मीडिया में मेहनत को तवज्जो मिलती है, महिला या पुरुष को नहीं
रितु धवन भारत में न्यूज़ टेलीविजन के क्षेत्र में अनुभवी एवं क्रिएटिव लोगों में शुमार की जाने वाली रितु धवन देश के लोकप्रिय न्यूज चैनल ‘इंडिया टीवी’ की प्रबंध निदेशक और सीईओ हैं। टेलीविजन इंडस्ट्री में 22 वर्षों के अनुभव के बाद भी रितु कैमरा के पीछे काम करना और सुर्खियों से दूर रहना पसंद करती हैं। ‘ब्रिटिश स्काई ब्रॉडकास्टिंग’ लंदन से न्यूज़ प्रोडक्शन की ट्रेनिंग के साथ ही इन्होंने मार्केटिंग एवं एडवरटाइजिंग में डिप्लोमा भी किया है।
भारत में लॉन्च किए गए पहले निजी सेटेलाइट चैनल ‘ज़ी टीवी’ के लिए चीफ प्रोड्यूसर के पद पर कार्य करते हुए रितु धवन ने मार्च 95 में पहला न्यूज़ बुलेटिन तैयार किया। धवन ने 18 वर्षों से प्रसारित लोकप्रिय टेलीविजन शो ‘आप की अदालत’ के निर्माता-निर्देशक के रूप में मीडिया इंडस्ट्री में एक अलग पहचान कायम की है। छह साल पहले उन्होंने अपने पति रजत शर्मा के साथ ‘इंडिया टीवी’ लॉन्च करने में बेहद अहम भूमिका निभाई है।
महिला सशक्तिकरण दिवस के 100 वर्ष पूरे होने पर मीडिया में महिलाओं से जुड़े मुद्दों और चुनौतियों को समाचार4मीडिया के एडिटर नीरज सिंह के साथ बांट रही हैं इंडिया टीवी की सीईओ और मैनेजिंग डायरेक्टर रितु धवन
क्या आप मानती हैं कि मीडिया में वीमेन सशक्त हैं। अगर नहीं हैं तो क्यों ?
मैं व्यक्तिगत रूप से महिला या पुरुष में किसी तरह के भेद के विरोध में हूं। और मीडिया तो ऐसा क्षेत्र है जहां महिला और पुरुष में कोई भी भेद ही नहीं है। मीडिया उन सभी के लिए है जो कड़ी मेहनत करना चाहते हैं और अपने काम के प्रति समर्पित हैं। फिर चाहे वह महिला हो या पुरुष। अगर कोई पुरुष है और इन पैमानों पर खरा नहीं उतरता तो वह कभी सफल नहीं हो पाएगा और बिल्कुल वैसा ही महिला के साथ भी है। मीडिया में होने की जो सबसे बड़ी योग्यता है वह है कड़ी मेहनत।
मीडिया स्टडी ग्रुप साथ ही और लोगों का भी मानना है कि महिला पत्रकारों का हरैशमेंट होता है साथ ही उनकी सुरक्षा को लेकर भी सवाल खड़े हुए हैं
देखिये, मीडिया हो या फिर कोई भी लाइन हो, क्राइम सिटी में बढ़ रहा है तो सबके लिए बढ़ रहा है। फिजिकली डिफरेंस से जुड़े जो अपराध हैं वह समाज में है। तो यह कहना कि मीडिया अनसेफ है मैं ऐसा नहीं मानती। मीडिया हाउस भी किसी शहर के भीतर ही होता है। अगर शहर सुरक्षित है तो मीडिया हाउस भी सुरक्षित हैं। जहां तक बात मीडिया हाउस के भीतर किसी तरह की असुरक्षा की है तो मैं इसे सिरे से नकारती हूं। अगर मैं व्यक्तिगत अनुभव बताऊं तो मैंने अपना कैरियर बतौर ट्रेनी शुरू किया था, लेकिन मैंने कभी इस तरह की किसी मुश्किल का सामना नहीं किया। मैं इस बात से इत्तेफाक जरूर रखती हूं कि दूसरे क्षेत्रों की तुलना में मीडिया का क्षेत्र थोड़ा चैलेंजिंग जरूर है, लेकिन यह दोनों के लिए है। वह फिर चाहे महिला हो या पुरुष। मैंने पहले भी कहा कि यह चैलेंजिंग फील्ड है इसलिए काम करने की मुश्किलों का हरैसमेंट नाम नहीं दिया जा सकता।
इसी से जुड़ा एक सवाल और उठता है कि आधुनिक दौर में मीडिया महिला की छवि को कमोडिटी बना रहा है या फिर उसे ताकतवर बना रहा है ?
