एक तस्वीर जिसने बदली दो जिंदगियाँ

रुपा झा
बीबीसी संवाददाता, अहमदाबाद
सोमवार, 27 फ़रवरी, 2012 को 05:25 IST तक के समाचार
गुजरात दंगो की पहचान बने कुतुबुद्दीन अंसारी उस बच्चे की तरह महसूस करते हैं जिसे पैदा होते ही दुनिया से लड़ने के लिए निहत्था और अकेला छोड़ दिया गया. उन्हें उस फोटोग्राफर का नाम तक पता नहीं जिसने उनकी तस्वीर ली. उनके मन में कई सवाल हैं उस फोटोग्राफर से पूछने के लिए और बहुत सारी शिकायतें भी.
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फोटोग्राफर औरको दत्ता ने कई यादगार तस्वीरे ली हैं, पुरस्कार जीते हैं पर उनके मन से कुतुबुद्दीन की वो छवि कभी नहीं हटती जिसे उन्होंने लगभग दौड़ते हुए खींची थी. दस सालों में उस तस्वीर के कारण क्या क्या गुजरा कुतुबुद्दीन के उपर ये औरको को खबर नहीं. फोटोग्राफर औरको किन दुविधाओं से जूझ रहे थे ये कुतुबुद्दीन को पता नहीं.
तो एक तस्वीर और गुजरात की त्रासदी ने जिन दो लोगो को हमेशा के लिए जोड़ दिया वे एक दूसरे से क्या कहना चाहेंगे..
बीबीसी ने दस सालों में उनकी पहली मुलाक़ात की योजना बनाई.
कैसे हुई मुलाकात
‘वो मुझसे मिलना चाहेंगे? पता नहीं. दस साल हो गए हैं. बहुत सारी बातें मीडिया में आई हैं. मैं समझ नहीं पा रहा हूं क्या करना चाहिए. मुझे सोचने का वक्त दीजिए’
जाने माने फोटो पत्रकार औरको दत्ता मुम्बई से फोन पर मुझसे बातें कर रहे थे. मैं चाहती थी कि वे कुतुबुद्दीन अंसारी से मिलें.
नाम - कुतुबुद्दीन अंसारी
उम्र - 38 साल
पता - अहमदाबाद
पहचान चिन्ह—2002 गुजरात दंगों का चेहरा बने—हाथ बांधे, भरी आंखे और बदहवास चेहरा—पुलिस से मदद की गुहार करते.
मीडिया में इस तस्वीर के आते ही गुजरात दंगो की भयावहता दुनिया के सामने थी.
कुतुबुद्दीन अंसारी को ये पहचान आज से दस साल पहले औरको दत्ता ने दी थी. उसके बाद से कुतुबुद्दीन अंसारी की ज़िदगी बदल गई.
रोंगटे खड़े हो जाते हैं

दस सालों में पहली बार इन दोनों शख्सियतों को बीबीसी ने साथ लाया.
अहमदाबाद स्थित अपने एक कमरे के छोटे और बहुत साफ सुथरे घर में कुतुबुद्दीन सुखी दिखते हैं..लगता है जिंदगी पटरी पर है. तीन सुंदर बच्चे और रूकैया- उनकी सुघड़ पत्नी उनकी ज़िंदगी के केन्द्र बिंदु हैं.
पत्नी से ठिठोली करते हुए कहते हैं- ‘रूकैया, कितनी उम्र लिखवाऊं तेरी, मैडम पूछ रही हैं.’
रूकैया बाहर हमारे लिए चाय बनाते हुए दुप्पटे में हंसती हैं.
मुझे लगा कि दस साल पहले का ज़ख्म भर गया सा लगता है लेकिन तभी तक जब तक मैंने उनसे 1 मार्च 2002 की बात शुरू नहीं की थी.
‘मत पूछो बेन, जो हुआ हम ही जानते हैं. हम पर गुजरी. आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं. हम दो दिनों से भीड़ से घिरे हुए थे और लगता था मौत बहुत करीब है. जब मैने पुलिस की गाड़ी की आवाज़ सुनी तो लगा मदद पहुंच गई. मैं बाहर बालकनी में आया और हाथ जोड़कर कर मदद मांगने लगा, उसी वक्त वो तस्वीर ली गई थी.’
