लोकसभा या विधानसभा के चुनाव आते ही जहाँ एक तरफ सभी दल और उनके नेता राजनीतिक बिसात बिछाने में मशगूल हो जाते हैं तो दूसरी तरफ खबरिया चैनलों पर चुनावी कार्यक्रमों की झड़ी लग जाती है. इनमें से कुछ कार्यक्रम प्रायोजित भी होते हैं और कुछ का उद्देश्य चैनल को अधिक से अधिक विज्ञापन दिलवाना होता है. वैसे न्यूज़ चैनलों पर चलने वाले ज्यादातर चुनावी कार्यक्रमों का मकसद हंगामा खड़ा करना होता है. क्योंकि इस हंगामे से मिलती है मनमाफिक टीआरपी. ये बात अलग है कि उस हंगामे के शोर में असली मुद्दे स्वाहा हो जाते हैं और चुनावी कार्यक्रम महज सर्कस बनकर रह जाते हैं.
मजेदार तथ्य ये है कि इस चुनावी सर्कस में जोकर की भूमिका में न्यूज़ एंकर होते हैं जिसका काम सवाल – जवाब और असली मुद्दे उठाने से ज्यादा पक्ष-विपक्ष के नेताओं और उनके समर्थकों के बीच तू – तू – मैं – मैं करवाना होता है. अब इस कला में जो जितना पारंगत होगा, उसका कार्यक्रम उतना अधिक हिट होगा और जो हिट होगा वही चुनावी सर्कस में फिट होगा.
शायद न्यूज़ चैनलों के संचालक इसी सोंच के साथ चलते हैं तभी ऐसे कार्यक्रमों के संचालन का ज़िम्मा उन्हीं एंकरों को दिया जाता है जो आक्रामक होने के साथ – साथ तमाशा खड़े करने में भी माहिर होते हैं. इस तरह के कार्यक्रमों के लिए न्यूज़ चैनलों को ऐसे एंकरों की तलाश रहती है जो मजमा भी जमा सके और उकसाकर मुर्गे भी लड़ा सके. यदि इस चक्कर में लातम – जूतम भी हो जाए तो कोई बात नहीं. इसे तो चुनावी सर्कस की सफलता के रूप में देखा जाता है. यही वजह है कि चुनावी कार्यक्रमों में जबरदस्त शोर – शराबा होता है और कई बार मार – पीट की नौबत भी पैदा हो जाती है. यह स्थिति न्यूज़ चैनलों द्वारा जान – बूझकर पैदा की जाती है.
दरअसल न्यूज़ चैनलों पर चलने वाले चुनावी कार्यक्रमों का आजकल यही ट्रेंड बन गया है. हर दूसरे चैनल के राजनीतिक प्रोग्राम में ऐसा ही हो रहा है. खासकर ऐसे कार्यक्रम में जो न्यूज़ स्टूडियो के बाहर आयोजित किये जाते हैं. स्टार न्यूज़ पर चलने वाले कार्यक्रम कौन बनेगा मुख्यमंत्री में 21 फरवरी को ऐसा ही कुछ हुआ. स्टार न्यूज़ का यह शो काफी पुराना है और इसे मशहूर टेलीविजन पत्रकार दीपक चौरसिया पेश करते हैं. लेकिन इसके हरेक एपिसोड में कोई – न – कोई हंगामा होता है. यह हंगामा जान-बूझकर और खास रणनीति के तहत किया जाता है.