देखिए, यह सब कुछ करेक्टर के डायमेंशन पर निर्भर करता है। एक महिला के खुद कितने डायमेंशन हैं। कई बार एक महिला जिस कैरेक्टर में लोगों को कमोडिटी दिखती है, अगले ही किसी कैरेक्टर में वह ताकत का प्रतीक बनकर उभरती है। तो वह कमोडिटी है या ताकत का प्रतीक यह तो देखने वाले की नजर पर निर्भर करता है। यह केवल मीडिया में ही नहीं हर जगह है।
लेकिन क्या आपको नहीं लगता कि मनोरंजन चैनलों में महिला की छवि के सहारे लोकप्रियता बटोरी जा रही है ?
ऐसा हरगिज नहीं है। आपने बिग बास का उदाहरण दिया तो अगर वहां पर पिछले सीजन में डॉली बिंद्रा के सहारे लोकप्रियता हासिल करने की कोशिश हो रही थी तो उसके पहले बिंदू दारा को सिंह के सहारे यही काम हो रहा था। उसे बार-बार रोते हुए या फिर झगड़ते हुए दिखाने को आप क्या कहेंगे। तब तो किसी ने नहीं कहा कि मैन को कमोडिटी बनाया जा रहा है। मीडिया लोगों को छवियां दिखाता है। कमोडिटी नहीं बनाता।
लेकिन मीडिया में वीमेन के सफल होने का या फ्रंटलाइन पर आने का जो रेशियो है वह दूसरे क्षेत्रों की तुलना में मीडिया में कम क्यों है ?
सांस्कृतिक रूप से देखें तो अपने देश में महिलाओं को आगे आने और समाज के साथ चलने का मौका देर से मिला। हां, यह जरूर है कि महिलाओं को फ्रंटलाइन पर आने में देर लगी, लेकिन इसका यह मतलब कतई नहीं है उनकी जगह पर कोई कब्जा जमाए बैठा है। या फिर वे उस जगह तक पहुंचने में सक्षम नहीं हैं। अब यह अंतर खत्म हो रहा है। अब चूल्हा-चौका को केवल महिलाओं से जोड़कर नहीं देखा जा सकता। पुरुष भी शेफ के तौर पर नजर आ रहे हैं। जैसे-जैसे समाज खुल रहा है मीडिया में लीडिंग रोल में महिलाओं की भूमिका बढ़ रही है। बरखा दत्ता, सौम्या वर्मा, निधि राजदान जैसे कई नाम है जो एडिटोरियल लीड कर रही है।
लेकिन प्रिंट में यह नाम कम क्यों हैं?
प्रिंट काफी काफी पारंपरिक मीडियम है और जैसा मैंने पहले भी कहा कि अपने समाज में महिलाओं को आगे बढ़ने का मौका थोड़ी देर से मिला। तुलनात्मक रूप से इलेक्ट्रानिक मीडिया अभी नया है. उस दौर का है जब महिलाएं भी तेजी से समाज के फलक पर उभरने लगी हैं इसलिए यहां पर यह नाम ज्यादा दिखते हैं।
टीवी की ओर महिलाओं के रूझान की एक बड़ी वजह ग्लैमर तो नहीं है ?
आज ज्यादातर लोग इलेक्ट्रानिक मीडिया की ओर ही जाना चाहते हैं फिर चाहे वो मेन हों या वूमेन। आप किसी भी युवा से पूछिए तो उसकी पहली पसंद इलेक्ट्रानिक मीडिया ही रहेगी न कि प्रिंट मीडिया। तो चाहत सभी के भीतर है केवल महिलाओं के भीतर ही नहीं ।
समाज में दूसरे भी ऐसे क्षेत्र हैं जहां महिलाओं की भूमिका दूसरी पंक्ति में ही शुरू होती है, जैसे सेना में महिलाएं हैं, लेकिन युद्ध के समय में उन्हें फ्रंट पर कम ही भेजा जाता है। आपको लगता है कि उन क्षेत्रों में महिलाओं को आगे आने का मौका दिया जाना चाहिए ?