"बहुत ख्वाहिश है मिलने की. सब मिलने आए पर वो नहीं आए इन दस सालों में. उनकी जिम्मेदारी बनती है मुझसे मिलने की.उनकी एक तस्वीर ने मेरी जिंदगी में तूफान ला दिया. हर कोई अपने तरीके से उस तस्वीर का इस्तेमाल करते हैं. मेरी कितनी नौकरियां चली गई. आतंकवादी संगठन मेरे नाम लेकर बम धमाके करने लगे. लोग डरने लगे मुझसे रिश्ता रखने में. मैं डरने लगा लोगों से... इसीलिए घर पर ही रहता हूं. यहीं से छोटा मोटा काम करता हूं. कौन है इसका जिम्मेदार. आप मिलवा सकती हैं मुझे..."
कुतुबुद्दीन अंसारी, दंगा पीड़ित
मेरे ये पूछने पर कि क्या वे उस फोटोग्राफर से मिलना चाहेंगे जिसने वो तस्वीर ली थी?
कुतुबुद्दीन चुप हो गए फिर हसरत भरी आवाज में कहा— बहुत ख्वाहिश है मिलने की. सब मिलने आए पर वो नहीं आए इन दस सालों में. उनकी जिम्मेदारी बनती है मुझसे मिलने की.
उनकी एक तस्वीर ने मेरी जिंदगी में तूफान ला दिया. हर कोई अपने तरीके से उस तस्वीर का इस्तेमाल करते हैं. मेरी कितनी नौकरियां चली गईx. आतंकवादी संगठन मेरे नाम लेकर बम धमाके करने लगे. लोग डरने लगे मुझसे रिश्ता रखने में.
मैं डरने लगा लोगों से... इसीलिए घर पर ही रहता हूं. यहीं से छोटा मोटा काम करता हूं.
कौन है इसका जिम्मेदार. आप मिलवा सकती हैं मुझे...
वो एक तस्वीर

कुतुबुद्दीन के तीन सुंदर बच्चे और रूकैया, उनकी पत्नी उनकी ज़िंदगी के केन्द्र बिंदु हैं.
औरको दत्ता राज़ी हो गए हैं. कुतुबुद्दीन अंसारी से मिलने वो अहमदाबाद पहुंचे. हमने उसी जगह मिलने की योजना बनाई जहां वो तस्वीर ली गई थी.
गाड़ी में मैंने औरको से पूछा कि वे इस मुलाकात से पहले कैसा महसूस कर रहे हैं.
‘मैं मिलने को आतुर हूं. जब भी मैंने मीडिया में उनके बारे में पढ़ा या सुना तो मन हुआ कि काश मैं उनके साथ खड़ा होता. कुछ पूछता, कुछ बताता कि क्यों मैंने वो तस्वीर ली. मेरे साथ क्या क्या हुआ, मेरी ज़िंदगी कैसे बदली. पर दस सालों में वो मुलाकात हो नहीं पाई.’
औरको की बातों में बच्चों सी कौतुहलता थी. मैंने उनसे पूछा कि क्या तस्वीर लेते समय उन्हें पता था कि ये तस्वीर गुजरात दंगे की पहचान बन जाएगी.
‘सच कहूं तो बिल्कुल भी नहीं. मैं भी बदहवास था. ऐसा माहौल मैंने जिंदगी मे कभी नहीं देखा. बहुत सारे युद्द और त्रासदी मैंने कवर किए हैं पर इन दंगों जैसा भयानक कुछ भी नहीं देखा. और उस समय जब मैंने उस बालकनी पर कुतुबुद्दीन को देखा तो मैंने लगभग दौड़ते हुए वो तस्वीर ली. आसमान काले धुएं से भर गया था, कारो की हेडलाईट जली हुई थी और हिंसक भीड़ के बीच कुतुबुद्दीन के उस चेहरे को मैं नहीं भूल सकता.’
एक प्याली चाय
हम उस जगह पंहुच गए थे. दूर से ही कुतुबुद्दीन दिखे. औरको के चेहरे पर कई भाव आ जा रहे थे.
