बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे
बोल ज़बां अब तक तेरी है।-फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
बोल ज़बां अब तक तेरी है।-फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
हाल ही में एक पत्रकार ने भारतीय पत्रकारों के बारे में मुझसे मेरी राय जाननी चाही। मैंने उस महिला पत्रकार से कहा कि यह सवाल मुझसे पूछने की बजाय आपको आमलोगों से पूछना चाहिए, लेकिन उन्हें बिना यह बताए कि आप भी पत्रकार बिरादरी की एक मेंबर हैं। हकीकत यही है कि अधिकतर लोगों की राय पत्रकार बिरादरी को बहुत सुखद नहीं लगेगी।
पिछले दिनों एक टीवी परिचर्चा के दौरान वरिष्ठ पत्रकार मधु किश्वर ने तो यहां तक कहा कि हमारे देश के पत्रकारों को मुफ्त मकान-जमीन आदि के आबंटन के रूप ‘रिश्वत’ दी जा सकती है और उन्हें ‘आसानी से राजी’ किया जा सकता है। हालांकि मैं मधु किश्वर की इन बातों से पूरी तरह सहमत नहीं हूं। देश में ऐसे कई माननीय पत्रकार हैं, जो अपना काम बखूबी ईमानदारी से कर रहे हैं। लेकिन अनेक पत्रकारों के बारे में सार्वजनिक धारणाएं इससे अलग हैं।
पारंपरिक तौर पर मीडिया की दो तरह की भूमिका है। पहली, लोगों को खबरों से रू-ब-रू कराना यानी सूचना देना और दूसरी, उनका मनोरंजन करना। फिलहाल भारत संक्रमण के दौर से गुजर रहा है। हम अभी सामंती युग से आधुनिक युग की ओर बढ़ने के बीच में हैं। और इस दौर ने मीडिया की तीसरी भूमिका भी तय कर दी है। और वह है, वैचारिक नायकत्व की भूमिका। बहरहाल, जहां तक पहली दो भूमिकाओं की बात है, तो इसमें कोई संदेह नहीं कि मनोरंजन और सूचना पहुंचाने का काम मीडिया को करना ही चाहिए। परंतु, जब मीडिया 90 फीसदी मनोरंजन करे और महज 10 फीसदी हिस्से में वास्तविक और सामाजिक-आर्थिक मसले को उठाए, तो साफ है कि उसने अपने कर्तव्यों के अनुपात के मायने भुला दिए हैं।
अब भी हमारे देश की 80 फीसदी आबादी गुरबत की दिल दहला देने वाली जिंदगी जी रही है। बेरोजगारी, महंगाई, स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा से जुड़ी अनगिनत समस्याएं उनके साथ हैं। ऊपर से, सिर छिपाने के लिए लोगों के पास छत तक नहीं है। अब तक ‘ऑनर किलिंग’ व दहेज हत्या जैसी सामाजिक कुरीतियों का उन्मूलन मुमकिन नहीं हो सका है। तब भी मीडिया कवरेज का 90 फीसदी हिस्सा फिल्मी सितारों, फैशन की नुमाइश, गीत-संगीत, रियलिटी शो, क्रिकेट इत्यादि से अटा-पटा रहता है। यदि मैंने इसके खिलाफ आवाज नहीं उठाई होती, तो यकीन मानिए सभी अखबारों के लिए एक फिल्म सितारे के बच्चे का हाल ही में हुआ जन्म पहले पन्ने पर बड़ी सुर्खी बटोरता, जबकि इसे अंदर के पन्नों में समेटा जाना चाहिए।
यह कटु सच है कि लाखों किसानों की जमीनें छिन चुकी हैं। वे अपनी आजीविका खो चुके हैं। अब वे शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। उन्हें उम्मीद है कि शहरों में नौकरी मिल जाएगी, जबकि ऐसा कतई नहीं है। ब्रिटेन में औद्योगिक क्रांति के दौरान विस्थापित किसानों को नव उत्पन्न उद्योगों में नौकरियां मिल गई थीं। लेकिन भारत में हाल के वर्षों में उत्पादन कम हुआ है। कई फैक्टरियों में ताले लग गए हैं। और अब उनके मालिक जमीन-जायदाद के धंधे में कूद पड़े हैं।
