आलोक तोमर
भारत की आबादी हर साल औसतन तीन से चार करोड़ के बीच में बढ़ जाती है। अपना यह महान देश हर साल 18 हजार डॉक्टरों को प्रैक्टिस करने की मान्यता देता है। स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि भारत में छह लाख से ज्यादा एलोपैथिक डॉक्टर हैं। यह आंकड़ा कम इसलिए हो सकता है क्योंकि बहुत सारे अच्छे डॉक्टर विदेशों में जा कर नोट छाप रहे हैं और ज्यादा इसलिए हो सकता है कि आर एन पी और आयुर्वेदिक प्रमाण पत्र ले कर एलोपैथी के इलाज करने वाले डाक्टरों की भी कमी नहीं है।
भारत गरीबो का देश है। भारत अभागों का देश है। भारत अभावों का देश है। भारत कुपोषण के शिकार नन्हीं पीढ़ियों का देश है। भारत खेलने की उम्र में मजदूरी करने वाले बच्चों का देश हैं। भारत सहज बीमारियों और बहुत महंगे इलाजों का देश हैं और आपको अच्छा लगे या बुरा, मगर अपने देश में अस्पतालो से ज्यादा मरघट और कब्रिस्तान है। नैनम् छिदंति शस्त्राणि, नैनम् दहंति पावक:। सबसे ताजा आंकड़ों के हिसाब से भारत में हर एक हजार लोगों की आबादी के लिए सरकारी या निजी अस्पतालों का एक भी बिस्तर नहीं है। विश्व का औसत आंकड़ा चार बिस्तर से कम का हैं और यह आंकड़ा गरीब देशों का है। अमेरिका और यूरोप में तो अस्पताल के वार्ड के वार्ड खाली पड़े रहते हैं।
और भी अस्पताल में अगर बिस्तर हों भी तो हमारा अकिंचन गरीब समाज क्या तीर मार लेगा? शहर तक आने का किराया कहां से आएगा? शहर में ठहरने की कीमत कौन देगा? दवाईयों के व्यापार के नाम पर हत्यारों का जो गिरोह दवा निर्माताओं, दलालों, एजेंटों, सरकारी अधिकारियों, रसायन और दवा मंत्रालयों और स्वास्थ्य मंत्रालय के उदासीन अफसरों की शक्ल में घूम रहा है और मौजूद है और बढ़ रहा है, उसे अपनी महंगी कारे चलाने के लिए गरीबों का खून चाहिए। इसी खूनको बेच कर वे दवाईयां देते हैं और एक एक दवा में दो सौ से पांच सौ प्रतिशत तक की बेशर्म कमाई करते हैं।
लेकिन अभी हम डॉक्टरों पर सवाल पर ही टिके रहें। अच्छे डॉक्टर सस्ती दवाईयों में भी अपनी निष्ठा के सहारे प्राण बचा लेते हैं। भारत का स्वास्थ्य बाजार अब दौ सौ अस्सी अरब डॉलर सालाना का होने जा रहा है। 2007 में ही यह पैतीस अरब रुपए का हो गया था। यहां नर्सों, डॉक्टरों और अन्य स्वास्थ्य कर्मचारियों का वेतन कम हैं इसलिए इलाज भी सस्ता है और मेडीकल पर्यटन की अपार संभावनाएं बढ़ती जा रही है और आपकी जान बचाने के दलाल आपको अस्पताल के दरवाजे पर मिल जाएंगे। वे कोई समाज सेवा या पुण्य नहीं कर रहे, माल काट रहे हैं और कटवा रहे हैं।
कैंसर के एक बहुत प्रसिद्व और विशेषज्ञ डॉक्टर ने हाल ही में आंसू भर कर बताया कि एक गरीब मरीज एक बहुत सस्ती बस्ती से उनके पास आता था। जो दवाईयां बच जाती थी उन्हीं से मैं उसका इलाज करता रहता था। उसकी हालत काफी ठीक हुई। रेडियोथैरेपी भी मैं जा कर खुद कर देता था। मगर बीमारी को पूरी तरह ठीक करने के लिए कुछ बहुत महंगी दवाईयां चाहिए थी। वे मिल जाती तो यह आदमी हमेशा के लिए स्वस्थ्य और सानंद हो जाता। लेकिन उसके पास पैसा था नहीं और मैं दूसरे बेईमान डॉक्टरों की तरह कमाई किए बगैर उसके लिए पैसे का इंतजाम नहीं कर सकता था। लगभग अस्सी साल के ये डॉक्टर आंखे भर कर बताते हैं कि मैंने उस आदमी को जब विदा किया और एक नादान सा झूठ बोला कि अब तुम ठीक हो गए हो तो मुझे मालूम था कि वह एक या डेढ़ साल से ज्यादा जीेने वाला नहीं हैं और मौत भी बहुत दर्दनाक होने वाली है। यह कहानी हमें अपनी जन्नत की हकीकत बताती है।
