उभारो की सनक इंडिया टुडे में तेज गति से फ़ैल रही है इंडिया टुडे पत्रिका में उभारो के बारे में कवर पेज पर किसी लोंडिया के उभारो को दर्शया जा रहा है । आखिर क्या मकसद है थोडा सा समझ से परे है । मीडिया का गिरता ग्राफ -घटिया सोच उभारो की सनक पैदा कर रहा है । ऐसे लेखो का जन्मदाता कौन है । आखिर क्यों सनक पैदा हो जाती है । क्या यह पागलपन है । जब मैंने मीडिया दलाल शुरू किया , देश के बड़े बड़े पत्रकारों के फ़ोन आये अरे यार ये मीडिया के आगे दलाल क्यों लगा दिया कुछ और लगा लेते तो अच्छा भी लगता है आपने तो पूरी पत्रकार जगत को दलाल बना दिया ।
जब मीडिया दलाल के बारे में विचार कर रहा था तभी दिमाग में मीडिया के धूर्त पत्रकारों की छवि उभर कर सामने आयी थी जो पैसे के लिए अपने जमीर को नीलाम करने पर उतारू है । नेताओ ने तो देश को बेच रहे है मगर मीडिया अपने आप को ही बेच रहा है । हर बार बेचने का रूप बदलता रहा है । मीडिया की बाजार में हर बिकने को तैयार है मगर ग्राहक तो मिले यार ? खैर शुक्रगुजार हु उन पत्रकारों का जो अपना जमीर नहीं बेच रहे है कम पैसे में जिन्दगी बसर कर रहे है ?
मुझे मालूम है आने वाला समय पत्रकारिता का नहीं बल्कि दलालों का होगा जो खुले आम मीडिया की कालाबाजारी करेगे ,चाहे उसके लिए अपना घर - सम्मान सब कुछ खोना पड़े । आखिर वो है तो दलाल पत्रकार ।
सुशील गंगवार
मीडिया दलाल डाट . कॉम
बॉलीवुड दलाल डाट .कॉम
गैर-द्विज पत्रकार को अश्लीलता के चक्रव्यूह में घेरा गया है!
47 के पहले, 90 के बाद | पत्रकारिता में अश्लीलता और सामाजिक न्याय का सवाल
♦ प्रमोद रंजन
अविनाश जी, मोहल्ला पर आज इंडिया टुडे की ‘कथित अश्लील’ स्टोरी पर फेसबुक पर चली बहस देख रहा था। कई प्रबुद्ध लोगों ने इस बहस में भाग लिया है। सब को तो नहीं, लेकिन अधिकांश पढ़ गया। अधिकांश ने बहुजन समाज से आने वाले पत्रकार मित्र दिलीप मंडल की लानत-मानत की है। आपने फेसबुक पर अपनी टिप्पणी में तंज किया है कि ऐसे ‘अश्लील’ पत्रकार को फारवर्ड प्रेस ने सम्मानित किया।
अश्लीलता को लेकर मेरा नजरिया अलग रहा है। जरा, गाव-तकिया लगाकर अपनी कोठी की ड्योढ़ी पर नाच देख रहे सामंत के नौकर-नौकरानियों की नजर से भी इसे देखें। देखिए, वे पान पहुंचाने आते है, शराब की बोतल मालिक के सामने रखते हैं और कनखियों से नाच को देखते हैं। कोठी की नौकरानियां छुप-छुप कर देखने की कोशिश कर रही हैं। ये वे भाग्यशाली लोग हैं, जो कनखियों से भी देख पाते हैं। वरना, गांव के अन्य लोग तो बस उस गाड़ी को ही देखकर संतोष कर लेते हैं, जिसके पर्दे के भीतर लाल पान की बेगम गुजरती है।
बहरहाल, एक लेख जो काफी पहले मेरी पुस्तिका ‘मीडिया में हिस्सेदारी’ में संकलित था, भेज रहा हूं। उम्मीद करता हूं यह इस बहस को आगे बढ़ाएगा।
प्रमोद रंजन [ हिंदी संपादक, फारवर्ड प्रेस ]
…
आपने बहुत ही अच्छे से इस बहस को आगे बढ़ाया है। इसको छापता हूं। हालांकि हमने अश्लीलता को लेकर नजरिये पर बात नहीं की है। बात ये की है कि एक पत्रकार जिस सरकम्सटांसेज की वजह से कॉरपोरेट मीडिया को अंडरवर्ल्ड कहता है और फिर उसी अंडरवर्ल्ड का सदस्य हो जाता है… न सिर्फ सदस्य हो जाता है, अपने पुराने स्टैंड से विपरीत आचरण करता है, नीतीश कुमार और अन्ना हजारे को समाज का हीरो बताता है और स्तन की सर्जरी से जुड़ी गतिविधियों को आवरण कथा जैसा अहम विषय मानता है। दिलीप मंडल जी से पहले भी इंडिया टुडे ये करता था – लेकिन हम बात ये करना चाहते हैं कि दिलीप मंडल एक पत्रकार, एक संपादक के तौर पर वहां क्या स्टैंड ले रहे हैं?
