-जगमोहन फुटेला-
मैं 'टोटल टीवी' में उत्तर-पश्चिमी राज्यों का ब्यूरो देखता था जब एक दिन मुझे मेरे डायरेक्टर विनोद मेहता का फोन आया. उन ने कहा, फलां नाम का एक बंदा है लुधियाना से. बहुत फोन करता है. एक बार मिल लेना. कोई प्रोपोज़ल है उसके पास. मेरी समझ में नहीं आया. आप देख लेना.
बंदा आया. उसके गले में सोने की मोटी चैन थी. और झकाझक सफ़ेद कपड़ों और वैसे ही जूतों से वो मुझे रईस नहीं तो अपनी रईसी झाड़ने वाला ज़रूर दिखता था. वो मुझ से अकेले में मिलना चाहता था. इसमें मुझे कोई ऐतराज़ न था. उसका प्रोपोज़ल ये था कि वो हमें लुधियाना में बहुत मामूली से खर्च पर एक स्टूडियो उपलब्ध कराएगा और कम से कम पांच लाख रूपये का बिजनेस भी देगा. उसके मुताबिक़ ये ज़रूरी था लुधियाना में लोग उसे हमारे प्रतिनिधि के रूप में जानें. मैंने कहा हम बिजनेस और रिपोर्टिंग को इकठ्ठा नहीं करते. ये मेरे उसूलों के खिलाफ है. उसने कहा, कोई बात नहीं. एक राष्ट्रीयकृत बैंक के निश्चित बिज़नेस सहित कुछ और बड़े घरानों से बात करने और वो करके फिर मुझ से मिलने आने की बात कह के वो चला गया. मैं सोचता रहा कि उसे जब रिपोर्टर वाली ठुक भी नहीं चाहिए तो ऐसी भी क्या भक्ति जाग पड़ी है उसमें हमारे लिए कि वो हमारे लिए झोला उठाये फिरेगा. सोचा शायद कमीशन ही काफी हो उसे. थोड़ी ज़्यादा मांग सकता है. मैंने सोचा वैसी नौबत जब आएगी तो सेल्स वाले अपने आप देख लेंगे.
वो आया. और इस बार इतवार के दिन तब, जब मैं घर पे था. मैं उसको पढ़ने लगा. स्ट्रिंगर तक से ब्यूरो चीफ होने तक के सफ़र और पचास पार की उम्र में चेहरे भांपने मैंने भी सीख लिए थे. कभी मनोविज्ञान पढ़ा होना भी काम आया. मैंने उसे खोल ही लिया. पूछा, मुझे क्या दोगे? वो सब उगलने लगा. योजना उसकी ये थी कि साठ लाख रूपये तो साल में वो कंपनी को देगा. और बाकी मेरे साथ आधे आधे बांटेगा. और वो कैसे और कितने आने थे, अब वो जानिए. योजना उसकी ये थी कि पंजाब में रिपोर्टर और कैमरामैन वो रखेगा. हरेक रिपोर्टर से पचास हज़ार और कैमरामैन से तीस हज़ार लेगा. सेक्योरिटी के नाम पर. पूरे पंजाब में कहीं दो कहीं एक जोड़े के हिसाब से दो सौ जोड़े रखेगा वो. हो गए, एक करोड़ साठ लाख. इस में से साठ टोटल के, एक करोड़ हमारे दोनों के. अगले साल नई भर्ती, नए जोड़े, नए एक करोड़. ऊनी कपड़ों के लिए मशहूर लुधियाना से गर्मियों के मौसम में भी मेरे लिए दो स्वेटर वो ले के आया था. स्वेटर उसे वापिस ले के ले जाने पड़े. उसे चलता कर पहले मैंने अपना दरवाज़ा बंद किया और फिर उसका नंबर अपने मोबाइल की रिजेक्ट लिस्ट में डाला. विनोद जी को सारी बात बताई.