स्वास्थ्य मंत्रालय की सीएजी रिपोर्ट लगभग हर साल एक ही भाषा में कहती है कि मेडीकल क्षेत्र में सिर्फ चार साल में बारह प्रतिशत का उछाल आया है मगर यह कारोबारी उछाल है। भारत के निवेश आयोग को कभी मेडीकल सुविधाओं का ध्यान नहीं आता। भारत का बड़ा हिस्सा अच्छे डॉक्टरों और हर तरह की दवाईयां होने के बावजूद बीमार रहने और मौत झेलने के लिए अभिशप्त हैं। सात करोड़ बीमार लोग गांव देहातों में रहते हैं और विशेषज्ञों में अस्सी प्रतिशत शहरी क्षेत्रों में।
भारत में फाइव स्टार अस्पतालों के अलावा सरकारी अस्पतालों और डिस्पेंसरियों मे काम करने वालाें की अपार कमी है। देश के प्राथमिक स्वास्थ के केंद्रों में से चालीस प्रतिशत में तो पूरा स्टाफ ही नहीं है और 44 प्रतिशत में डॉक्टर साहब का जब मूड होता है तो टहलने चले जाते है। विश्व स्वास्थ्य संगठन भारत में बढ़ते मेडीकल पर्यटन को देखते हुए यहां सर्वेक्षण करने आया था। पता चला कि सरकाी क्षेत्रों में ढाई सौ मेडीकल कॉलेज एलोपैथी के हैं और चार सौ आयुर्वेद और होम्योपैथी के। बाकी जो प्राइवेट मेडीकल कॉलेज हैं वहां जब कोई लड़का पचास साठ लाख रुपए खर्च कर के डॉक्टर साहब बनेगा तो मरीजों के धर्मशाला नहीं खोलेगा। सबसे पहले लागत वसूल करेगा और फिर वसूली की आदत हमेशा के लिए पड़ जाएगी।
भारत में सभी विधाओं के ढाई लाख से ज्यादा डॉक्टर हर साल पढ़ कर निकलते हैं लेकिन अकाल फिर भी बना हुआ है। भारत की संसद में 1983 में राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति बनाई थी और 2002 में इसे संशोधित किया था। मगर सरकारी अस्पतालों में कूड़े कबाड़े और भ्रष्टाचार का यह कुछ नहीं कर पाई। सरकारी अस्पतालों ने अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान और चंडीगढ़ का पीजीआई भी हैं लेकिन वहां अगर तीन दिन लाइन में लगे रहने से पहले आप अगर मरीज की पहली पर्ची भी बनवा ले तो बहुत सौभाग्यशाली होंगे। इसके बाद अलग अलग डॉक्टरों और जांचों के लिए भटकते रहिए, कुल मिला कर दस मंजिलों में। पैसा हो तो आपके लिए मैक्स है, अपोलो हैं, मेडीसिटी है और फोर्टिस है।
ये सामान्य दिनों की बाते हैं। अपने देश में आपदाएं आती रहती है। बाढ़ आती हैं तो डॉक्टर कम पड़ जाते हैं। भूकंप आता हैं तो जहां हड्डियों और शल्य चिकित्सा के डॉक्टरों की जरूरत हों, वहां खुजली के डॉक्टर मिलते हैं। मेडीकल पर्यटन के लिए चूंकि जेबे भरी होती हैं और कमाई पक्की होती हैं इसलिए सही डॉक्टर सही जगह पर फौरन मिल जाता है। सरकार की बात करें तो 1990 तक सकल घरेलू उत्पादन का छह प्रतिशत यानी 320 रुपए प्रति वर्ष स्वास्थ्य सेवाओं में खर्च किया जाता है।
