आजादी के दौर का गवाह है आधा गांव
हिंदी का यह शायद पहला उपन्यास है जिसमें शिया मुसलमानों तथा सम्बद्ध लोगों का ग्रामीण जीवन अपने समग्र यथार्थ में पूरी तीव्रता के साथ सामने आता है।
डॉ. राही मासूम रज़ा का जिक्र आते ही आंखों में तस्वीर उभरती है ‘आधाा गांव्य’ की। ‘आधा गांव’ उन्होंने अपने दोस्त कुंवर पाल सिंह को समर्पित किया था। आजादी के बाद लिखे गये उपन्यासों में फणीष्वर नाथ रेणु का ‘मैला आंचल’, डॉ. राही मासूम रज़ा का ‘आधा गांव’ तथा श्रीलाल शुक्ल का ‘रागदरबारी’ प्रमुख हैं। रज़ा की त्रासदी यह थी कि उर्दू वाले उन्हें अपना लेखक नहीं मानते थे, जबकि हिंदी जगत ने उन्हें काफी दिनों बाद स्वीकार किया। आधा गांव को जब साहित्य अकादमी पुरस्कार देने की चर्चा शुरू हुई तो उनसे कहा गया कि वे पात्रों के मुंह से निकलने वाली गालियां निकाल दें। रज़ा इसके लिए तैयार नहीं हुए। उन्होंने साफ कह दिया कि वे ऐसा कर नहीं पायेंगे। ऐसी साफगोई बहुत कम रचनाकार दिखा पाते हैं।
आधा गांव विभाजन की पृष्ठभूमि पर लिखा गया महाकाव्यात्मक आख्यान है। गंगौली को आप हिंदुस्तान का आइना मान सकते हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाजीपुर में बसा गंगौली और इसके बाशिंदे आम जिंदगी से उठाये गये पात्र हैं। शिया मुसलमानों की तमाम रवायतें, खासकर उनका मोहर्रम मनाने का तौर-तरीका बारीकी के साथ पेश हुआ है। साम्प्रदायिकता पर यह मजबूती के साथ प्रहार करता है और यह स्थापना देता है कि राष्ट्रीयता की भावना को हर हाल में बनाये रखना होगा। फिरका पस्ती और अलगाववाद अच्छी बात नहीं है। मजहबी कट्टरपन से बचा जाना चाहिए।
हिंदी का यह शायद पहला उपन्यास है जिसमें शिया मुसलमानों तथा सम्बद्ध लोगों का ग्रामीण जीवन अपने समग्र यथार्थ में पूरी तीव्रता के साथ सामने आता है। गंगौली मुस्लिम बहुल गांव है और यह उपन्यास है इस गांव के मुसलमानों का बेपर्द जीवन यथार्थ। पूरी तरह सच, बेबाक और धारदार। पाकिस्तान बनते समय मुसलमानों की विविध मनरूस्थितियों, हिन्दुओं के साथ उनके सहज आत्मीय संबंधी तथा द्वंदमूलक अनुभवों का अविस्मरणीय शब्दांकन।
साम्प्रदायिकता के खिलाफ एक ऐसा सृजनात्मक प्रहार जो दुनिया में कहीं भी राष्ट्रीयता ही के हक में जाता है। लेखक बहुत ही अच्छे ढंग से लेखन कार्य किया है। लेखकीय चिंता सार्वजनीन है कि गंगौली में अगर गंगौली वाले कम तथा सुन्नी-शिया और हिंदू ज्यादा दिखाई देने लगें, तो गंगौली का क्या होगा? दूसरे शब्दों में गंगौली को भारत मान लिया जाए तो भारत का क्या होगा। भारतीय कौन होंगे। अपनी वस्तुगत चिंताओं, गतिशील रचनाशीलता, आंचलिक भाषा सौंदर्य और सांस्कृतिक परिवेश के चित्रण की दृष्टि से यह अत्यधिाक महत्वपूर्ण उपन्यास माना जा सकता है- हिंदी साहित्य की बहुचर्चित और निर्विवाद उपलब्धिा। इस कृति की सबसे बड़ी खासियत है संयमहीनता। इसके सभी पात्र बिना लगाम के हैं और उनकी अभिव्यक्ति सहज, सटीक और दो टूक है, शायद गालियों की हद तक। राही मासूम रज़ा ने ‘आधा गांव’ के अलावा ‘दिल एक सादा कागज’, ‘कटरा बी आर्जू’, ‘टोपी शुक्ला’, ‘सीन-75’, ‘ओस की बूंद’ जैसे उपन्यास भी लिखे हैं।
इन सभी उपन्यासों में रज़ा का साम्प्रदायिकता विरोधी तेवर साफ तौर पर नजर आता है। आपात काल की ज्यादतियों और श्रीमती इन्दिरा गांधी के अधिनायकवादी चरित्र पर कम लेखकों ने साहस के साथ लिखा था। रज़ा इनमें एक थे। रज़ा ने कई लोकप्रिय फिल्मों की पटकथा व संवाद लिखे हैं। बीआर चोपड़ा ने जब टेलीविजन पर अपना सर्वाधिक सफल धाारावाहिक ‘महाभारत’ पेश किया तो इसे डॉ. राही मासूम रज़ा ने ही लिखा था। अपने जीवन के आखिरी दौर में लखनऊ दूरदर्शन के लिए उन्होंने ‘नीम का प़ेड’ जैसे धारावाहिक की भी पटकथा और संवाद लिखे थे। रज़ा सचमुच बेजोड़ लेखक थे। सबसे बड़ी बात फिल्मों में लिखने को कभी भी उन्होंने घटिया नहीं माना।Sabhar -: http://weekandtimes.com/?p=4312
