जगमोहन फुटेला-
सुप्रीम कोर्ट अब तय करेगा ही करेगा कि ख़बरों के मामले में पत्रकारों की हद क्या है. चूंकि ये हो भी रहा है कोर्ट की ज्यूडिशियल साइड पे, तो उसके खिलाफ कहीं किसी अपील, दलील की कोई गुंजायश भी नहीं बचेगी. विरोध किया तो वो अदालत की अवमानना मानी जाएगी. सजा भी होगी ही. पत्रकार बहुत से बहुत सरकार के खिलाफ प्रदर्शन कर सकेंगे. मगर वो क्या करेगी. सुप्रीम कोर्ट का कोई फैसला वो कैसे पलट देगी? संसद में कोई बिल ला के भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट नहीं पाएगी. पत्रकारों के पास अपनी 'आज़ादी' बचाने के लिए सिर्फ 10 अप्रैल तक का समय है. 'आज़ादी' जिसका खुद मीडिया ने मज़ाक बना के रख छोड़ा है.
देश की सब से बड़ी अदालत सोच रही है कि क्यों पुलिस अफसरों से मीडिया को अपराध की कोई जानकारी पड़ताल के दौरान देने से मना कर दिया जाए. अदालत को लगता है कि इस तरह के 'लीक' से जिस तरह का मीडिया ट्रायल होने लगता है वो खुद पुलिस की जांच पड़ताल को प्रभावित करता है. जैसे आरुशी तलवार के केस में. ये हुआ तो समझो कि अपराध और पुलिस से सम्बंधित ख़बरों के लाले पड़ जाएंगे. पुलिस कुछ बताएगी नहीं, दूसरे किसी सूत्र का कोई मतलब नहीं होगा. ये हुआ तो टीवी के भोंपू कैसे बजेंगे?
सुप्रीम कोर्ट अब तय करेगा ही करेगा कि ख़बरों के मामले में पत्रकारों की हद क्या है. चूंकि ये हो भी रहा है कोर्ट की ज्यूडिशियल साइड पे, तो उसके खिलाफ कहीं किसी अपील, दलील की कोई गुंजायश भी नहीं बचेगी. विरोध किया तो वो अदालत की अवमानना मानी जाएगी. सजा भी होगी ही. पत्रकार बहुत से बहुत सरकार के खिलाफ प्रदर्शन कर सकेंगे. मगर वो क्या करेगी. सुप्रीम कोर्ट का कोई फैसला वो कैसे पलट देगी? संसद में कोई बिल ला के भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट नहीं पाएगी. पत्रकारों के पास अपनी 'आज़ादी' बचाने के लिए सिर्फ 10 अप्रैल तक का समय है. 'आज़ादी' जिसका खुद मीडिया ने मज़ाक बना के रख छोड़ा है.
देश की सब से बड़ी अदालत सोच रही है कि क्यों पुलिस अफसरों से मीडिया को अपराध की कोई जानकारी पड़ताल के दौरान देने से मना कर दिया जाए. अदालत को लगता है कि इस तरह के 'लीक' से जिस तरह का मीडिया ट्रायल होने लगता है वो खुद पुलिस की जांच पड़ताल को प्रभावित करता है. जैसे आरुशी तलवार के केस में. ये हुआ तो समझो कि अपराध और पुलिस से सम्बंधित ख़बरों के लाले पड़ जाएंगे. पुलिस कुछ बताएगी नहीं, दूसरे किसी सूत्र का कोई मतलब नहीं होगा. ये हुआ तो टीवी के भोंपू कैसे बजेंगे?
