-कौशल किशोर-
उत्तर प्रदेश के चुनाव में जहां जनता की अदालत में जन प्रतिनिधि हैं, वहीं 22 जनवरी को लखनऊ में एक और अदालत लगी। इस अदालत का आयोजन अलग दुनिया ने वाल्मीकि रंगशाला में किया था। इसमें लेखक, पत्रकार, संपादक, बुद्धिजीवी, जन संगठनों के कार्यकर्ता, मानवाधिकार कार्यकर्ता आदि मौजूद थे। जनता की इस अदालत में मीडिया थी। कैसी है आज मीडिया ? क्या हो इसकी भूमिका ? इसका जायजा लेने के लिए शुरू हुई इस गोष्ठी में प्रिंट व इलेक्ट्रानिक मीडिया के इतिहास, उसकी परंपरा, उसके सरोकार और सामाजिक भूमिका पर चर्चा हुई।
गोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए राजनीतिक व सामाजिक चिंतक प्रोफेसर रमेश दीक्षित ने कहा कि आज मीडिया उनके पक्ष में खड़ा दिखता है जो शोषक हैं। रमेश दीक्षित ने प्रसिद्ध पत्रकार अखिलेश मिश्र की पुस्तक ‘पत्रकारिता: मिशन से मीडिया तक’ का हवाला देते हुए कहा कि मिश्रजी मीडिया के लिए कहते थे कि इसका मतलब है मध्यस्थ्ता या बिचैलिया। आज तो मसाला बेचने वाले हो या उद्दयोग चलाने वाले अखबार की दुनिया में आ गये हैं। कारपोरट अपने हितों के लिए मीडिया के क्षेत्र में क्रियाशील है। इन मालिकों को संपादक नहीं दलाल चाहिए। ऐसा दलाल कि जब वह दिल्ली से आये तो उनकी मुलाकात वह मंत्री से करा सके। इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि मीडिया की सकारात्मक भूमिका भी है। यदि ऐसा नहीं होता तो हम गुजरात जनसंहार को नहीं जान पाते । यह दुधारी तलवार है। वह चाहे तो हाशिए पर पडे लोगों की आवाज बन सकता है या काॅरपोरेट के हितों का पक्षपोषक बन सकता है।
वरिष्ठ आलोचक वीरेन्द्र यादव ने कहा कि आजादी के पहले मीडिया मिशन हुआ करता था। आजादी की लड़ाई की जरूरत के तहत अखबार निकले। नेहरूजी ने ‘नेशनल हेराल्ड’ जैसे अखबार शुरू किये। आजादी के बाद यह रोजगार में तब्दील हुआ। आज यह व्यवसाय हो गया है। भूमंडलीकरण के इस दौर में अखबार का दायरा संकुचित हो गया है। आस पड़ोस से हम कट गये हैं। हम तक बाराबंकी की खबरें भी नहीं पहुँच पाती। हमारे नेशनल मीडिया से कश्मीर,, पूर्वोतर भारत, दलितों, आदिवासियों की खबरें गायब हैं। पश्चिम के देशों के न्यूज रुम की हम चर्चा करें तो पाते हैं कि उन्होंने अपने न्यूज रुम को लोकतांत्रिक बनाया जाहं उनके समाज का प्रतिनिधित्व है, वहीं हमारे विषमतामूलक समाज का हमारे मीडिया में प्रतिनिधत्व नहीं है। दलित, आदिवासी, मुसलमानों आदि अखबारों में निर्णायक पदों पर नही के बराबर हैं।
‘जन अदालत में मीडिया’ पर केन्द्रित इस गोष्ठी में अपना विचार रखने के लिए तथा आज की मीडिया के बारे में लोगों के क्या विचार हैं, यह मीडियाकर्मी तक पहुँचान के लिए लखनऊ से निकलने वाले अखबारों के संपादकों, पत्रकारों व मीडियाकर्मियों को इस गोष्ठी में आमंत्रित किया गया था। लेकिन ‘जनसंदेश टाइम्स’ के संपादक व कवि डा0 सुभाष राय को छोड़कर कोई नही यहां उपस्थित था।
सुभाप राय गौतम बुद्ध की एक कहानी सुनाते हुए इस गोष्ठी में हस्तक्षेप किया और कहा कि बुद्ध जैसी दृष्टि यदि आज पत्रकारों में होती तो ऐसी स्थिति नहीं होती। आज अखबार की खबरों को मैनेज किया जाता है। आज यही प्रशिक्षण दिया जाता है कि इसे ऐसे मैनेज करो जिससे टी आर पी बढ़े, विज्ञापन मिले। किसी तरह पैसा आना चाहिए। यही दबाव अखबार पर है, सरोकार व दृष्टि का दबाव नहीं है। जो प्रतिबद्ध है, उनके लिए संकट है। खबरें भी प्रबंधित हैं। पाठकों को आज ग्राहक समझाा जाता है और अखबार उत्पाद हो गये हैं। मीडिया के संकट की चर्चा करते हुए सुभाष राय ने कहा कि जो संकट है, वह दृष्टि व सरोकार का है। दृष्टि के बिना खबर अपनी संपूर्णता में सामने नहीं आ सकती। अखबारों में वे संकट में हैं जो प्रतिबद्ध हैं, जिनके पास दृष्टि व सरोकार है। ऐसे लोगों की मदद के लिए पाठकों को आगे आना चाहिए। इससे हालत बदलेंगे।
