान के चलते हैं कि पुष्टि नहीं की है छापने से पहले. क्या मानदंड है आपका ये पत्रकारिता का. अब अपने पे छपा है तो कपड़ों से बाहर हुए जा रहे हैं.
किसने कहा है कि न्यू मीडिया नहीं होना चाहिए. कौन कहता है कि आप ने लिखने वालों को मंच नहीं दिया है. मैं भी लिख चुका हूँ कि आपको इसका श्रेय मिलना चाहिए. आइकान होना चाहिए था आपको. आप नहीं हो पाए हैं तो अब झल्ला क्यों रहे हैं? मुझे अपने बराबर साईट हिट होने की चुनौती दे रहे हैं आप. क्यों? मेरा तो मुकाबला ही नहीं आप से. जैसी भी अच्छी बुरी पत्रकारिता कर रहे हैं आप, मुझे करनी ही नहीं. मुझे तो उदित साहू जी जैसे गुरुओं ने पच्चीस साल पहले ही सिखा दिया था अमर उजाला में कि अपने या अपने अखबार पे कोई हमला हो जाए तो अपनी अखबार में नहीं छपेगी खबर. वे कहते थे मज़ा तो तब है जब दूसरे आपकी लड़ाई लड़ें.
तर्क जिसके पास नहीं होता वो काटने को दौड़ता है आप की तरह. आप मुझ से बहस नहीं रहे मूल मुद्दे पे. मुझ से मेरे जीवन के निजी सवाल पूछ रहे हैं. पूछ रहे कि मैं अपना खर्च कैसे चलाता हूँ. आप जिज्ञासु हैं तो चलिए मैं बता ही देता हूँ. मैं बता चुका हूँ कि मैं एक संपन्न परिवार से हूँ और पत्रकारिता में मैं अपनी कमिटमेंट और कन्विक्शन की वजह से आया था. कुछ लाख हमारे लिए कभी भी बहुत बड़ी रकम नहीं रही और पांच लाख रूपये भी कहीं ठीक से लगे हों किसी प्रापर्टी में पांच साल में पांच गुने और दस लाख, दस साल में एक करोड़ बिना कुछ किये भी हो जाते हैं. किसी के भी. दारु मैं पीता नहीं. इतना ईश्वर दे देता है कि मेरे पास दूसरों के लिए भी बच रहता है. मैं कभी अलग से बता दूंगा आपको कि पत्रकार भाइयों समेत कितनों का मैंने इलाज कराया है पीजीआई में. पचास से अधिक बार अपना खून दे कर भी. रसम किरया, अंतिम अरदास, श्रद्धांजलि और जर्नलिस्टकम्युनिटी.कॉम भी मेरे लिए कमाई का ज़रिया नहीं हैं. आप की तरह मैं उतारता नहीं फिरता लोगों की. फिर भी पीछे एक महीने में चौदह लाख का आंकड़ा हमने छुआ है. आप की साईट की कामयाबी आपको मुबारक. भगवान आपको और ऊपर ले के जाए. लेकिन सच तो ये है कि आप भारत में खुद को नंबर वन लिखने के बावजूद मांग रहे हैं. और मेरे हाथों से ईश्वर कहीं सलाहकार सम्पादक नहीं होने के बावजूद कुछ न कुछ समाज को लौटवा रहा है. ये भी बताता चलूँ आपको कि कभी भजन लाल ने मुख्यमंत्री रहते मुझे एक एक कनाल के दो प्लाट आफर किये थे. मैंने वो लेने से इनकार कर दिया था. उस से पहले गुडगाँव के सेक्टर 15 पार्ट 2 में आठ मरले का एक प्लाट अलाट कर के चिट्ठी भी भेज दी थी. मैंने वो भी लौटा दिया था. आप चाहें तो सरकारी रिकार्ड से इसकी पुष्टि कर सकते हैं. वो अकेला प्लाट भी आज तीन करोड़ से कम का नहीं होगा. आप अंदाज़ लगा सकते हैं कि मेरी ज़रूरतें और मेरी प्राथमिकताएं क्या रहीं होंगी जीवन में.
लगे हाथ मैं अमित सिन्हा के हवाले से की आपकी टिप्पणी पे भी अपना पक्ष रखता चलूँ. अमित सिन्हा मेरे बीस साल पुराने परिचित और मित्र हैं. दोस्तों की तरह से हम दुश्मनों की तरह लड़ें भी हैं. मुश्किल की घड़ी में साथ खड़े भी हैं. लेकिन उन के खिलाफ पैसों के लिए मेरा कौन सा केस दुनिया की किस अदालत में चल रहा है, ज़रा बता तो दीजिये.