नतीजतन, अधिकतर विस्थापित किसान विवश होकर घरेलू नौकर बन गए हैं या फिर फेरीवाले का काम कर रहे हैं। यही नहीं बड़ी तादाद तो भिक्षावृत्ति को अपना पेशा बना चुकी है। ऐसे लोगों की भी संख्या कम नहीं है, जिन्होंने खुद को मजबूरन आपराधिक धंधे और वेश्यावृत्ति में उतार लिया है। कर्ज न चुकाने के चलते किसान खुदकुशी भी कर रहे हैं। पिछले 15 वर्षों में ढाई लाख किसान खुदकुशी कर चुके हैं। अब भी 86 करोड़ भारतीय रोजाना 25 रुपये से कम में गुजर-बसर करते हैं। यही नहीं, देश के 47 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं।
यह फीसदी अपने आप में भयावह और त्रासद है, क्योंकि उप सहारा व अफ्रीकी देशों मसलन, सोमालिया और इथियोपिया में भी आंकड़े इस स्तर तक नहीं पहुंचे हैं। एक तथ्य यह भी है कि अपने यहां गत 20 वर्षों में नाटकीय तौर पर अमीरों और गरीबों के बीच की खाई और चौड़ी हुई है।
जाहिर है, यह एक बदसूरत तस्वीर है। ऐसे में मीडिया द्वारा ज्यादा से ज्यादा फिल्मी खबरों को प्रकाशित-प्रसारित करने की प्रवृत्ति को क्या जायज ठहराया जा सकता है? क्या मीडिया जान-बूझकर देश की वास्तविक चुनौतियों से लोगों का ध्यान नहीं हटा रहा है? क्या भारतीय मीडिया की भूमिका फ्रांस की महारानी मेरी एंत्वानेत की तरह नहीं है, जो लोगों को यह सलाह देती थी कि अगर उनके पास रोटी नहीं है, तो वे केक खाएं? मीडिया में ज्योतिषी आधारित अंधविश्वासी बकबक तो खूब होती है, जबकि उसे तर्कसंगत व वैज्ञानिक विचारों को तरजीह देनी चाहिए। ऐसे में मीडिया की भूमिका क्यों जन-विरोधी नहीं है?
अलबत्ता, जहां तक मीडिया की तीसरी भूमिका की बात है यानी देश को वैचारिक नायकत्व प्रदान करने की, तो वह पूरी तरह से नदारद है। हमने देखा है कि यूरोप के अभ्युदय के दौरान मीडिया की भूमिका ऐतिहासिक और गरिमापूर्ण थी। उसने यूरोपीय समाज को सामंती युग से आधुनिकता की ओर ले जाने में मदद की। वॉल्टेयर, रूसो, थॉमस पाइने, जूनियस और जॉन विल्कस जैसे महान लेखकों ने धार्मिक कट्टरता और तानाशाही जैसी सामंती विचारधाराओं पर गहरे आघात किए। और फिर देश-दुनिया में आजादी, समानता, भाईचारा और धार्मिक स्वायत्तता की क्रांतिकारी विचारधारा का अलख जगाया। मैं चाहूंगा कि हमारा मीडिया भी मौजूदा भारत में उसी तरह की गरिमामयी भूमिका निभाए।
हालांकि कुछ लोग तर्क देते हैं कि लोग जो चाहते हैं, मीडिया उसे ही परोसता है। पर मैं इस राय से कतई सहमत नहीं हूं। मीडिया कोई सामान्य कारोबार नहीं, जो वस्तुओं की लेन-देन पर आधारित हो। यह विचारों से दो-चार होता है। इसलिए अत्यधिक पिछड़ी और जातिवाद, सांप्रदायिकता व अंधविश्वास में डूबी जनता की निम्न कोटि की पसंद की दलाली करने की बजाय मीडिया को उनके मानसिक स्तर को ऊपर उठाने पर जोर देना चाहिए। और यह तभी मुमकिन होगा, जब मीडिया उन तक तार्किक व वैज्ञानिक विचारों को पहुंचाए। और इस तरह से भारतीय जनता को प्रबुद्ध भारत का हिस्सा बनाए। जाहिर है, मीडिया अपने इस काम से ही भारतीय जनमानस का सम्मान पाएगा।
( हिन्दुस्तान अखबार से साभार )
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