ज्यादा दिन नहीं पड़े कि दिल्ली में मेरे एक मित्र के फोन के बाद पंजाब में एक नया चैनल शुरू करने जा रहे कुछ लोग मुझ से मिलने आये. वे मेरा सहयोग चाहते थे. हम मिले और अगले पांच मिनट में ही उन्होंने मुझे बताया कि रिपोर्टरों और कैमरामैनो से वे पचास पचास और तीस तीस हज़ार रूपये लेंगे. मैंने पूछा वो किस बात के? बोले, सेक्योरिटी के लिए. मैंने पूछा, सेक्योरिटी किस की? क्या रिपोर्टरों को स्कूटर और कैमरामैनों को कैमरे वे देंगे? उनका जवाब था, नहीं. सब करते हैं. पैसा ऐसे ही आता है. साल भर बाद हम नए आदमी रखेंगे. मेरा सवाल था, पैसे उन से भी लेंगे?...वे बोले, हाँ.
मैं उठ खड़ा हुआ...वो चैनल आया. और जल्दी ही बिक गया.
कुछ मित्रों के बहुत आग्रह पे मैंने एक दफे पंजाब के एक चैनल की 'मदद' करना मान लिया. पहले ही दिन डायरेक्टर ने पूछा, एडवोटोरियल पालिसी क्या रहेगी? मेरे लिए ये नया शब्द था. मैंने पूछा, वो क्या? मुझे बताया गया कि एड के लिए जो एडिटोरियल इस्तेमाल होता है उसको एडवोटोरियल कहते हैं. मुझ से पूछा गया कि मेरा योगदान क्या रहेगा. अगले एक, तीन या छ: महीनो में?...मैं बहाने से बाहर निकला. दिल्ली में उस मित्र को फोन लगाया जिसके बहुत कहने से मैं मिलने भी आया था इधर. उस ने कहा मैं उसकी इज्ज़त रखूँ. रेवेन्यू की बात मुझ से कोई नहीं करेगा. मैं वापिस आया तो हुई भी नहीं रेवेन्यू की कोई बात. बल्कि मैंने कहा कि कंटेंट आपका ठीक हो जाएगा तो रेवेन्यू खुद चल के आने लगेगा. संयोग से डिस्ट्रीब्यूशन ठीक था इस चैनल का. लेकिन जब कंटेंट देखा तो महा डिब्बा. खबरें रिपोर्टर खुद तय कर के भेजते थे. खबर वो भी जो चार पेज के लोकल अखबार लायक भी न हो. शाट भी बहुत शेकी.फालतू के जूम इन और आउट. फ्रेम की जैसे समझ ही नहीं. बाइटें फुल स्टाप से पहले ही कटती हुई. मैंने रिपोर्टरों की एक मीटिंग बुलाने को कहा एच आर से. एक एक हफ्ता कर तकरीबन महीन ही बीत गया. मीटिंग के लिए चिट्ठियाँ तक नहीं गईं. एक दिन मैंने ज़रा सख्ती से बोला तो गया बुलावा पंद्रह दिन बाद का. वो दिन आया. मगर उस दिन कोई आया नहीं. एक आदमी आया. वो ठेकेदार था. केबल आपरेटर था कहीं का. वो आया और मुझ पे चढ़ गया. बोला, आपकी हिम्मत कैसे हुई मेरे आदमियों को बुलाने की? मैंने तय किया कि समझना तो ये खेल भी पड़ेगा. मैंने चाय मंगाई. जिस शहर से वो आया था वहां दोनों की जान पहचान के लोग निकाले. उसको कम्फर्टेबल कर मैंने उसको पूछना शुरू किया तो खेल समझ में आने लगा. दरअसल न वो पत्रकार था, न उसके कारिंदे ही कोई पढ़े लिखे. अपने नौकरों चाकरों से वो शाट मंगवा लेता. जो जी में आया साथ में लिख भेजता और खबरें उसकी उसके नाम से चलती आ रहीं थी. बदले में मालिकों का चैनल.
