दीपक आजाद के आलेख पर जिन अजय महोदय ने युगवाणी को लेकर टिप्पणी की है, उसका जवाब बाहैसियत इस पत्रिका के संपादक के नाते मैं देना आवश्यक समझता हूं। सबसे पहले तो मै दीपक भाई को उनकी बेवाक टिप्पणियों पर बधाई देना चाहता हूं और उसके प्रत्युत्तर में जितनी भी प्रतिक्रियाएं पाठकों के सामने आ रही हैं, वे इस बात को साबित करती हैं कि उत्तराखंड में अभी जनपक्षीय सरोकारों को जिंदा रखने वाले भारी तादात में मौजूद हैं।
हम 2008 से युगवाणी के यशस्वी संपादक आचार्य गोपेश्वर कोठियाल की जन्म शताब्दी मनाने पर विचार कर रहे थे। किन्तु एक बड़े आयोजन के लिए आर्थिक तंगी आड़े आ रही थी। जब आयोजन आचार्य जी की जन्मशताब्दी का हो तो उसे ऐसे ही हल्के में नहीं लिया जा सकता था। लिहाजा उसके हर पहलू पर गंभीरता से विचार किया गया और इस आयोजन के लिए सरकार से मदद मांगी गई। इस अवसर पर आचार्य जी पर प्रकाशित होने वाले ग्रंथ को हम विज्ञापनों से नहीं पाटना चाहते थे और हमारा यह साफ मत था कि यह अंक संग्रहणीय होना ही चाहिए, जो किसी भी रूप में स्मारिका जैसा आभास न देता हो। लिहाजा बतौर विज्ञापन और आचार्यजी की धर्मपत्नी सुशीला देवी के नाम से हमे जो सहायता सरकार द्वारा प्राप्त हुई उसी के चलते हम 13 फरवरी 2010 को वह वृहद कार्यक्रम संपन्न करा पाने में सफल हो सके।
अब सवाल यह उठता है कि जो प्रश्न भड़ास पर अजय ने उठाया है, 'जिस युगवाणी वालों ने सरकार से सहायता ली उसे यहां की सरकारों पर टिप्पणी करने का का अधिकार नहीं हैं।' यह बात बहुत हास्यास्पद लगती है। जैसा अजय साहब ने लिखा है कि यह युगवाणी वाले हैं, जिन्होंने विवेकाधीन कोष से धन लिया है, पर अजय ये लिखना भूल गए कि यह युगवाणी ही है जिसने 1947 से लेकर आज तक पहाड़ के सभी जनान्दोलनों को प्रमुखता से दिशा भी दी है। टिहरी राजशाही से जनता की मुक्ति से लेकर चिपको आंदोलन, नशा नहीं-रोजगार दो आंदोलन, विश्वविद्यालय आंदोलन और राज्य प्राप्ति के निर्णायक आंदोलन में युगवाणी और इससे जुडे़ कुल कलमकारों की भूमिका को कतई नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।
युगवाणी की फाइलें गवाह हैं कि उसके सिपाहियों ने दोनों मोर्चो पर अपनी भूमिकाओं के साथ न्याय किया है। एक तरफ जनसंघर्ष के मोर्चे पर जनता के साथ सीधी भागेदारी और दूसरी तरफ अखबार के माध्यम से जनचेतना जागृत करने का बीड़ा वह साथ उठाये रहे। प्रोफेसर भगवती प्रसाद पांथरी, श्यामचंद नेगी, परिपूर्णानंद पैन्यूली, तेजराम भटट, सुंदरलाल बहुगुणा, भवानी भाई से लेकर वीरेन्द्र पैन्यूली, कुंवर प्रसन, शेखर पाठक, शमशेर सिंह बिष्ट, राजीव बहुगुणा और मदन मोहन बिजल्वाण तक सैकड़ों ऐसे लोग रहे, जो इन दोनो मोर्चो पर जूझते रहे और पहाड़ के हर जनसंघर्ष के हमराही रहे हैं।
