यशवंत व्यास, समूह सलाहकार संपादक, अमर उजाला से बातचीत
पत्रकारिता की शुरुआत किस तरह तरह और किस संस्थान के साथ हुई ?
अखबारों मे लिखने की शुरुआत तो पढ़ाई के दौरान ही हुई। कई अखबारों के लिए खूब कॉलम लिखे। कई अखबारों के लिए नियमित स्तंभ भी लिखे। करीब सात-आठ अखबारों के लिए रेगुलर लिखता था। शनिवार को अमर उजाला में एक कॉलम भी लिखता था जो कि बाद में बंद हो गया । संस्थान के तौर पर सबसे पहले 1984-85 में नई दुनिया अखबार के साथ जुड़ा। वहां पर करीब 11 साल काम किया और नई दुनिया के साथ काम करने के दौरान ही बाकी की उच्च शिक्षा भी पूरी की। नई दुनिया में रहते हुए हमने बहुत कुछ सीखा। वह वह दौर था जब समय अखबार अपने आप को बदल रहे थे। अखबारों ने अपनी ब्रांडिंग पर ध्यान देना शुरू कर दिया था। 1995 में मैंने नई दुनिया छोड़ दिया क्योंकि मुझे उस वक्त एक फैलोशिप मिली थी, जिसके अंतर्गत मुझे पूरे भारत में घूमकर हिंदी अखबारों में आये बदलावों पर रिसर्च करना था। रिसर्च पूरा किया और बाद में इसी रिसर्च को पुस्तक का रूप मिला जिसको नाम दिया ‘अपने गिरेबां में’। यह किताब उस वक्त हिंदी मीडिया में हुए बदलावों पर लिखी गई थी। इसमें हमने हर एक पहलू पर चर्चा की थी जिसमें एडिटोरियल से लेकर मार्केटिंग, ब्रांडिंग शामिल हैं। इन सभी को एक दूसरे से जोड़कर हमने रखा था। नई दुनिया छोड़ने के बाद मेरे पास काफी प्रस्ताव थे। ऐसे ही कुछ प्रस्तावों के चलते मैं दिल्ली आ गया। उस वक्त राजस्थान से एक अखबार निकलता था दैनिक नवज्योति। तब उसकी रीडरशिप करीब ढ़ेड लाख थी जो कि उस समय बहुत ज्यादा थी। यह अखबार आज़ादी के पहले से ही निकल रहा था। इसके तीन एडिशन अजमेर, जयपुर और कोटा निकलते थे। मैं वहा चला गया। वहां उस अखबार में काफी कुछ प्रयोग किये, बहुत कुछ बदला। मैंने बहुत सारे सप्लीमेंट शुरू किये। उसी वक्त दैनिक भास्कर ने रीजनल में अपनी पहुंच बढ़ाते हुए राजस्थान से दैनिक भास्कर शुरू करने की योजना बनाई। राजस्थान में अखबारों में काफी टक्कर पैदा हो गई। प्राइज वार शुरू हो गया। जिससे अखबारों के दामों में कमी आई। उस वक्त भास्कर ने अपने ब्रांड को काफी मजबूत किया और लोगों से अपने आपको जोड़ने की कोशिश की। और अपनी मजबूत नीतियों के तहत काम करना शुरू किया। तब हमने अपने ब्रांड को और मजबूत बनाने के लिए एक केबल टीवी से टाइअप किया। इसी बीच मैं जर्मनी चला गया और जब जर्मनी से भारत वापस लौटा तो कुछ दोस्त लोगों ने मिलकर इंटरनेट कंपनी की शुरुआत की मैं भी उसका हिस्सा बन गया। इसके बाद नई पारी दैनिक भास्कर के साथ शुरू हुई और मैं बतौर संपादक जयपुर चला गया। जहां पर मैंने काफी कुछ बदला और जितने प्रयोग हो सकते थे उतने प्रयोग किये। उसके बाद हमने अहा जिंदगी पत्रिका का टाइटल बुक कराया और उस पर काम करना शुरू कर दिया। फिर मैंने अहा जिंदगी को अपनी सेवाएं देनी शुरू कर दीं। और उसमें भी काफी कुछ प्रयोग किये। उसके लिए मैंने पांच साल तक काम किया और उसे दूसरी भाषाओं में भी शुरू किया जैसे गुजराती। और फिर हमने वहीं रहते हुए लक्ष्य मैगजीन की शुरुआत की। जिसमें उन बच्चों का खासध्यान रखा गया जो नॉन मैट्रो से मैट्रो में आए । उनके लिए इसमें जानकारी प्रद सामग्री हमने लोगों उन्हें उपलब्ध कराई। हमने उनकी पर्सनलिटी ग्रूम करने के तरीके, उनके कॅरियर के मुद्दे आदि विषयों पर ज़ोर दिया। इसी बीच अमर उजाला के लिए स्वर्गीय अतुल माहेश्वरी जी ने संपर्क किया और मैं यहां आ गया।
आपके आने के ठीक पहले अमर उजाला में काफी उठा-पटक हुई। आईआरएस में अखबार की ग्रोथ काफी नीचे आ गई। क्या आपको लगता है कि शशि शेखर जी के जाने से अमर उजाला को नुकसान हुआ है अगर हां, तो आप उस नुकसान की भरपाई के लिए क्या कर रहे हैं ?