डायरेक्टर मुझ से पूछा करता कि अगले एक हफ्ते में खबरें कौन कौन सी जाएंगी. एक दिन मैंने कह दिया, अफगानिस्तान से बम मंगाए हैं. पंहुच जाएंगे तो उस के बाद हम क्या सभी वही चलाएंगे. इसके बाद वो खिंचा खिंचा सा रहने लगा. मुझे सम्पादकीय विभाग में से ही किसी ने बताया कि यहाँ हर खबर के साथ पैसे आते हैं. पैसे वाली खबर चलती रही है. दूसरी रुक जाती रही है. रोज़ का रोज़ हिसाब होता रहा है.... और ज़्यादातर खबरें भी होती थी पुलिस थानों और चौकियों द्वारा पकड़ी गयी भुक्की की. मैंने गौर से देखा एक दिन तो पाया कि रिपोर्टर हवालदार को भी 'भाई साहब' कह के संबोधित कर रहा है. ऐसे लोग भी आने और दिखने लगे जो रिपोर्टर के बिना भी सीधे आते, अपनी टेप दे जाते और उनका राष्ट्र के नाम संबोधन प्रसारित भी होता. कभी कभी तो उनकी बाईट स्टूडियो चालू कर भी ली जाती.
मैंने देखा, सीखा और एक दिन यहाँ से चलता बना. कुछ दिन बाद ये चैनल भी बिक गया. लेकिन ये मुझे सिखा के गया कि पेड न्यूज़ ये भी होती है. मैंने देखा कि कैसे पैसे देने वाले रिपोर्टरों को उनकी वसूली के लिए सिपाहियों तक को भाईसाहब कहना और मानना पड़ रहा था. चैनल की ख़बरों का कंटेंट कटी जेबों वाले स्ट्रिंगर और पुलिसिये तय कर रहे थे. एक नेक्सस सा साफ़ दिखाई देने लगा था जो स्ट्रिंगर की पैसे पूरे करने की मजबूरी में उसके ज़रिये पुलिस और चैनल के बीच उभर आया था. कभी चैनल तक न पंहुचने वाली घटनाओं के लिए कैमरा चैनल के लोगो सहित तनता था किसी पे भी और फिर उसे पुलिस से छुडाने की कीमत तय और वसूल होती थी. बलात्कार जैसी भी खबर कभी आती नहीं थी क्योंकि इस के चलने से 'भाईसाहब' की पोजीशन खराब हो सकती थी. चैनल का कंटेंट समाज के कल्याण की बजाय व्यवस्था की कुरूपता के पोषण के लिए तय होने लग गया था. जस प्रजा तस राजा. कोई भी सीधे आफिस में पैसे देकर अपनी कैसी भी कोई भी खबर या बाईट कोई भी चलवा सकता था. पैसा अपनी पावर दिखाता रहा. स्तर नीचे जाता रहा और एक दिन न दर्शक बचे, न धन ही. चैनल 'शहीद' हो गया.
लोक सभा के चुनाव इसी समय के आसपास हुए थे. उसमें प्रिंट मीडिया में पेड न्यूज़ के ज़रिये मोटी कमाइयां करने वाले अखबारों पर टीका टिप्पणी होने लगी थी. बाद में गंभीर बहस भी. लेकिन पेड न्यूज़ के इस स्वरुप पर किसी की नज़र फिर भी नहीं गयी. इसकी वजह ये भी हो सकती है इसको प्रिंट की तरह पकड़ पाना और भी मुश्किल था. और अब न्यू मीडिया की बात करें तो वो और भी मुश्किल है. इसी लिए मैं कहता हूँ कि कंटेंट (छपने के लिए सामग्री) तो जो भी भेजता हो उस से पैसे नहीं लिए जाने चाहिए. लिए जाएंगे तो फिर कंटेंट तो वो ही तय करेगा. ये संभव ही नहीं है कि आप महीने में हज़ार दो हज़ार भी दें वो आपका लिखा छापने से इनकार कर सके. ये गंभीर चिंतन का विषय है. इस पे बहस होनी चाहिए. वरना कंटेंट तो अब बाजारी ताकतें ही नहीं, उपभोक्ता भी तय करने लगेंगे
Sabhar- journalistcommunity.com.
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