गोष्ठी की शुरुआत दलित चिंतक अरुण खोटे के आधार वक्तव्य से हुई। उनका कहना था कि आज का मीडिया अस्सी के दशक वाला मीडिया नहीं है जहाँ मीडिया के लिए सामाजिक सरोकार प्रमुख होते थे। नब्बे के दशक के बाद वैश्वीकरण की जो प्रक्रिया शुरू हुई, उसके बाद बाजारीकरण की प्रक्रिया तेज हुई। अब जनता और उसके सवालों से मीडिया संचालित नहीं होता आज मीडिया को काॅरपोरेट चलाता है। एक दौर था जब जनता के मुद्दे जनता उठाती थी। मीडिया उसके अनुसार चलता था। आज हालत यह है कि मीडिया मुद्दे उठा रहा है। जैसे करप्शन का मुद्दे को लें, यह मीडिया का मुद्दा बना हुआ है। लेकिन वह भ्रष्टाचार नहीं है जिसका सामना रोज रिक्शे वाले, गरीब. गुरबा लोंगों को करना पड़ता है। यह तो खाये.पीये लोगों का मुद्दा है जो स्वयं इसमें शामिल है।जहां तक वैकल्पिक मीडिया की बात है, यह अवधारणा अभी तक सफल नहीं हुई है। यह उन लोगों को जोड़ने में सफल नहीं हुआ है जिनके लिए यह है। ऐसे में विचारणीय सवाल है कि मीडिया की कोई सामाजिक भूमिका है ?
इस मौके पर ‘लोकसंघर्ष’ के संपादक रणधीर सिंह सुमन [बाराबंकी] ने कहा कि पुंजीवाद पहले मजबूत नहीं था और अखबार स्वतंत्र थे। लेकिन जब से अमरीकी साम्राज्यवाद का प्रभाव व हस्तक्षेप बढ़ा है, मीडिया का संकट भी गहराया है। अमरीका की जरूरत है कि यहां तनाव और युद्ध जैसी हालत बनी रहे। इसीलिए आज मीडिया द्वारा यह चीन विरोधी प्रचार चलाया जा रहा है। चीन द्वारा युद्ध की तैयारी जैसी बातें मीडिया द्वारा प्रचारित है। आंकड़े बताते हैं कि चीन की सीमा पर सबसे कम खर्च आता है। मीडिया का ऐसा ही चरित्र है।
उर्दू मैग्जीन ‘अफकार.ए.मिली’ [दिल्ली] के विशेष संवाददाता अबू ज़फ़र ने कहा कि मीडिया का सारा नजरिया बदल गया है। हमें पढ़ाया गया कि जो घटा है, उसे ही सामने लाना है। न्यूज में व्यूज नहीं होना चाहिए। इमोशन व भाव नहीं हो। हालत यह है कि मीडिया आधी खबरें ही लोगों तक पहुँचाता है। अतंकवादी घटनाओं की खबरें पुलिस के बयान पर आधारित होती हैं। यदि कोई युवक पकड़ा जाता है और उसे पुलिस आतंकवादी बताती है तो वह खबर अखबार के लिए सुर्खियों में छपती है। इस तरह की खबरों का श्रोत पुलिस हुआ करती है। लेकिन वह युवक पर कोई दोष सिद्ध नहीं होने या निर्दोष होने पर छूट जाना मीडिया के लिए कोई खबर नहीं। यह एक विशेष किस्म की मानसिकता की वजह से होता है। यही मानसिकता आज मीडिया पर हावी है। इसके विरुद्ध मास मूवमेंट चलाने की जरूरत है।
प्रगतिशील महिला एसोसिएशन की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष ताहिरा हसन ने कहा कि इस व्यवस्था के साथ खड़े होकर इसका बदलाव संभव नहीं है। यह व्यवस्था काॅरपोरेट द्वारा संचालित है। मीडिया भी इसी के द्वारा नियंत्रित है। दलितों के सवाल, पास्को में हजारों मछुआरों व किसानों का अपनी संपदा से बेदखल किया जाना और इसके खिलाफ उनका संघर्ष मीडिया के विषय नहीं हैं। सोनभद्र में गरीबों की झोपडि़यां जला दी गईं, पर ये मीडिया के लिए खबर नहीं है। जिस मीडिया ने अन्ना के आंदोलन को क्रान्ति व दूसरी आजादी कहकर लगातार प्रचारित किया, वही इरोम शर्मिला के सवाल पर चुप दिखता है। हमारे लिए जरूरी है कि मीडिया को कठघरे में खड़ा करते हुए भूमंडलीकरण व फसीवाद के खिलाफ हमारा संघर्ष हो।