युगवाणी का फालतू लाइन वाला कार्यालय सिर्फ अखबार का आफिस कभी नहीं रहा, बल्कि यह पिछले छह दशक से आंदोलनकारियों और लिखने-पढने वालों का प्रमुख केंद्र भी रहा है। जहां भावी अंक के साथ-साथ आंदोलन की रणनीतियां भी बनती रहीं। हमने जनपक्ष को केंद्र में रखकर इतनी लम्बी यात्रा तय की है। वरना ठेकेदारी और गल्न्लेदारी करने में कितना समय लगता है?हमारे पूर्ववर्ती संपादकों और लेखकों ने कभी भी न समझौते की राजनीति की और न कभी हम सत्ता के भांड ही रहे। और यही कारण है कि आज भी हमारी विश्वसनीयता पर कोई किन्तु-परंतु नहीं है। तेजराम भटट से लेकर जगमोहन रौतेला और दीपक आजाद तक की इस लम्बी और अनवरत यात्रा में एक भी ऐसा वाकया नहीं दिखाई पड़ता जब इन पिछले छह दशकों में युगवाणी ने किसी के भी समक्ष घुटने टेके हों।
एक बात और यहां स्पष्ट कर दूं कि यह राज्य न तो भीख में मिला है और न ही किसी की कृपा से। यह राज्य उत्तराखंड की बहादुर जनता ने संघर्ष कर हासिल किया है। एक वाकिया याद आ रहा है कि सन 1991 के आसपास जब भाई अतुल शर्मा अपना गीत लिखकर युगवाणी पहुंचे और उन्होंने उस गीत की पहली पंक्ति जब सुनाई, 'लड़ के लेंगे, भिड़ के लेंगे, मर के लेंगे उत्तराखंड', तो इस पर मैंने तुरन्त आपत्ति कर मर के लेंगे के स्थान पर छीन के लेंगे उत्तराखंड करने का आग्रह किया। जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया और कालांतर में यह आंदोलन का मुख्य जनगीत बना। यह बात लिखने का मकसद इतना भर है कि हमने न तो शासक वर्ग के समक्ष कभी घुटने टेके और न ही कभी अपनी धार या कभी अपनी लेखनी की धार को कुंद ही किया।
उत्तराखंड राज्य बनने से पहले और उसके बाद यहां जिस तरह कुकुरमुत्तों की तरह अखबार निकलने शुरू हुए, उन्होंने इस राज्य का सबसे ज्यादा बेड़ा गर्क किया। लालाओं के इन पन्ना बदल अखबारों का मकसद सिर्फ और सिर्फ यहां से पैसा कमाना था, जिसे भ्रष्ट राजनेताओं, नौकरशाहों और सत्ता के दलालों ने यहां फलने-फूलने का भरपूर मौका दिया। विडम्बना है कि इस पूरे दौर में पहाड़ से निकलने वाले वे तमाम छोटे अखबार धराशायी हो गए जिन्होंने राज्य निर्माण के लिए अपना सब कुछ एक लम्बे अरसे तक दांव पर लगाया था।
इन दस वर्षों में उत्तराखंड में जितनी भी सरकारें आईं उनका बेशर्म नेतृत्व इन लालाओं की कठपुतली ही बना रहा। आज जिस हालत में यह राज्य पहुंच चुका है, उसमे इस समूचे गठजोड़ की अहम भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। आज हालात यह है कि सिर्फ अखबार के मालिकान ही नहीं बल्कि इसमें काम करने वाले कारकून भी सत्ता की दलाली करते साफ दिखाई पड़ जाते हैं। घंटाघर से ठीक सात किमी दूर राजपुर के रास्ते पर, जहां मैं रोज सुबह सैर पर जाता हूं, एक सूचना पट्ट मुझे रोज मुंह चिढ़ाता है, जिस पर लिखा है, यह भूमि 'राईटर्स एंड पब्लिसर्श लिमिटेड की हैं, जिसके मालिक दैनिक भास्कर वाले हैं।'
अब भला इस दैनिक भास्कर का इस राज्य से क्या लना देना है। यह तो यहां से छपता तक नहीं किन्तु पूर्व मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी ने पूरा का पूरा खाता ही उन्हें समर्पित कर दिया। यहीं हाल यहां से प्रकाशित होने वाले अन्य दैनिक पत्रों के मालिकों के भी हैं, जो राज्य में अखबार की आड़ में अपने-अपने गोरखधंधे चला रहे हैं। इन दस सालों में इन धंधेबाजों ने जमकर मलाई चाटी हैं। उत्तराखंड का बेड़ा गर्क करने में इन धंधेबाजों का एक बड़ा रोल है।
