टीवी-अखबारों में हर रोज चमकने-छपने वाले, नेताओं-मंत्रियों की नैतिकता पर उंगली उठाने वाले, भ्रष्टाचार को लेकर चीखते-चिल्लाते-अपनी आवाज बुलंद करने वाले वरिष्ठ पत्रकार, जिनके चेहरों को देखकर-प्रवचन रूपी लेखनी को पढ़कर तमाम युवा इनको रोल मॉडल मानकर जर्नलिस्ट बनने का सपना पालते हैं, पर बाहर से चमकने वाले ये चेहरे अंदर से कहीं भयावह व डरावने हैं. आम आदमी के हितों की बात करने तथा सरकार को आईना दिखाने का दंभ भरने वाले ये कथित वरिष्ठ पत्रकारों में हिम्मत से कस्बाई पत्रकारों से भी कम हैं. बाजार को पत्रकारिता के लिए अभिशाप मानने वाले वास्तव में बाजार के बहुत बड़े दलाल हैं. बाजार से इनको बहुत डर लगता हैं. इनमें पत्रकारिता के सिद्धांतों के एक किनारे पर भी खड़े रहने का आत्मबल नहीं है.
मैं व्यक्तिगत तौर पर इनके नाम खुलासा नहीं करना चाहता ताकि लाखों युवाओं के मन में बनी इनकी छवि पर कालिख न पुत जाए. गोष्ठियों और आयोजनों में लम्बे प्रवचन देने वाले, मीडिया को बराबर आईना दिखाने वाले काटजू पर भौंकने वाले पत्रकार ढोंगी निर्मल बाबा के बारे में एक शब्द भी कहने से घबरा जाते हैं. अगर इस मामले में इनका पक्ष जानने के लिए फोन किया जाता है तो कोई बाहर होता है, किसी को बात सुनाई ही नहीं देता है, तो कोई एक बार सवाल सुनने के बाद थोड़ी देर में बात करने की बात कहकर दुबारा फोन नहीं उठाता है, किसी को एंकरिंग की जल्दी होती है. यानी टीवी पर प्रवचन देने वाले चेहरों के पास तमाम तरह के काम निकल आते हैं, पर उनके चैनल पर ढोंगी निर्मल बाबा का विज्ञापन चलने के मामले में जवाब देने का समय नहीं है.
इन महान पत्रकारों के पास जवाब देने का समय इसलिए नहीं है कि इन्हें अपने मालिकों से डर लगता है. हर महीनों इन न्यूज चैनलों को करोड़ों का विज्ञापन और टीआरपी देने वाले निर्मल बाबा मालिकों के लिए दुधारू गाय हैं. इस दुधारू गाय के खिलाफ बयान दिए जाने से इनके आका लोग नाराज हो सकते हैं. इनकी नौकरियों पर बन सकती है, लिहाजा निर्मल बाबा के बारे में बोलने के लिए इनके पास टाइम नहीं है. शाम को न्यूज चैनलों पर होने वाले प्रवचनों में ये चेहरे जनप्रतिनिधियों पर, मंत्रियों पर नैतिकता और आम आदमी के हित को लेकर सवाल उठाते हैं. पर जब खुद जवाब देने की बारी आती है तो इनके पास समय नहीं होता है. फिर तो ये माना ही जा सकता है कि नैतिकता की दुहाई देने वाले इन पत्रकारों से नेता ही ज्यादा अच्छे हैं जो कम से कम किसी मुद्दे पर जवाब तो देते हैं. ये पत्रकार तो कथित तौर पर पतित कहे जाने वाले नेताओं से भी ज्यादा पतित हैं.