गोष्ठी को ‘लोकसंघर्ष’ के संपादक रणधीर सिंह सुमन, आजमगढ़ से आये मानवाधिकार कार्यकर्ता मसरुद्दीन, पत्रकार सुबोध श्रीवास्तव, नाटककार राजेश कुमार, जसम के संयोजक कौशल किशोर ने भी संबोधित किया। संचालन अलग दुनिया के के0 के0 वत्स ने किया।
वरिष्ठ आलोचक वीरेन्द्र यादव ने कहा कि आजादी के पहले मीडिया मिशन हुआ करता था। आजादी की लड़ाई की जरूरत के तहत अखबार निकले। नेहरूजी ने ‘नेशनल हेराल्ड’ जैसे अखबार शुरू किये। आजादी के बाद यह रोजगार में तब्दील हुआ। आज यह व्यवसाय हो गया है। भूमंडलीकरण के इस दौर में अखबार का दायरा संकुचित हो गया है। आस पड़ोस से हम कट गये हैं। हम तक बाराबंकी की खबरें भी नहीं पहुँच पाती। हमारे नेशनल मीडिया से कश्मीर,, पूर्वोतर भारत, दलितों, आदिवासियों की खबरें गायब हैं। पश्चिम के देशों के न्यूज रुम की हम चर्चा करें तो पाते हैं कि उन्होंने अपने न्यूज रुम को लोकतांत्रिक बनाया जाहं उनके समाज का प्रतिनिधित्व है, वहीं हमारे विषमतामूलक समाज का हमारे मीडिया में प्रतिनिधत्व नहीं है। दलित, आदिवासी, मुसलमानों आदि अखबारों में निर्णायक पदों पर नही के बराबर हैं।
‘जन अदालत में मीडिया’ पर केन्द्रित इस गोष्ठी में अपना विचार रखने के लिए तथा आज की मीडिया के बारे में लोगों के क्या विचार हैं, यह मीडियाकर्मी तक पहुँचान के लिए लखनऊ से निकलने वाले अखबारों के संपादकों, पत्रकारों व मीडियाकर्मियों को इस गोष्ठी में आमंत्रित किया गया था। लेकिन ‘जनसंदेश टाइम्स’ के संपादक व कवि डा0 सुभाष राय को छोड़कर कोई नही यहां उपस्थित था।
सुभाप राय गौतम बुद्ध की एक कहानी सुनाते हुए इस गोष्ठी में हस्तक्षेप किया और कहा कि बुद्ध जैसी दृष्टि यदि आज पत्रकारों में होती तो ऐसी स्थिति नहीं होती। आज अखबार की खबरों को मैनेज किया जाता है। आज यही प्रशिक्षण दिया जाता है कि इसे ऐसे मैनेज करो जिससे टी आर पी बढ़े, विज्ञापन मिले। किसी तरह पैसा आना चाहिए। यही दबाव अखबार पर है, सरोकार व दृष्टि का दबाव नहीं है। जो प्रतिबद्ध है, उनके लिए संकट है। खबरें भी प्रबंधित हैं। पाठकों को आज ग्राहक समझाा जाता है और अखबार उत्पाद हो गये हैं। मीडिया के संकट की चर्चा करते हुए सुभाष राय ने कहा कि जो संकट है, वह दृष्टि व सरोकार का है। दृष्टि के बिना खबर अपनी संपूर्णता में सामने नहीं आ सकती। अखबारों में वे संकट में हैं जो प्रतिबद्ध हैं, जिनके पास दृष्टि व सरोकार है। ऐसे लोगों की मदद के लिए पाठकों को आगे आना चाहिए। इससे हालत बदलेंगे।
गोष्ठी की शुरुआत दलित चिंतक अरुण खोटे के आधार वक्तव्य से हुई। उनका कहना था कि आज का मीडिया अस्सी के दशक वाला मीडिया नहीं है जहाँ मीडिया के लिए सामाजिक सरोकार प्रमुख होते थे। नब्बे के दशक के बाद वैश्वीकरण की जो प्रक्रिया शुरू हुई, उसके बाद बाजारीकरण की प्रक्रिया तेज हुई। अब जनता और उसके सवालों से मीडिया संचालित नहीं होता आज मीडिया को काॅरपोरेट चलाता है। एक दौर था जब जनता के मुद्दे जनता उठाती थी। मीडिया उसके अनुसार चलता था। आज हालत यह है कि मीडिया मुद्दे उठा रहा है। जैसे करप्शन का मुद्दे को लें, यह मीडिया का मुद्दा बना हुआ है। लेकिन वह भ्रष्टाचार नहीं है जिसका सामना रोज रिक्शे वाले, गरीब. गुरबा लोंगों को करना पड़ता है। यह तो खाये.पीये लोगों का मुद्दा है जो स्वयं इसमें शामिल है।जहां तक वैकल्पिक मीडिया की बात है, यह अवधारणा अभी तक सफल नहीं हुई है। यह उन लोगों को जोड़ने में सफल नहीं हुआ है जिनके लिए यह है। ऐसे में विचारणीय सवाल है कि मीडिया की कोई सामाजिक भूमिका है ?