अपनी इस आज़ादी को खोने के लिए जिम्मेवार मीडिया खुद है. आज़ादी कभी भी बेरोकटोक नहीं होती. खुद का ही सही, नियंत्रण ज़रूरी है. वो नहीं रखा गया है. अब इसी आरुशी कांड को ही लें. किसी अदालत से किसी तरह का कोई निर्णय नहीं आया है. मगर मीडिया नूपुर और राजेश तलवार को कातिल और निर्दोष ठहरा भी चुकी. मीडिया ने आरुशी के साथ दुष्कर्म की खबर चलाने से पहले पोस्ट मार्टम की रिपोर्ट का इंतज़ार भी नहीं किया है. यानी टीआरपी के लिए मीडिया कुछ भी करेगा. मरी हुई किसी लड़की का भी चरित्रहनन करना हो तो मीडिया किसी छुट्टा सांड की तरह कहीं भी विचरता है. याद है आपको खबरें आरुशी के 'बोल्ड' होने की भी चली थीं. मीडिया ने बार बार बताया था कि आरुशी जानना चाहती थी कि बच्चा कैसे पैदा होता है. और ये भी कि उसके हेमराज से संबंध थे. हद है. अपनी पे आया तो मरी हुई बच्ची तक को नहीं बख्शा उसने.
एक मिनट के लिए मान लीजिये कि तलवार दंपत्ति पर उसकी हत्या करने या उस में शामिल होने का यकीन पुलिस या सीबीआई को था. तो ये माना जा सकता है कि उस समय राजेश और नूपुर को पूछताछ के लिए भी हिरासत में लेने की हिम्मत भी उस ने इस लिए न की हो कि मीडिया तो उस समय नूपुर तलवार के आंसू दिखा कर देश को उस समय मोमबत्तियां जलवाने में जुटा था. अब सीबीआई और अदालतें राजेश और नूपुर को उस नज़र से देख भी सकती हैं क्योंकि आंसू जो बहने थे बह लिए, मोमबत्तियां बुझ लीं, टीआरपी जो आनी थी, आ ली. मीडिया कई बार जांच और न्याय की प्रक्रिया में बाधक भी होता है. इसकी एक बानगी ये भी देखिए.
देश के सब से खूबसूरत शहर चंडीगढ़ में एक लड़की एक लड़के के साथ उस रात उसके खाली फ़्लैट पे जाती है. कीमत तय है. पांच सौ रूपये. लड़के का एक दोस्त और आ जाता है. कीमत दुगनी हो जाती है. दिक्कत तब आती है कि जब रात में एक तीसरा भी आ टपकता है और अब ये तीनों कहते हैं कि वे पंद्रह सौ की जगह सिर्फ हज़ार ही देंगे. उनके वापिस लड़की को बस अड्डे तक छोड़ने आने तक ये तकरार चलती रहती है और लड़की को हज़ार के ऊपर जब पांच सौ और नहीं मिलते तो उसकी आवाज़ थोड़ी ऊंची हो जाती है. कोई पुलिस को फोन कर देता है. कोई मीडिया को. सुबह पांच बजे का समय है. दो चैनलों के लोग थाने पंहुच जाते हैं. लड़की पांच सौ की बजाय पांच हज़ार लेने पे आ गई है. वो कहती है पांच हज़ार उसे मिल जाएँ, उसे कोई रिपोर्ट नहीं करनी. लड़के तैयार भी हो जाते हैं. रिपोर्ट जैसा अभी तक कुछ लिखा नहीं गया है. लेकिन देखा तो पहले एक फिर अनेक टीवी चैनलों पे नीचे अपहरण और रेप की पट्टी चलने लगती है. हालत ये हो गई है कि लड़की थाने से चली जाना चाहती है. लड़के तो खैर जाना चाहते ही हैं. लड़की अब पैसे लिए बगैर भी चली जाना चाहती है. और चैनल वाले जुटने लगे हैं. उसका दम घुटने लगा है. बदनामी इस लेवल तक हो जाएगी ये उसने नहीं सोचा था. वो भाग निकलना चाहती थी. लेकिन अब चारा न था. वो खबर बन चुकी थी. आखिर उस के घर वाले भी आ गए. रपट दर्ज हुई. केस चला. छूट गया.