बिल्कुल दिया जाना चाहिए। यह बात सही है कि शारीरिक रूप से महिला और पुरुष में फर्क है। इसलिए हो सकता है कि कुछ क्षेत्र ऐसे हों जो महिलाओं के लिए फिजिकली सूटेबल न हों। लेकिन उनकी भूमिका वहां स्ट्रैटजिक या प्लानर के रूप में होती है। और यह भूमिका भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। इसे जेंडर बायस के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए। अगर बायोलॉजिकल रीजन से कोई फर्क होता है तो वह बायस नहीं है। और ऐसा भी नहीं है कि महिलाएं फ्रंट पर नहीं जा सकती। जो जाना चाह रहा है उसे कोई रोक थोड़े ही रहा है।
क्या आप लगता है कि महिला आरक्षण के माध्यम से महिलाओं को मजबूत किया जा सकता है?
मैं महिला या पुरुष में किसी तरह के भेद या जेंडर बायस में विश्वास नहीं करती। जो कोई भी योग्य है वह कहीं भी पहुंच सकता है। संसद की बात करें तो इस बात कोई गारंटी नहीं है कि वहां पर जो लोग पहुंचते हैं वे योग्य ही होते हैं। देश का भला ही करते हैं। यह बात महिला और पुरुष दोनों के लिए लागू होती है। संसद में आरक्षण की बात आपने कही तो संसद ईमानदार और योग्य लोगों के लिए रिजर्व हो। रिजर्व हो मतलब ऐसे लोगों को वहां पहुंचाया जाए। न कि जेंडर के आधार पर। आप दोनों को समान मानते हैं। दोनों में समान योग्यताएं और ताकत हैं। जो जहां बेहतर कर सकता है उसको वहां पहुंचने का मौका दीजिए। समूचा विश्व हमारी ओर उम्मीदों से देख रहा है और हम लोग अभी महिला-पुरुष, जाति, नस्ल और रंग जैसे मुद्दों को ही ढो रहे हैं। जरूरत है ऐसे मुद्दों से ऊपर उठकर देश को आगे बढ़ाने की।
एक कहावत है कि आदमी की सफलता के पीछे औरत का बड़ा हाथ होता है। रजत जी की सफलता के पीछे आपका कितना योगदान रहा है?
(हंसते हुए)। इस सवाल का जवाब तो रजत जी दे सकते हैं। आप उन्हीं से पूछिए। (इंटरव्यू के दौरान रजत जी भी वहां मौजूद थे। इसके जवाब में उन्होंने कहा।) रजत शर्मा- रितु जी का मेरे जीवन में जो रोल है वह इसलिए नहीं कि वह महिला हैं या मेरी पत्नी हैं। मेरे लिए रितु हमेशा ही एक सहयोगी की भूमिका में रही हैं। हमने मिलकर काम किया है। जब मैंने आप की अदालत करना शुरू किया था उस समय मैं अकेला था, लेकिन जब चार-छह प्रोग्राम हो गए थे, तब से हम दोनों ने साथ काम करना शुरू किया था। साथ में काम करने में जो इन्ज्वायमेंट है वही हमारी ताकत है। कई सारे ऐसे एरिया मैं गिना सकता हूं जिन्हें बेहतर बनाने में इन्होंने मेरी मदद की। मेरे लुक्स में, मेरे प्रजेंटेशन में। चूंकि इनका काम प्रोडक्शन का है इसलिए मेरे आउटपुट में इन्होंने काफी मदद की। हम दोनों ने साथ मिलकर चुनौतियों का सामना किया है। हो सकता है कि अगर मैं अकेले होता तो इतना साहस न जुटा पाता कि एक चैनल खड़ा कर दूं। यह जो टुगेदरनेस है इसने हमारी बहुत मदद की।
रितु - मैं रजत जी के इस शब्द टुगेदरनेस से पूरी तरह सहमत हूं। क्योंकि यह तो कहावत होती है कि पुरुष की सफलता के पीछे महिला का हाथ होता है, लेकिन मैं आपको हमारे अनुभवों के आधार पर बताऊं तो किसी के पीछे होने से कुछ नहीं हो जाता। आप एक दूसरे को सपोर्ट करते हैं तभी सफलता मिल पाती है। हमें साथ काम करते हुए 18 साल हो गए। आप एक दूसरे को सपोर्ट करते हैं, मुश्किलों का सामना करते हैं। तभी कुछ हासिल हो पाता है। और यह महिला या पुरुष दोनों की सफलता के लिए है। परस्पर सहयोग से ही आप दूर तक जा सकते हैं।
रजत शर्मा- अभी आपने पूछा तो मैं सोच रहा था कि इनका योगदान क्या रहा। तो मैं एक आलोचक के तौर पर इनकी बड़ी भूमिका देखता हूं। कोई आदमी कहीं कोई गलती कर रहा है और कोई उसको बताए कि आप यहां पर गलती कर रहे हैं आपको यह सुधार करना चाहिए। तो मेरा मानना है कि किसी के लिए भी यह बड़ी नियामत है कि उसको ऐसा क्रिटीक मिल जाए जो सच्चे दिल से आपकी आलोचना करे। मैं जो भी करता हूं उसमें इनका क्रिटिकल एनालिसिस रहता है। किसी थॉट प्रोसेस या फिर कोई डिसीजन लेने में भी ऋतु जी ने मेरी हमेशा मदद की है।
चैनल में आपकी दखल किस लेबल पर है? पॉलिसी मेकिंग की है, एडिटोरियली है या फिर प्रोडक्शन के स्तर पर है।कई तरह के रोल हैं?