इस मौके पर ‘लोकसंघर्ष’ के संपादक रणधीर सिंह सुमन [बाराबंकी] ने कहा कि पुंजीवाद पहले मजबूत नहीं था और अखबार स्वतंत्र थे। लेकिन जब से अमरीकी साम्राज्यवाद का प्रभाव व हस्तक्षेप बढ़ा है, मीडिया का संकट भी गहराया है। अमरीका की जरूरत है कि यहां तनाव और युद्ध जैसी हालत बनी रहे। इसीलिए आज मीडिया द्वारा यह चीन विरोधी प्रचार चलाया जा रहा है। चीन द्वारा युद्ध की तैयारी जैसी बातें मीडिया द्वारा प्रचारित है। आंकड़े बताते हैं कि चीन की सीमा पर सबसे कम खर्च आता है। मीडिया का ऐसा ही चरित्र है।
उर्दू मैग्जीन ‘अफकार.ए.मिली’ [दिल्ली] के विशेष संवाददाता अबू ज़फ़र ने कहा कि मीडिया का सारा नजरिया बदल गया है। हमें पढ़ाया गया कि जो घटा है, उसे ही सामने लाना है। न्यूज में व्यूज नहीं होना चाहिए। इमोशन व भाव नहीं हो। हालत यह है कि मीडिया आधी खबरें ही लोगों तक पहुँचाता है। अतंकवादी घटनाओं की खबरें पुलिस के बयान पर आधारित होती हैं। यदि कोई युवक पकड़ा जाता है और उसे पुलिस आतंकवादी बताती है तो वह खबर अखबार के लिए सुर्खियों में छपती है। इस तरह की खबरों का श्रोत पुलिस हुआ करती है। लेकिन वह युवक पर कोई दोष सिद्ध नहीं होने या निर्दोष होने पर छूट जाना मीडिया के लिए कोई खबर नहीं। यह एक विशेष किस्म की मानसिकता की वजह से होता है। यही मानसिकता आज मीडिया पर हावी है। इसके विरुद्ध मास मूवमेंट चलाने की जरूरत है।
प्रगतिशील महिला एसोसिएशन की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष ताहिरा हसन ने कहा कि इस व्यवस्था के साथ खड़े होकर इसका बदलाव संभव नहीं है। यह व्यवस्था काॅरपोरेट द्वारा संचालित है। मीडिया भी इसी के द्वारा नियंत्रित है। दलितों के सवाल, पास्को में हजारों मछुआरों व किसानों का अपनी संपदा से बेदखल किया जाना और इसके खिलाफ उनका संघर्ष मीडिया के विषय नहीं हैं। सोनभद्र में गरीबों की झोपडि़यां जला दी गईं, पर ये मीडिया के लिए खबर नहीं है। जिस मीडिया ने अन्ना के आंदोलन को क्रान्ति व दूसरी आजादी कहकर लगातार प्रचारित किया, वही इरोम शर्मिला के सवाल पर चुप दिखता है। हमारे लिए जरूरी है कि मीडिया को कठघरे में खड़ा करते हुए भूमंडलीकरण व फसीवाद के खिलाफ हमारा संघर्ष हो।
गोष्ठी को ‘लोकसंघर्ष’ के संपादक रणधीर सिंह सुमन, आजमगढ़ से आये मानवाधिकार कार्यकर्ता मसरुद्दीन, पत्रकार सुबोध श्रीवास्तव, नाटककार राजेश कुमार, जसम के संयोजक कौशल किशोर ने भी संबोधित किया। संचालन अलग दुनिया के के0 के0 वत्स ने किया।
(हस्तक्षेप से साभार)
No comments:
Post a Comment