भारत एक लोकतांत्रिक देश है। इस लोक तंत्र के चार स्तंम्भ है - कार्यपालिका, विधायिका,न्याय पालिका व मीडिया। मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ है। आजादी के बाद से ही लोकतंत्र के इस खम्भे को डिगाने के हजारों प्रयास हुए है,किन्तु फिर भी पिछले छह दशकों में मीडिया ने एक हद तक अपने कार्य और व्यवहार को निष्पक्ष रखा है।आज पेड न्यूज को लेकर कुछ एक रसूख वाले लोग हल्ला गुल्ला कर रहें है,तो कुछ एक मीडिया के लोगो ने सरकारी तमगों के लालच में पुस्तकों व इन्टरव्यू आदि रुपों मे मीडिया का गन्दा चेहरा ही दिखाया।
लेकिन मीडिया की साफ सुथरी व निष्पक्ष छवि भी है।क्यों कि मीडिया की जबाबदेही सीधे जनता से है और रोज की है। मीडिया पर कीचड उछालने वाले लोगों से पूछा जाऐ वो जिस पेशे में है क्या वो परी तरह से भ्रष्टाचार मुक्त व सरोकारों से युक्त है?तो जबाब आप सभी को पता है। मै पेड न्यूज को सही नही ठहरा रहा सिर्फ इतना कहना है कि कोइ पेसा, कोइ वर्ग, यहां तक कि समाज के आर्दश नियम कानून सभी में जो गिरावट हुए है वो उजागर है। ऐसे मे मीडिया का भी दामन साफ नही रहा है लेकिन एक हद तक मीडिया और पेसों की तुलना में आज भी निष्पक्ष है,और अपनी जिम्मेदारियां समझता है।
मीडिया के कारण ही इस देश में आज भी रसूख वालों का काला चेहरा भी दिखाइ देता है।मै कहू कि मीडिया पर कीचड उछालने वालों को पहले अपने विभाग,समाज या यूं कह ले अपने आस पास का कीचड देखना चाहिऐ तो क्या गलत है? क्योंकि मीडिया का नियन्त्रण जो सोचते है,वो कही ना कही से मीडिया की निष्पक्षता से डरते है और एक मात्र यही कारण है कि मीडिया नियन्त्रण का ये प्रयास प्रथम प्रेस आयोग बनने के बाद से या यूं भी कह सकते है कि आजादी के बाद से शुरू हो गया था। कुल दीप नैयर ने कितना सटीक लिखा है '' हो सकता है कि प्रेस ने कोइ आर्दश कार्य ना किया हो फिर भी ये एक मात्र ऐसी ऐजेन्सी है,जिसके द्वारा कुछ किया जा सकता है '' वैसे माडिया के द्वारा समाजिक सरोकारों की पूर्ति की जा सकती है। इस बात से किसी को इंकार नही, फिर नियंत्रित मीडिया के लिए फिजूल बहस क्यों?
जवाहर लाल नेहरू जी ने पूरी तरह से स्वतंत्र मीडिया की वकालत की थी और कहा था कि ''मै दबे हुए नियंत्रित समाचारपत्रों के बजाय स्वतन्त्रता के दुरूपयोग के सभी खतरों से युक्त पूर्णत: स्वतंत्र समाचारपत्र अधिक पसन्द करूगां'' और अगर थोडा सा यथार्थ का चश्मा लगाकर देखे तो मीडिया के नियन्त्रण से किसका हित है? क्या नियत्रित मीडिया से किन्ही सामाजिक सरोकारों की पूर्ति होती है?जाहिर सी बात है नियंत्रित मीडिया समाजिक सरोकारों को पूरा करने मे अक्षम होगी। तो फिर फिजूल की ये बहस क्यों ? मीडिया को तो और भी अधिकार देकर मजबूत करने की जरूरत है। क्यों कि हमारी मीडिया को तो केवल आम आदमी के बराबर का ही अधिकार है।और उन पर भी तमाम युक्त युक्त प्रतिबन्ध लगाये गए है। फिर भी आज अपने सरोकारों को संजोए,मीडिया आज भी अपनी जिम्मेदारी समझता है। ( रवि शंकर मौर्य)
Sabhar- Mediakhabar.com
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