जहां तक अजय जी के मूल प्रश्न का सवाल है कि यह वही युगवाणी वाले हैं, जिन्होंने विवेकाधीन कोष से पैसा लिया है, तो भाई ये बात भी बता दो कि क्या ये कोष हमारे लिए नहीं हैं। जनता की गाढ़ी कमाई को जब पहले मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी इडिया टुडे को एडवरटोरियल के रूप में 45 लाख रुपये दे सकते हैं, तो भला क्या आचार्य जी की जन्मशताब्दी को मनाने के लिए हमें मायावती का दरवाजा खटखटाना पड़ेगा। जैसा कि मैंने पहले कहा कि उत्तराखंड से प्रकशित होने वाले तमाम छोटे और पुराने ऐतिहासिक अखबार गढ़वाली, कर्मभूमि, सत्यपथ, देवभूमि, शक्ति, सीमांत प्रहरी, नया जमाना, उत्तराचंल आदि इस नये राज्य की भेंट चढ़ चुके हैं और जिनका लगभग अस्तित्व ही समाप्त हो चुका है।
ऐसे में अगर युगवाणी आज भी हिमालयी सरोकारों की प्रतिनिधि पत्रिका होने का दावा करती है तो वह इस बात को भी बखूबी जानती है कि इस राज्य की पूंजी पर पहाड़वासियों का भी हक है। हम हर सूरत में शासक वर्गो की जनविरोधी नीतियों का विरोध करते रहेंगे चाहे इसके लिए कोई भी कीमत क्यों न चुकानी पड़े। अगर हम जनता के प्रति उत्तरदायी हैं और अपने कर्तव्यों और प़त्रकारिता के एथिक्स पर चलने का वादा करते हैं तो हम अपने अधिकारों के प्रति भी उतने ही सचेत हैं। ऐसे में सरकार ने यदि आचार्यजी के बहाने हमें कोई आर्थिक मदद की है तो यह युगवाणी पर किसी का अहसान नहीं है।
लेखक संजय कोठियाल युगवाणी के संपादक हैं. उन्होंने अपना लेख दीपक आजाद के लेख उत्तराखंड : निराशा के निर्माण का दशक पर किए गए एक कमेंट के जवाब में लिखा है।
हम 2008 से युगवाणी के यशस्वी संपादक आचार्य गोपेश्वर कोठियाल की जन्म शताब्दी मनाने पर विचार कर रहे थे। किन्तु एक बड़े आयोजन के लिए आर्थिक तंगी आड़े आ रही थी। जब आयोजन आचार्य जी की जन्मशताब्दी का हो तो उसे ऐसे ही हल्के में नहीं लिया जा सकता था। लिहाजा उसके हर पहलू पर गंभीरता से विचार किया गया और इस आयोजन के लिए सरकार से मदद मांगी गई। इस अवसर पर आचार्य जी पर प्रकाशित होने वाले ग्रंथ को हम विज्ञापनों से नहीं पाटना चाहते थे और हमारा यह साफ मत था कि यह अंक संग्रहणीय होना ही चाहिए, जो किसी भी रूप में स्मारिका जैसा आभास न देता हो। लिहाजा बतौर विज्ञापन और आचार्यजी की धर्मपत्नी सुशीला देवी के नाम से हमे जो सहायता सरकार द्वारा प्राप्त हुई उसी के चलते हम 13 फरवरी 2010 को वह वृहद कार्यक्रम संपन्न करा पाने में सफल हो सके।
अब सवाल यह उठता है कि जो प्रश्न भड़ास पर अजय ने उठाया है, 'जिस युगवाणी वालों ने सरकार से सहायता ली उसे यहां की सरकारों पर टिप्पणी करने का का अधिकार नहीं हैं।' यह बात बहुत हास्यास्पद लगती है। जैसा अजय साहब ने लिखा है कि यह युगवाणी वाले हैं, जिन्होंने विवेकाधीन कोष से धन लिया है, पर अजय ये लिखना भूल गए कि यह युगवाणी ही है जिसने 1947 से लेकर आज तक पहाड़ के सभी जनान्दोलनों को प्रमुखता से दिशा भी दी है। टिहरी राजशाही से जनता की मुक्ति से लेकर चिपको आंदोलन, नशा नहीं-रोजगार दो आंदोलन, विश्वविद्यालय आंदोलन और राज्य प्राप्ति के निर्णायक आंदोलन में युगवाणी और इससे जुडे़ कुल कलमकारों की भूमिका को कतई नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।