जस्टिस काटजू बार-बार दोहराते हैं कि देश इस समय बहुत बड़े बदलाव यानी ट्रांजीशन के फेज से गुजर रहा है, जहां एक तरफ पुरानी परम्पराएं-रूढि़यां हैं तो दूसरी तरफ मार्डन समाज की तरफ बढ़ते कदम यानी देश अपनी पुरानी केंचुल उतारने के दौर से गुजर रहा है और इसमें तकलीफें बढ़ जाती हैं. ऐसे हालात जब यूरोप में आए तो वहां बहुत उपद्रव हुए, भारत भी इसी दौर में है. इसमें मीडिया की भूमिका बढ़ जाती है, उसकी जिम्मेदारियां बढ़ जाती हैं. पर अपने देश का मीडिया है कि बाजार की गुलाम बन चुकी है और संपादक बाजार के बहुत बड़े दलाल. बाजार इन संपादकों को जिस तरीके से नचा रहा है वो उस तरीके कत्थक और भाड़ डांस कर रहे हैं. भूत-प्रेत से निकलकर बुलेट और एक्सप्रेस खबरें बनने के दौर में आम आदमी खबरों और मीडिया से दूर होता जा रहा है. निर्मल बाबा जैसे ढोंगी लोग, जिनका पोल खोलने का दायित्व इन संस्थानों और संपादकों पर है, चैनलों के हॉट केक बनते जा रहे हैं.
इतना ही नहीं बाबा के पोल खोलती खबरें भी बड़े-बड़े समाचार संस्थानों के पोर्टल से गायब चुकी हैं. कुछ ब्लॉग भी सस्पेंड कर दिए गए हैं. जागरण के ब्लॉग जागरणजंक्शन पर निर्मल बाबा का पोल खोलने वाले ब्लॉग को ही सस्पेंड कर दिया गया है. poghal.jagranjunction.com नामक ब्लॉग पर कई खबरें 'निर्मल बाबा उर्फ ढोंगी बाबा का सच जानिए', 'निर्मल बाबा : मीडिया रूपी वैश्या की नाजायज..', 'निर्मल बाबा के गोरखधंधे पर लगाम लगाना ज़रूरी हो ..' तथा 'निर्मल बाबा का अस्तित्व यानि भारत का दुर्भाग्य ...' शीर्षक की खबरों को ना सिर्फ ब्लाक कर दिया गया है बल्कि इस ब्लॉग को ही सस्पेंड कर दिया गया है. खैर, जागरण जैसे संस्थान से इससे ज्यादा की उम्मीद भी नहीं की जा सकती है. पर एनडीटीवी के बारे में क्या कहें, जिसने अपने सोशल साइट पर रवीश कुमार की निर्मल बाबा पर लिखे कमेंट को भी ब्लॉक कर दिया है.
रवीश के ब्लॉग http://social.ndtv.com/ravishkumar/permalink/79144 पर जितना दिख रहा है उसमें उन्होंने लिखा है कि 'निर्मल बाबा न्यूज़ चैनलों के टाप फ़ाइव में पहुँच गया है। निर्मल बाबा को ही संपादक बना देना चाहिए। निर्मल इज़ न्यूज़, निर्मल इज़ नार्मल।' पर इस लिंक को खोलने पर लिख कर आ रहा है कि 'उप्स देयर वाज ए प्रॉब्लम'. आज के मार्केटियर हो चुके पत्रकारिता के दौर में जब तमाम संपादक खाने के और दिखाने के और दांत रखते हैं, रवीश से थोड़ी उम्मीद जगाते दिखते हैं. लेकिन इसके उलट जिन जिन संपादकों में मुझे थोड़ी उम्मीद दिखती थी, उनको देखने समझने से लगता था कि आज के बाजारू पत्रकारिता के दौर में ये औरों से अलग हैं, पर इस घटना के बाद ये सारे प्रतिमान रेत के महल की तरह धराशायी हो चुके हैं. अब ये लाख टीवी पर प्रवचन दें या फिर अखबारों में कलम घसीटे कम से कम उसमें सच्चाई तो बिल्कुल नहीं दिखेगी. हालांकि लाखों की सेलरी लेने वाले इन संपादकों पर इससे कोई
फर्क नहीं पड़ेगा. पर मुझे सकुन मिलेगा कि कम से कम छोटे शहरों और कस्बों के पत्रकार इनसे कहीं ज्यादा इमानदार और कर्तव्यनिष्ठ हैं.
लेखक अनिल सिंह भड़ास4मीडिया के कंटेंट एडिटर हैं. वे दैनिक जागरण समेत कई अखबारों और चैनलों में काम कर चुके हैं.
Sabhar- Bhadas4media.com
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