राज्य सरकारें और केंद्र सरकारें और बीमा कंपनियां अपना अपना योगदान करती हैं लेकिन तमाम शुभकामनाओं के बावजूद अपना देश स्वस्थ्य रह सके इसके लिए जरूरी हैं कि अब भी 36 अरब रुपए का तत्काल निवेश भारत की स्वास्थ्य सेवा में किया जाए और भारत में सामाजिक सुरक्षा योजना जैसा कोई विकल्प भी शुरू होना अनिवार्य है। अमीरो से चंदा ले कर गरीबों का इलाज कराना इससे अच्छा कोई दूसरा उपाय नहीं है
भारत गरीबो का देश है। भारत अभागों का देश है। भारत अभावों का देश है। भारत कुपोषण के शिकार नन्हीं पीढ़ियों का देश है। भारत खेलने की उम्र में मजदूरी करने वाले बच्चों का देश हैं। भारत सहज बीमारियों और बहुत महंगे इलाजों का देश हैं और आपको अच्छा लगे या बुरा, मगर अपने देश में अस्पतालो से ज्यादा मरघट और कब्रिस्तान है। नैनम् छिदंति शस्त्राणि, नैनम् दहंति पावक:। सबसे ताजा आंकड़ों के हिसाब से भारत में हर एक हजार लोगों की आबादी के लिए सरकारी या निजी अस्पतालों का एक भी बिस्तर नहीं है। विश्व का औसत आंकड़ा चार बिस्तर से कम का हैं और यह आंकड़ा गरीब देशों का है। अमेरिका और यूरोप में तो अस्पताल के वार्ड के वार्ड खाली पड़े रहते हैं।
और भी अस्पताल में अगर बिस्तर हों भी तो हमारा अकिंचन गरीब समाज क्या तीर मार लेगा? शहर तक आने का किराया कहां से आएगा? शहर में ठहरने की कीमत कौन देगा? दवाईयों के व्यापार के नाम पर हत्यारों का जो गिरोह दवा निर्माताओं, दलालों, एजेंटों, सरकारी अधिकारियों, रसायन और दवा मंत्रालयों और स्वास्थ्य मंत्रालय के उदासीन अफसरों की शक्ल में घूम रहा है और मौजूद है और बढ़ रहा है, उसे अपनी महंगी कारे चलाने के लिए गरीबों का खून चाहिए। इसी खूनको बेच कर वे दवाईयां देते हैं और एक एक दवा में दो सौ से पांच सौ प्रतिशत तक की बेशर्म कमाई करते हैं।
लेकिन अभी हम डॉक्टरों पर सवाल पर ही टिके रहें। अच्छे डॉक्टर सस्ती दवाईयों में भी अपनी निष्ठा के सहारे प्राण बचा लेते हैं। भारत का स्वास्थ्य बाजार अब दौ सौ अस्सी अरब डॉलर सालाना का होने जा रहा है। 2007 में ही यह पैतीस अरब रुपए का हो गया था। यहां नर्सों, डॉक्टरों और अन्य स्वास्थ्य कर्मचारियों का वेतन कम हैं इसलिए इलाज भी सस्ता है और मेडीकल पर्यटन की अपार संभावनाएं बढ़ती जा रही है और आपकी जान बचाने के दलाल आपको अस्पताल के दरवाजे पर मिल जाएंगे। वे कोई समाज सेवा या पुण्य नहीं कर रहे, माल काट रहे हैं और कटवा रहे हैं।
कैंसर के एक बहुत प्रसिद्व और विशेषज्ञ डॉक्टर ने हाल ही में आंसू भर कर बताया कि एक गरीब मरीज एक बहुत सस्ती बस्ती से उनके पास आता था। जो दवाईयां बच जाती थी उन्हीं से मैं उसका इलाज करता रहता था। उसकी हालत काफी ठीक हुई। रेडियोथैरेपी भी मैं जा कर खुद कर देता था। मगर बीमारी को पूरी तरह ठीक करने के लिए कुछ बहुत महंगी दवाईयां चाहिए थी। वे मिल जाती तो यह आदमी हमेशा के लिए स्वस्थ्य और सानंद हो जाता। लेकिन उसके पास पैसा था नहीं और मैं दूसरे बेईमान डॉक्टरों की तरह कमाई किए बगैर उसके लिए पैसे का इंतजाम नहीं कर सकता था। लगभग अस्सी साल के ये डॉक्टर आंखे भर कर बताते हैं कि मैंने उस आदमी को जब विदा किया और एक नादान सा झूठ बोला कि अब तुम ठीक हो गए हो तो मुझे मालूम था कि वह एक या डेढ़ साल से ज्यादा जीेने वाला नहीं हैं और मौत भी बहुत दर्दनाक होने वाली है। यह कहानी हमें अपनी जन्नत की हकीकत बताती है।