ये आसान लम्हा नहीं था. औरको ने लपक कर कुतुबुद्दीन से हाथ मिलाया और अपना परिचय दिया. कुतुबुद्दीन थोड़ा हिचके फिर मुस्कुराए. औरको ने कहा, आपको मैं भूल नहीं सकता हूं. मैंने ही आपकी तस्वीर ली थी. हम दोनों कहीं न कहीं जुड़ गए हैं.
दोनों ही अटपटा महसूस कर रहे थे..कितना कुछ था जो जब्त था उनके भीतर. उत्सुक और आतुर भीड़ के बीच वे सबकुछ नहीं कह सकते थे. उन्होंने मुझसे कैमरा बंद करने का आग्रह किया क्योंकि वे सबकी नज़रो से अलग कहीं बैठकर बातें करना चाहते थे.
कुतुबुद्दीन के घर पर चाय के साथ उनकी कई घंटे बाते हुई.

कुतुबुद्दीन और उनकी पत्नी रूकैया दंगों को याद करते हुए आज भी सिहर उठते हैं.
मुझे पता था कि दस सालों का जो कुछ जमा है उसकी परत हटने में काफी वक्त लगेगा पर थोड़ी हरारत शुरू हो चुकी थी.
कुतुबुद्दीन के चेहरे पर मिला जुला भाव था. मैंने पूछा दस साल बाद ये मुलाकात हो रही है जिसका इंतजार आप उस दिन से कर रहे थे, कैसा लग रहा है.
‘खुशी हुई मिलकर, उन्होंने कहा, ‘मिलने के बाद मुझे पता चला कि उस तस्वीर का महत्व क्या है. उस तस्वीर ने दुनिया को गुजरात में जो हो रहा था उससे वाकिफ कराया. मुझे उनसे मिलकर भरोसा हो गया है कि उन्होंने मुझे तकलीफ पहुंचाने के लिए तस्वीर नहीं ली थी. ये तो उनका काम था.
मेरे सवालों का जवाब मिल गया है.मुझे उनसे कोई शिकायत नहीं है. मैं बहुत खुश हूं.’
"मुझे उम्मीद है वे मुझे दोस्त की तरह याद रखेंगे. उस समय मेरी अपनी जिंदगी में बहुत उथल पुथल थी. मेरी मां बहुत बिमार थी. जब तक मैं गुजरात से लौटकर वहां पंहुचा वो कोमा मे चली गईं और मैं उनसे आखिरी बार मिल तक नहीं सका. अगर मैं गुजरात नहीं जाता तो शायद मां से दो बाते कर पाता."
औरको दत्ता, फोटो पत्रकार
शाम घिर आई थी. कुतुबुद्दीन से विदा लेते हुए लगा कि दो लोगों के दस साल का इंतजार खत्म हुआ. कुतुबुद्दीन और औरको दोनों की आखे नम थीं...
औरको लौटते समय गाड़ी में अपने में खोए से थे . ‘मुझे उम्मीद है वे मुझे दोस्त की तरह याद रखेंगे. उस समय मेरी अपनी जिंदगी में बहुत उथल पुथल थी. मेरी मां बहुत बिमार थी. जब तक मैं गुजरात से लौटकर वहां पंहुचा वो कोमा मे चली गईं और मैं उनसे आखिरी बार मिल तक नहीं सका. अगर मैं गुजरात नहीं जाता तो शायद मां से दो बाते कर पाता..’
उम्र भर की पहचान
ट्रैफिक की शोर में बहुत कुछ घुलता जा रहा था. मैं बार बार सोच रही थी कैसे एक तस्वीर ने दो किस्मतों को जोड़ा..दोनों के पास उस तस्वीर से जुड़े नुकसान की लंबी फेहरिस्त है फिर भी दोनो ही उस तस्वीर की पहचान के साथ पूरी उम्र जुड़े रहेंगे!
हाथ बांधे, रूंधी आंखे, बदहवास कुदुबुद्दीन अगर गुजरात दंगो की पहचान न बनते तो शायद लोगों के खौफ की खबर मिलते मिलते बहुत देर हो गई होती.
औरको और कुतुबुद्दीन, पत्रकार और उसके विषय के बीच चलने वाले लंबे द्वंद का हिस्सा भी हैं..
क्या औरको ने बिना कुतुबुद्दीन के इजाजत के वो तस्वीर लेकर सही किया? पता नहीं
Sabhar- bbc.co.uk/hindi.
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