21 फरवरी को उत्तर प्रदेश के बुलन्दशहर में कौन बनेगा मुख्यमंत्री के लाइव टेलीकास्ट के दौरान विभिन्न राजनैतिक दलों के समर्थक आपस में भिड़ गए. इस दौरान जमकर लातघूंसे चले और गाली-गलौज भी हुआ. प्रोग्राम के एंकर दीपक चौरसिया के साथ भी भीड़ ने अभद्र व्यवहार व गाली-गालौज किया. बात इतनी अधिक बढ़ गयी कि पुलिस को भीड़ को व्यवस्थित करने के लिए दो बार लाठी चार्ज करना पड़ा. लेकिन स्थिति तब भी नहीं संभली तो कार्यक्रम को समय से पहले ही खत्म कर दीपक चौरसिया को वहां से जाना पड़ा. हालांकि इस तरह के हालात पैदा करने के लिए खुद वे ही जिम्मेदार हैं. इसके पहले कानपुर में भी कुछ ऐसा ही हो चुका था. इसी से खीज कर और लगभग आक्रोशित मुद्रा में अरविन्द त्रिपाठी नाम के एक दर्शक अपनी प्रतिक्रिया देते हुए फेसबुक वॉल पर लिखते हैं – “दीपक चौरसिया की एंकरशिप में स्टार न्यूज का "कौन बनेगा मुख्यमंत्री" का कानपुर में शो हुआ. लोकसभा चुनाव में भी कानपुर में इन्हीं महोदय ने ऐसा ही कार्यक्रम किया था. एक बार उन्होंने फिर जता दिया कि वे बहुत मिस-मैनेज्ड एंकर हैं और केवल और केवल हंगामा खड़ा करना ही इनकी पत्रकारिता का उसूल बन चुका है. पूरे प्रदेश में अब तक कई जगह ये ऎसी ही घटना क्रियेट कर चुके हैं जिसके लिए इन्हें कोई मलाल नहीं है. इनके शो में एक बार फिर कुर्सियां , जूतम - लात सब चला. चश्मदीद बताते हैं कि इस घटना के लिए दीपक चौरसिया बहुत हद तक जिम्मेदार है. वो जानबूझकर ऐसा कर रहे थे कि जनता और नेता गुस्से में आ जाएँ. ये दीपक नहीं इस तरह के चैनलों के लोगों का खेल है.”
वही सतीश चंद्र नाम के एक दूसरे दर्शक टेलीविजन पत्रकारों के इस रवैये से नाराजगी जताते हुए कहते हैं कि मीडिया की मंडी में पत्रकारिता की अर्थी सजाये घूम रहे तथाकथित महान टी.वी.पत्रकारों की भारी भीड़ केंद्र और उत्तरप्रदेश सरकार के भ्रष्टाचार, जानलेवा महंगाई के ज्वलंत मुद्दों को केवल खुद ही नहीं भूली है बल्कि एक साज़िश के तहत इन मुद्दों को भूल जाने के लिए जनता को भी विवश करने में अपनी पूरी ताकत झोंकें हुए हैं.
दर्शकों का यह आक्रोश काफी हदतक ठीक है. पुण्य प्रसून बाजेपयी, अल्का सक्सेना या कुछेक और पत्रकारों के नाम को छोड़ दें तो ज्यादातर मामले में न्यूज़ चैनल के एंकर पॉलिटिक्स का रियल्टी शो पेश करने की जद्दोजहद में लगे रहते हैं. पॉलिटिक्स के इस रियल्टी शो में एक्शन, ड्रामा, राजनीति सब होता है, बस मुद्दे हवा हो जाते हैं. शोर – शराबे वाले ऐसे कार्यक्रमों को देखकर तो यही लगता है कि समाचार चैनलों के लिए चुनाव एक राजनीतिक सर्कस है और चैनलों का ज्यादा जोर इसे भुनाने पर रहता है. ऐसे में चुनावी कार्यक्रम महज चुनावी सर्कस बनकर रह गए हैं.
(मूलतः साप्ताहिक पत्रिका 'इतवार' में प्रकाशित)
परिचय : लेखक मीडिया खबर.कॉम के मॉडरेटर हैं. दिल्ली विश्वविधालय से वाणिज्य विषय में स्नातक. जामिया मिल्लिया इस्लामिया से टेलीविजन पत्रकारिता . दूरदर्शन , आईविज़न न्यूज़ प्राइवेट लिमिटेड और टीवी-9 के साथ पूर्व में काम किया. आईविज़न न्यूज़ / टीवी9 मे रहते हुए,मुंबई में जमकर फ़िल्म पत्रकारिता की . उसके बाद दिल्ली वापस लौटकर मीडिया इंडस्ट्री पर आधारित पत्रिका "मीडिया मंत्र" को शुरू किया. फिर मीडिया खबर.कॉम के माध्यम से ऑनलाइन पत्रकारिता में आ गए. अब ऑनलाइन माध्यम के जरिये प्रयोग जारी है
Sabhar- Mediakhabar.com
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