टीआरपी आती हो तो कुछ भी खबर होती है. इस से बेफिक्र कि उसका दूरगामी परिणाम क्या होगा. एक समय था कि जब एक लड़ाकू विमान गिर जाने को भी सम्पादक छापते नहीं थे. ये मान कर कि भले ही दुश्मन देश को हम से भी पहले पता हो. मगर हम ये बता के अपने देशवासियों का मनोबल नहीं तोडंगे कि आज अपना एक लड़ाकू विमान कम हो गया. आज सेना की दिल्ली पे उस चढ़ाई की खबरें भी पहले और पूरे पेज पे छपती हैं जो कि हुई ही नहीं. इसी खबर की बात करें तो टीवी ने तो जैसे नीचता की हद कर दी. जिस पत्रकार ने जीवन में कभी एक अदद राइफल नहीं देखी वो देश के सेना के बागी हो जाने से लेकर लोकतंत्र पे हमले और सेना के भीतर विदेशी घुसपैठ तक की बकवास के साथ भोंपू बन जाता है. उसके जुमले देखिये...कैसे भरोसा करें ऐसी सेना पर?...क्या होगा इस देश का?...लोकतंत्र का?...कौन डालेगा नकेल?...वगैरह वगैरह. सेना तो बेनकेल थी ही नहीं. होती तो उसे रोकता भी कौन. लेकिन इन बारहवीं पास पत्रकारों का क्या? वे गश्तियों को उनकी फीस दिलाने में जुटे हैं. वो न मिले तो बताएँगे कि चंडीगढ़ जैसे शहर में महिलाओं का सड़क पे चलना मुश्किल हो गया है. लड़की खुद भी कहे मुझे घर जाने दो तो जाने नहीं देंगे. महिलाओं को आज़ादी दिलाने के नाम पर उन्होंने उसे थाने से लेकर अदालत तक भिजवा दिया है. और इसका दूसरा रूप भी है. मान लीजिये कि पुलिस उस रात इस लड़की को उस फ़्लैट पे छापा मार कर पकड़ लेती. तो यही मीडिया कहता कि ये दो (या तीन) बालिगों की निजी ज़िन्दगी में दखल है. ऐसा हुआ भी है. चंडीगढ़ के ही पुलिस अफसर ने एक पार्क में दिन दहाड़े एक लड़का लड़की को चूमा चाटी करते देखा सुबह सैर के समय. वो उन्हें थाने ले आया. मीडिया ने इसे निजी जीवन में दखलंदाजी, मोरल पोलिसिंग न जाने क्या क्या कहा. आखिर पुलिस अफसर को माफ़ी मांगनी पड़ी.
दिक्कत ये है कि मीडिया में लोग समझते हैं कि जो वे समझते हैं वही बस ठीक है. बताने को उन्होंने पुलिस के वो बयान भी दुनिया को बता दिए हैं जो उन्होंने कभी दिए ही नहीं हैं और वो फैसले भी जो अदालतों ने कभी नहीं सुनाए. किसी की गरिमा नहीं छोड़ी. न समाज की, न देश की, न सेना की, न न्यायपालिका की. अजीब टीआरपी है सुसरी है जो बलात्कारों के विस्तृत वृतांत परत दर परत बताने के बावजूद नहीं बढ़ती. जिस खुद अपनी बहन बेटी के साथ बैठ कर पत्रकार खुद नहीं देखते अपराध के फूहड़ कार्यक्रमों में उन को टीआरपी नज़र आती है.
इसी वेबसाईट पे एक लेख न्यूज़ एक्सप्रेस के मुख्य सम्पादक मुकेश कुमार का भी है,निर्मल बाबा, मीडिया और बाज़ार, तीनों ही हैं इस लूट के ज़िम्मेदार . पढ़िए. वे बता रहे हैं कि कैसे मीडिया समाज को शोषण से बचाने की बजाय उसका शोषण कराने में मददगार हो रहा है. देश, समाज, राष्ट्र और लोकतंत्री संस्थाओं को मज़बूत करने की दिशा में अपनी भूमिका तो मीडिया ने खुद नहीं निभाई ठीक से. तो अब किसी को तो करनी चाहिए. मैंने अपनी राय दी है. आप अपनी दीजिये. फैसला तो अब तक जब कोई नहीं कर पाया तो फिर सुप्रीम कोर्ट को ही कर लेने देते हैं.
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