युगवाणी की फाइलें गवाह हैं कि उसके सिपाहियों ने दोनों मोर्चो पर अपनी भूमिकाओं के साथ न्याय किया है। एक तरफ जनसंघर्ष के मोर्चे पर जनता के साथ सीधी भागेदारी और दूसरी तरफ अखबार के माध्यम से जनचेतना जागृत करने का बीड़ा वह साथ उठाये रहे। प्रोफेसर भगवती प्रसाद पांथरी, श्यामचंद नेगी, परिपूर्णानंद पैन्यूली, तेजराम भटट, सुंदरलाल बहुगुणा, भवानी भाई से लेकर वीरेन्द्र पैन्यूली, कुंवर प्रसन, शेखर पाठक, शमशेर सिंह बिष्ट, राजीव बहुगुणा और मदन मोहन बिजल्वाण तक सैकड़ों ऐसे लोग रहे, जो इन दोनो मोर्चो पर जूझते रहे और पहाड़ के हर जनसंघर्ष के हमराही रहे हैं।
युगवाणी का फालतू लाइन वाला कार्यालय सिर्फ अखबार का आफिस कभी नहीं रहा, बल्कि यह पिछले छह दशक से आंदोलनकारियों और लिखने-पढने वालों का प्रमुख केंद्र भी रहा है। जहां भावी अंक के साथ-साथ आंदोलन की रणनीतियां भी बनती रहीं। हमने जनपक्ष को केंद्र में रखकर इतनी लम्बी यात्रा तय की है। वरना ठेकेदारी और गल्न्लेदारी करने में कितना समय लगता है?हमारे पूर्ववर्ती संपादकों और लेखकों ने कभी भी न समझौते की राजनीति की और न कभी हम सत्ता के भांड ही रहे। और यही कारण है कि आज भी हमारी विश्वसनीयता पर कोई किन्तु-परंतु नहीं है। तेजराम भटट से लेकर जगमोहन रौतेला और दीपक आजाद तक की इस लम्बी और अनवरत यात्रा में एक भी ऐसा वाकया नहीं दिखाई पड़ता जब इन पिछले छह दशकों में युगवाणी ने किसी के भी समक्ष घुटने टेके हों।
एक बात और यहां स्पष्ट कर दूं कि यह राज्य न तो भीख में मिला है और न ही किसी की कृपा से। यह राज्य उत्तराखंड की बहादुर जनता ने संघर्ष कर हासिल किया है। एक वाकिया याद आ रहा है कि सन 1991 के आसपास जब भाई अतुल शर्मा अपना गीत लिखकर युगवाणी पहुंचे और उन्होंने उस गीत की पहली पंक्ति जब सुनाई, 'लड़ के लेंगे, भिड़ के लेंगे, मर के लेंगे उत्तराखंड', तो इस पर मैंने तुरन्त आपत्ति कर मर के लेंगे के स्थान पर छीन के लेंगे उत्तराखंड करने का आग्रह किया। जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया और कालांतर में यह आंदोलन का मुख्य जनगीत बना। यह बात लिखने का मकसद इतना भर है कि हमने न तो शासक वर्ग के समक्ष कभी घुटने टेके और न ही कभी अपनी धार या कभी अपनी लेखनी की धार को कुंद ही किया।
उत्तराखंड राज्य बनने से पहले और उसके बाद यहां जिस तरह कुकुरमुत्तों की तरह अखबार निकलने शुरू हुए, उन्होंने इस राज्य का सबसे ज्यादा बेड़ा गर्क किया। लालाओं के इन पन्ना बदल अखबारों का मकसद सिर्फ और सिर्फ यहां से पैसा कमाना था, जिसे भ्रष्ट राजनेताओं, नौकरशाहों और सत्ता के दलालों ने यहां फलने-फूलने का भरपूर मौका दिया। विडम्बना है कि इस पूरे दौर में पहाड़ से निकलने वाले वे तमाम छोटे अखबार धराशायी हो गए जिन्होंने राज्य निर्माण के लिए अपना सब कुछ एक लम्बे अरसे तक दांव पर लगाया था।