डॉ. राही मासूम रज़ा का जिक्र आते ही आंखों में तस्वीर उभरती है ‘आधाा गांव्य’ की। ‘आधा गांव’ उन्होंने अपने दोस्त कुंवर पाल सिंह को समर्पित किया था। आजादी के बाद लिखे गये उपन्यासों में फणीष्वर नाथ रेणु का ‘मैला आंचल’, डॉ. राही मासूम रज़ा का ‘आधा गांव’ तथा श्रीलाल शुक्ल का ‘रागदरबारी’ प्रमुख हैं। रज़ा की त्रासदी यह थी कि उर्दू वाले उन्हें अपना लेखक नहीं मानते थे, जबकि हिंदी जगत ने उन्हें काफी दिनों बाद स्वीकार किया। आधा गांव को जब साहित्य अकादमी पुरस्कार देने की चर्चा शुरू हुई तो उनसे कहा गया कि वे पात्रों के मुंह से निकलने वाली गालियां निकाल दें। रज़ा इसके लिए तैयार नहीं हुए। उन्होंने साफ कह दिया कि वे ऐसा कर नहीं पायेंगे। ऐसी साफगोई बहुत कम रचनाकार दिखा पाते हैं।
आधा गांव विभाजन की पृष्ठभूमि पर लिखा गया महाकाव्यात्मक आख्यान है। गंगौली को आप हिंदुस्तान का आइना मान सकते हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाजीपुर में बसा गंगौली और इसके बाशिंदे आम जिंदगी से उठाये गये पात्र हैं। शिया मुसलमानों की तमाम रवायतें, खासकर उनका मोहर्रम मनाने का तौर-तरीका बारीकी के साथ पेश हुआ है। साम्प्रदायिकता पर यह मजबूती के साथ प्रहार करता है और यह स्थापना देता है कि राष्ट्रीयता की भावना को हर हाल में बनाये रखना होगा। फिरका पस्ती और अलगाववाद अच्छी बात नहीं है। मजहबी कट्टरपन से बचा जाना चाहिए।
हिंदी का यह शायद पहला उपन्यास है जिसमें शिया मुसलमानों तथा सम्बद्ध लोगों का ग्रामीण जीवन अपने समग्र यथार्थ में पूरी तीव्रता के साथ सामने आता है। गंगौली मुस्लिम बहुल गांव है और यह उपन्यास है इस गांव के मुसलमानों का बेपर्द जीवन यथार्थ। पूरी तरह सच, बेबाक और धारदार। पाकिस्तान बनते समय मुसलमानों की विविध मनरूस्थितियों, हिन्दुओं के साथ उनके सहज आत्मीय संबंधी तथा द्वंदमूलक अनुभवों का अविस्मरणीय शब्दांकन।
साम्प्रदायिकता के खिलाफ एक ऐसा सृजनात्मक प्रहार जो दुनिया में कहीं भी राष्ट्रीयता ही के हक में जाता है। लेखक बहुत ही अच्छे ढंग से लेखन कार्य किया है। लेखकीय चिंता सार्वजनीन है कि गंगौली में अगर गंगौली वाले कम तथा सुन्नी-शिया और हिंदू ज्यादा दिखाई देने लगें, तो गंगौली का क्या होगा? दूसरे शब्दों में गंगौली को भारत मान लिया जाए तो भारत का क्या होगा। भारतीय कौन होंगे। अपनी वस्तुगत चिंताओं, गतिशील रचनाशीलता, आंचलिक भाषा सौंदर्य और सांस्कृतिक परिवेश के चित्रण की दृष्टि से यह अत्यधिाक महत्वपूर्ण उपन्यास माना जा सकता है- हिंदी साहित्य की बहुचर्चित और निर्विवाद उपलब्धिा। इस कृति की सबसे बड़ी खासियत है संयमहीनता। इसके सभी पात्र बिना लगाम के हैं और उनकी अभिव्यक्ति सहज, सटीक और दो टूक है, शायद गालियों की हद तक। राही मासूम रज़ा ने ‘आधा गांव’ के अलावा ‘दिल एक सादा कागज’, ‘कटरा बी आर्जू’, ‘टोपी शुक्ला’, ‘सीन-75’, ‘ओस की बूंद’ जैसे उपन्यास भी लिखे हैं।
इन सभी उपन्यासों में रज़ा का साम्प्रदायिकता विरोधी तेवर साफ तौर पर नजर आता है। आपात काल की ज्यादतियों और श्रीमती इन्दिरा गांधी के अधिनायकवादी चरित्र पर कम लेखकों ने साहस के साथ लिखा था। रज़ा इनमें एक थे। रज़ा ने कई लोकप्रिय फिल्मों की पटकथा व संवाद लिखे हैं। बीआर चोपड़ा ने जब टेलीविजन पर अपना सर्वाधिक सफल धाारावाहिक ‘महाभारत’ पेश किया तो इसे डॉ. राही मासूम रज़ा ने ही लिखा था। अपने जीवन के आखिरी दौर में लखनऊ दूरदर्शन के लिए उन्होंने ‘नीम का प़ेड’ जैसे धारावाहिक की भी पटकथा और संवाद लिखे थे। रज़ा सचमुच बेजोड़ लेखक थे। सबसे बड़ी बात फिल्मों में लिखने को कभी भी उन्होंने घटिया नहीं माना।
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