रजत जी पत्रकार हैं मैं पत्रकार तो हूं नहीं। रजत जी ही एडिटोरियल हेड हैं। मैं प्रोडक्शन और टेक्निकल को हेड करती हूं। जो भी प्लानिंग और स्ट्रैटजी है उसको हम साथ ही डिस्कस करते हैं। फाइनेंस और दूसरे मैनेजमेंट मैं देखती हूं, लेकिन किसी भी स्ट्रैटजी पर हम साथ ही काम करते हैं।
आपके लेबल पर चैनल को लेकर क्या नयी योजानाए हैं?
जल्द ही हम कुछ नए चैनल शुरू करने वाले हैं। ज्यादा कुछ अभी इस बारे में नहीं कहा जा सकता। वक्त आने पर हम इसे आपके साथ शेयर करेंगे। हम जल्द ही एक टेलीविजन इंस्टीट्यूट भी शुरू करने वाले हैं। इसका नाम आईटीवीआई होगा। इंडिया टीवी इंस्टीट्यूट।
मीडिया में आप किसी को आइकॉन चुनना चाहें तो किसका नाम लेंगी। और महिला ऑइकॉन कौन है?
कई ऐसे नाम हैं जैसे रुपर्ट मर्डोक। दूसरा सवाल कि महिला ऑइकॉन। तो मैं जब ऑइकॉन की बात करती हूं तो वह ऑइकॉन है महिला या पुरुष नहीं। मैं उसका नाम लेना चाहूंगी जो वास्तव में ऑइकॉन है। यह कहना मेरी निगाह में ठीक नहीं कि उस पुरुष की तरह या उस महिला की तरह।
आप टॉप पोजीशन पर हैं। आपके कई तरह के रोल हैं, ऐसे में ऑफिस और घर दोनों किस तरह से मैनेज करती हैं?
केवल मैं ही नहीं जो कोई भी बिजी लाइफ में है उसके कई रोल होते हैं। एक पुरुष भी जो ऑफिस जा रहा है वह भी एक पिता है एक पति है। वैसे ही सारे रोल महिला के भी हैं। आपको यह सब कुछ जितना फिजिकली हैंडल करना होता है उतना ही इंटेलीजेंटली भी हैंडल करना होता है। तो जो भी महिलाएं टॉप पोजीशन पर हैं वे ऑफिस को इंटेलीजेंटली हैंडल करती हैं और फिर वैसे ही घर को भी इंटेलीजेंटली संभालती हैं।
तो फिर प्रोफेशनल और पर्सनल लाइफ में बेहतर कौन होता है। महिला या पुरुष?
यहां भी मैं वही बात कहूंगी कि अगर आप योग्य हैं तो आप अपनी हर जिम्मेदारी को बेहतरी के साथ निभा लेंगे। इसलिए वहां पर भी महिला और पुरुष के भेद करने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी।
महिला सशक्तिकरण दिवस पर आपका संदेश।
मेरा संदेश है कि महिला और पुरुष में भेद करके देखना बंद हो। सबको इंसान समझ के सोचिए। जेंडर भेदभाव खत्म हो तभी महिला मजबूत होगी।
Sabhar- Samachar4media.com
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