इन दस वर्षों में उत्तराखंड में जितनी भी सरकारें आईं उनका बेशर्म नेतृत्व इन लालाओं की कठपुतली ही बना रहा। आज जिस हालत में यह राज्य पहुंच चुका है, उसमे इस समूचे गठजोड़ की अहम भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। आज हालात यह है कि सिर्फ अखबार के मालिकान ही नहीं बल्कि इसमें काम करने वाले कारकून भी सत्ता की दलाली करते साफ दिखाई पड़ जाते हैं। घंटाघर से ठीक सात किमी दूर राजपुर के रास्ते पर, जहां मैं रोज सुबह सैर पर जाता हूं, एक सूचना पट्ट मुझे रोज मुंह चिढ़ाता है, जिस पर लिखा है, यह भूमि 'राईटर्स एंड पब्लिसर्श लिमिटेड की हैं, जिसके मालिक दैनिक भास्कर वाले हैं।'
अब भला इस दैनिक भास्कर का इस राज्य से क्या लना देना है। यह तो यहां से छपता तक नहीं किन्तु पूर्व मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी ने पूरा का पूरा खाता ही उन्हें समर्पित कर दिया। यहीं हाल यहां से प्रकाशित होने वाले अन्य दैनिक पत्रों के मालिकों के भी हैं, जो राज्य में अखबार की आड़ में अपने-अपने गोरखधंधे चला रहे हैं। इन दस सालों में इन धंधेबाजों ने जमकर मलाई चाटी हैं। उत्तराखंड का बेड़ा गर्क करने में इन धंधेबाजों का एक बड़ा रोल है।
जहां तक अजय जी के मूल प्रश्न का सवाल है कि यह वही युगवाणी वाले हैं, जिन्होंने विवेकाधीन कोष से पैसा लिया है, तो भाई ये बात भी बता दो कि क्या ये कोष हमारे लिए नहीं हैं। जनता की गाढ़ी कमाई को जब पहले मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी इडिया टुडे को एडवरटोरियल के रूप में 45 लाख रुपये दे सकते हैं, तो भला क्या आचार्य जी की जन्मशताब्दी को मनाने के लिए हमें मायावती का दरवाजा खटखटाना पड़ेगा। जैसा कि मैंने पहले कहा कि उत्तराखंड से प्रकशित होने वाले तमाम छोटे और पुराने ऐतिहासिक अखबार गढ़वाली, कर्मभूमि, सत्यपथ, देवभूमि, शक्ति, सीमांत प्रहरी, नया जमाना, उत्तराचंल आदि इस नये राज्य की भेंट चढ़ चुके हैं और जिनका लगभग अस्तित्व ही समाप्त हो चुका है।
ऐसे में अगर युगवाणी आज भी हिमालयी सरोकारों की प्रतिनिधि पत्रिका होने का दावा करती है तो वह इस बात को भी बखूबी जानती है कि इस राज्य की पूंजी पर पहाड़वासियों का भी हक है। हम हर सूरत में शासक वर्गो की जनविरोधी नीतियों का विरोध करते रहेंगे चाहे इसके लिए कोई भी कीमत क्यों न चुकानी पड़े। अगर हम जनता के प्रति उत्तरदायी हैं और अपने कर्तव्यों और प़त्रकारिता के एथिक्स पर चलने का वादा करते हैं तो हम अपने अधिकारों के प्रति भी उतने ही सचेत हैं। ऐसे में सरकार ने यदि आचार्यजी के बहाने हमें कोई आर्थिक मदद की है तो यह युगवाणी पर किसी का अहसान नहीं है।
लेखक संजय कोठियाल युगवाणी के संपादक हैं. उन्होंने अपना लेख दीपक आजाद के लेख उत्तराखंड : निराशा के निर्माण का दशक पर किए गए एक कमेंट के जवाब में लिखा है।
साभार : भड़ास ४ मीडिया .कॉम
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