आप लिखते हैं मैं छिछोरा निकला. अचानक क्यों? आपके बारे में कुछ लिखा जाने के बाद क्यों? कोई भी आप की कैसी भी आलोचना करेगा तो आप उसको (अपनी आदत और अपेक्षा के अनुरूप) जवाब या खंडन नहीं भेजेंगे, गरियायेंगे? क्यों? आप कोई अंडरवर्ल्ड हैं? दादा है? या मवाली? कौन अधिकार देता है आपको मेरा नाम गलत तरीके से छापने का? जैसा मैंने पहले कहा मैं चाहता तो आपको अभी गलती पे गलती करते देता. और फिर एक दिन इधर बुला के किसी सक्षम न्यायालय के सामने खड़ा कर देता. मैं जानता था आप सभ्यता, संस्कार और व्यवहार की सीमाएं लांघ जाने के आदी हो. कुछ भी कह और लिख सकते हो. जैसे ये....
आपने छापा है कि मैंने राजीव गाँधी की हत्या की साज़िश पे खबर लिखी. प्रभाष जी ने कहा कि मुझे लिखना नहीं आता. और मैं राजस्थान पत्रिका को चिट्ठी लिख दी प्रभाष जी के खिलाफ.
कुछ भी छापने से पहले उसकी पुष्टि करना तो आपकी पत्रकारीय नैतिकता मैं शामिल है नहीं. होता और आप मुझ से एक बार पूछ ही लेते तो आप को पता होता कि जिस पंतनगर में हत्या की जिस साज़िश की बात है वो रिपोर्ट राजीव गाँधी नहीं, श्रीमती इन्दिरा गाँधी के बारे में थी. और वो छपी थी उनकी हत्या होने से पहले 'गंगा' में सन 84 के अक्टूबर अंक में. अब ज़रा अपने तेज़ तर्रार दिमाग का इस्तेमाल कर के बताइये कि क्या इंदिरा जी की हत्या की साज़िश की खबर उनकी हत्या हो चुकने के तीन साल बाद छप सकती है? मैं तो ' 87 में आया 'जनसत्ता' में. आदरणीय प्रभाष जी से पहली बार तभी मिला था. ज़रा बताइये न कि सन 84 में 'जनसत्ता' (जो तब चंडीगढ़ में था ही नहीं) में खबर दी जा सकती है छपने के लिए? और नहीं छपने पे चिट्ठी वो भी राजस्थान पत्रिका को? फिर आप कितने भोलेपन से छाप रहे हैं कि वो चिट्ठी कहीं छपी भी नहीं है और आपके या आपके लेखक पास भी नहीं है. जो चिट्ठी किसी ने कभी देखी ही नहीं उस के हवाले से आप मुझे तो फिर रगड़ दो कोई बात नहीं कम से कम प्रभाष जी आत्मा को तो बख्श दो! मैं ठोक बजा के कह रहा हूँ कि मैंने प्रभाष जी के बारे में कभी कहीं एक शब्द नहीं लिखा. चिट्ठी तो बहुत दूर की बात है. जैसा मैंने ऊपर लिखा राजीव गाँधी की हत्या जैसे किसी विषय पर मेरी किसी रिपोर्ट का तो कोई सवाल ही नहीं, 'जनसत्ता' से मैं खुद गया था. इस्तीफ़ा देकर और प्रभाष जी का आशीर्वाद ले कर. मेरे इस्तीफे की तस्दीक इंडियन एक्सप्रेस कंपनी के एच आर डिपार्टमेंट से कर भी कर सकते हैं आप. आप अपने ही यहाँ मेरे पुराने लेख देख लें तो पाएंगे कि मैंने पहले भी लिखा है कि मेरे 'जागरण' में जाने का फैसला मेरे 'जनसत्ता' में रहते ही हो गया था. फिर भी मेरी तरफ से चिट्ठी लिखी बतानी ही थी तो विवेक गोयनका को लिखवाते. राजस्थान पत्रिका से प्रभाष जी या मेरा क्या मतलब?
मैं निवेदन कर रहा हूँ आपसे कि वो चिट्ठी नहीं है आपके पास तो तुरंत स्पष्टीकरण छापें. और जब वो कोई हो कभी आपके पास तो शब्द नहीं, गोली चला देना मुझ पर. मैंने आपकी प्रतिक्रिया में अपमानजनक शैली और उस में दर्ज किसी शब्द पर आप से कुछ नहीं कहा. पाठक देख रहे हैं कि शालीनता का साथ कौन थामे है, कौन छोड़े. मैं लेखन की बात लेखन और पत्रकारिता की बात पत्रकारिता तक ही सीमित रखता. लेकिन आप यों बिना कारण, (और खुद के मुताबिक़ भी) बिना सबूत मानहानि करेंगे तो मुझे आपकी इस निजी लड़ाई की काट ढूंढनी पड़ेगी. चिठ्ठी या स्पष्टीकरण नहीं छापेंगे तो, मुझे पता है नियम, क़ानून, नैतिकता का मतलब की समझाया जाता है. मैं कोर्ट जाऊँगा. स्पष्टीकरण न छापने की सूरत में बचाव के लिए चिट्ठी तैयार रखियेगा.
-जगमोहन फुटेला
Sabhar- Journalistcommunity.com
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