स्वास्थ्य मंत्रालय की सीएजी रिपोर्ट लगभग हर साल एक ही भाषा में कहती है कि मेडीकल क्षेत्र में सिर्फ चार साल में बारह प्रतिशत का उछाल आया है मगर यह कारोबारी उछाल है। भारत के निवेश आयोग को कभी मेडीकल सुविधाओं का ध्यान नहीं आता। भारत का बड़ा हिस्सा अच्छे डॉक्टरों और हर तरह की दवाईयां होने के बावजूद बीमार रहने और मौत झेलने के लिए अभिशप्त हैं। सात करोड़ बीमार लोग गांव देहातों में रहते हैं और विशेषज्ञों में अस्सी प्रतिशत शहरी क्षेत्रों में।
भारत में फाइव स्टार अस्पतालों के अलावा सरकारी अस्पतालों और डिस्पेंसरियों मे काम करने वालाें की अपार कमी है। देश के प्राथमिक स्वास्थ के केंद्रों में से चालीस प्रतिशत में तो पूरा स्टाफ ही नहीं है और 44 प्रतिशत में डॉक्टर साहब का जब मूड होता है तो टहलने चले जाते है। विश्व स्वास्थ्य संगठन भारत में बढ़ते मेडीकल पर्यटन को देखते हुए यहां सर्वेक्षण करने आया था। पता चला कि सरकाी क्षेत्रों में ढाई सौ मेडीकल कॉलेज एलोपैथी के हैं और चार सौ आयुर्वेद और होम्योपैथी के। बाकी जो प्राइवेट मेडीकल कॉलेज हैं वहां जब कोई लड़का पचास साठ लाख रुपए खर्च कर के डॉक्टर साहब बनेगा तो मरीजों के धर्मशाला नहीं खोलेगा। सबसे पहले लागत वसूल करेगा और फिर वसूली की आदत हमेशा के लिए पड़ जाएगी।
भारत में सभी विधाओं के ढाई लाख से ज्यादा डॉक्टर हर साल पढ़ कर निकलते हैं लेकिन अकाल फिर भी बना हुआ है। भारत की संसद में 1983 में राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति बनाई थी और 2002 में इसे संशोधित किया था। मगर सरकारी अस्पतालों में कूड़े कबाड़े और भ्रष्टाचार का यह कुछ नहीं कर पाई। सरकारी अस्पतालों ने अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान और चंडीगढ़ का पीजीआई भी हैं लेकिन वहां अगर तीन दिन लाइन में लगे रहने से पहले आप अगर मरीज की पहली पर्ची भी बनवा ले तो बहुत सौभाग्यशाली होंगे। इसके बाद अलग अलग डॉक्टरों और जांचों के लिए भटकते रहिए, कुल मिला कर दस मंजिलों में। पैसा हो तो आपके लिए मैक्स है, अपोलो हैं, मेडीसिटी है और फोर्टिस है।
ये सामान्य दिनों की बाते हैं। अपने देश में आपदाएं आती रहती है। बाढ़ आती हैं तो डॉक्टर कम पड़ जाते हैं। भूकंप आता हैं तो जहां हड्डियों और शल्य चिकित्सा के डॉक्टरों की जरूरत हों, वहां खुजली के डॉक्टर मिलते हैं। मेडीकल पर्यटन के लिए चूंकि जेबे भरी होती हैं और कमाई पक्की होती हैं इसलिए सही डॉक्टर सही जगह पर फौरन मिल जाता है। सरकार की बात करें तो 1990 तक सकल घरेलू उत्पादन का छह प्रतिशत यानी 320 रुपए प्रति वर्ष स्वास्थ्य सेवाओं में खर्च किया जाता है।
राज्य सरकारें और केंद्र सरकारें और बीमा कंपनियां अपना अपना योगदान करती हैं लेकिन तमाम शुभकामनाओं के बावजूद अपना देश स्वस्थ्य रह सके इसके लिए जरूरी हैं कि अब भी 36 अरब रुपए का तत्काल निवेश भारत की स्वास्थ्य सेवा में किया जाए और भारत में सामाजिक सुरक्षा योजना जैसा कोई विकल्प भी शुरू होना अनिवार्य है। अमीरो से चंदा ले कर गरीबों का इलाज कराना इससे अच्छा कोई दूसरा उपाय नहीं है
Sabhar- Datelineindia.com
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