पहली बात तो हमारी और शशि शेखर जी की आपस में तुलना मत कीजिए। अपने पहले की बात मैं नहीं कर सकता, लेकिन यहां आने के बाद मैंने अमर उजाला से जुड़े हर पहलुओं को औऱ बेहतर करने की कोशिश की है। हमने अमर उजाला की वेबसाइट को सुधारा है। उसके साथ नए पाठक जुड़े हैं। हमारी साइट पर अच्छे लोग आ रहे हैं और उनकी अच्छी फीडबैक आ रही है। पाठक संख्या में बढ़ोतरी हुई है। रही बात आईआरएस के आंकड़ो की तो उस पर मैं किसी तरह की कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता, क्योंकि ये किसी एक तथ्य पर आधारित नहीं होते। हमने तीसरी तिमाही के दौरान अमर उजाला का कोई विस्तार नहीं किया। बाकी अखबारों ने अपने एडिशनों का विस्तार किया है, जिससे उनकी रीडरशिप भी बढ़ी है। आप जब नए एडिशन शुरू करेंगे, रीलॉन्च करेंगे तो उसमें बदलाव तो आयेंगे ही हमारे पाठकों का ध्यान हमारी ओर गया है। वैसे भी मार्केट की लड़ाई को मार्केट की तरह लड़ना चाहिए। उतार-चढ़ाव तो आते ही रहते हैं।
यशवंत व्यास नई सोच और बदलाव के लिए जाने जाते हैं अमर उजाला में किस तरह के बदलाव ला रहे हैं?
कई सारे बदलाव हुए हैं और हो भी रहे हैं। हमने हिंदी पट्टी के बच्चों को ध्यान में रखते हुए युवान लॉन्च किया। हिंदी के बच्चों को लेकर हमेशा यह कहा जाता है कि उनके पास हिंदी में उचित सामग्री का अभाव है। इस मिथ को तोड़ने के लिए हम लोग युवान के जरिए सामग्री की कमी को पूरा कर रहे हैं
युवान का रैवन्यू मॉडल क्या है ?
इसका कोई रेवन्यू मॉडल नहीं है यह पूरी तरह से सबक्रिप्शन मॉडल पर आधारित है। जब विज्ञापन आयेंगे तब देख जायेगा। हम सोशल जिम्मेदारी को निभाते हुए अपनी ब्रांडिंग को मजबूत कर रहे हैं और अगर हम लोग कुछ मामूली नुकसान के साथ समाज के लिए कुछ करना चाहते हैं, तो रेवेन्यू की चिंता करने की जरूरत नहीं है। मैंने इसी तरह का भास्कर में रहते हुए भी किया था।
आजकल अखबार अपने आपको एक स्पेसिफिक एरिया का अखबार बनाने की कोशिश कर रहे हैं क्या ऐसा संभव है। अमर उजाला को लेकर क्या आप इस तरह की सोच रखते हैं ?
ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। असलियत में अखबारों ने यह मान लिया कि मेट्रों में जो बदलाव हो रहे हैं वही पूरे देश का सच है। उनके एक पहलू के बारे में लिख दिया, लेकिन यह जानने की कोशिश नहीं की गई कि उनकी वास्तविक जिंदगी क्या है। अभी अपने देखा कि डीएनए ने एडिट पेज बंद कर दिया। वजह चाहे जो भी हो। मेरा बस इतना मानना है कि आप रीडर को क्या दे रहे हैं और उससे संवाद करना चाहते हैं या नहीं। इन चीजों पर खासकर के ध्यान दिया जाना चाहिए। मेरे हिसाब से तो मैंने आपकी बात सुनी और आप मेरी बात सुने और फिर एक परिणाम पर पहुंचे तो वह परिणाम बेहतर होगा। मैं केवल अपनी बात सुनाऊं आप सुने या ना सुनें ये आपकी मर्जी है।
रीजनल अखबारों की ग्रोथ को आप किस तरह देखते हैं?
सबसे पहले रीजनल अखबारों की ताकत को राजीव गांधी ने पहचाना था। उन्हें उनके किसी सलाहकार ने सलाह दी थी कि रीजनल अखबारों को तवज्जो दी जानी चाहिए। राजीव गांधी अपने विदेशी दौरों पर रीजनल अखबारो के संपादकों को अपने साथ ले जाते थे। और उस वक्त अधिकत्तर रीजनल अखबारों के मालिक ही संपादक होते थे। वापस आकर के वे संपादक उस यात्रा पर बड़े-बड़े फीचर लिखते थे। अखबार के पूरे पूरे पन्ने यात्रा की सामग्री से भरे होते थे। इससे स्थानीय लोगों को भी राजीव गांधी की यात्रा का ब्यौरा रहता और वो हर एक पहलू से रूबरू होते रहते थे। राजीव गांधी की ताकत में रीजनल मीडिया की वजह से बढ़ोतरी हुई। उस वक्त ऐसा हो गया था कि चाहे एनबीटी ने कुछ भी छाप लिया हो टाइम्स ऑफ इंडिया ने कुछ भी छाप लिया हो, लेकिन जब तक स्थानीय अखबार चाहे वो हिंदी में हो या फिर दूसरी स्थानीय भाषा में कुछ नहीं छापेगा लोग उसे नहीं मानते थे। और इसे टीवी ने और भी ज्यादा आसान कर दिया है। आज एक गली में मर्डर हो जाता है तो उसे टीवी वाले नेशनल मर्डर बना देते हैं। जो अखबार अपने आप को नेशनल कह रहे थे उन्हें लोकल ही नहीं हाईपर लोकल होना पड़ा। अन्ना हजारे के लोकप्रिय होने की एकमात्र वजह है कि उन्हें हर एक लोकल अखबार ने अपने यहां पर उचित जगह दी है।
टीवी ने अखबारों का काम कितना आसान किया है?
देखिए, टीवी चैनल 24 घंटे चलते हैं और उन पर खबरें चलती रहती हैं। टीवी प्राइम टाइम में लोगों की रुची के विषयों को उठाती है। और वही विषय सुबह अखबारों की लीड बन जाते हैं। जैसे सब्जी के रेट बढ़े टीवी ने शाम को दिखाया तो अखबार उसे ही विश्लेषण के साथ सुबह अपनी लीड बना कर प्रकाशित कर देते हैं।
प्रयोगधर्मी यशवंत व्यास अमर उजाला में दूसरे क्या प्रयोग कर रहे हैं?
(हंसते हुए) अभी हम लोग एक प्रोग्राम शुरू करने जा रहे हैं। जिसके तहत हम लोग उन लोगों को पत्रकार बनायेंगे जो पत्रकार वाकई में बनना चाहते हैं। चाहे वो एमबीए हो एमबीबीएस या फिर साधारण ग्रेजुएट। हम हर विधा के बच्चों को इस प्रोग्राम में शामिल करेंगे। इसके लिए विशेषज्ञों की एक टीम हमारे साथ होगी जो कि उनके पत्रकारीय गुणों को निखारेगी। हम लोग उन्हें पत्रकारिता के हर मायने पर खरा उतारने के लिए हर एक तकनीकि से रूबरू कराएंगे। ट्रेनिंग के बाद हम उन्हें अपने साथ जुड़ने का मौका देंगे। उन्हें हर तरह के अनुभव फील्ड, रिपोर्टिंग, डेस्क, एडिटिंग और तकनीकि ज्ञान दिया जाएगा।
अमर उजाला के विस्तार की क्या योजनाएं हैं?
आप देखते जाइये कि अमर उजाला में किस तरह से बदलाव होगा और विस्तार होगा। जो भी होगा सब आपके सामने आएगा।
Sabhar- samachar4media.com
No comments:
Post a Comment