अविनाश [ मॉडरेटर, मोहल्ला लाइव ]
…
मीडिया के बाजारवाद के खतरे और दुष्परिणाम बहुआयामी हैं। नयी तकनीक ने कई मायनों में ब्राह्मणवाद के अस्त्र के प्रभाव को व्यापक बनाया है। लेकिन क्या कारण है कि इसके दुष्परिणामों में से सिर्फ एक – स्त्री शरीर के प्रदर्शन को ही चिन्हित किया जाता है? वस्तुतः यही वह दुष्परिणाम है, जिससे सबसे ज्यादा भारत का सामंती समाज प्रभावित हुआ है। अन्यथा इस बाजारवाद ने अनेक प्रकार की मनोरंजन-विधियों, जो सिर्फ धनिकों तक सीमित थीं, की पहुंच बहुसंख्यक लोगों तक संभव कर दी है।
मीडिया के बाजारवाद के खतरे और दुष्परिणाम बहुआयामी हैं। नयी तकनीक ने कई मायनों में ब्राह्मणवाद के अस्त्र के प्रभाव को व्यापक बनाया है। लेकिन क्या कारण है कि इसके दुष्परिणामों में से सिर्फ एक – स्त्री शरीर के प्रदर्शन को ही चिन्हित किया जाता है? वस्तुतः यही वह दुष्परिणाम है, जिससे सबसे ज्यादा भारत का सामंती समाज प्रभावित हुआ है। अन्यथा इस बाजारवाद ने अनेक प्रकार की मनोरंजन-विधियों, जो सिर्फ धनिकों तक सीमित थीं, की पहुंच बहुसंख्यक लोगों तक संभव कर दी है।
1. ‘(सामाजिक) सुधारों को आगे बढ़ाने की पहली शर्त समाज में ब्राह्मणों का नेतृत्व कायम करना है। यह देश जब सुधरेगा, तब इसी से सुधरेगा।’
1890 में प्रतापनारायण मिश्र (ब्राह्मण और हिंदुस्तान के संपादक) (1)
2. ‘संवाद मिला है कि एक किसान अपनी गऊएं लेकर पाली जा रहा था, उसने कुएं में गिरकर प्राण दे दिये। कुएं के मालिक से गऊओं को पानी पिलाने के लिए कहा गया किंतु वह अधिक गऊओं को पानी पिलाने में असमर्थ था। गऊओं का दुख किसान से देखा नहीं गया और कुएं में कूद कर प्राण दे दिये।
शहर के दानी सज्जनों द्वारा सेवा संघ को गऊओं की सेवा के लिए काफी सहायता प्राप्त हो रही है। कुछ व्यक्तियों ने अन्यत्र सेवा भी आरंभ कर दी है। पड़ोस के गोदवाड़ प्रांत से भी गऊएं आ रही हैं।’
29 जुलाई, 1939 को दैनिक हिंदुस्तान में प्रकाशित समाचार (2)
3. ‘इस देश में पैदा हुए नवधनिकों ने दूरदर्शन को अपने मनोरंजन और मुनाफा का माध्यम बना लिया है। जैसे फाइव स्टार होटलों का जूठा और बचा हुआ खाना भिखमंगों और भूखों में बंटता है, उसी तरह शहरी नवकुलीन वर्ग की जूठन आज देश के गांवों में 173 लो पावर ट्रांसमीटरों के जरिये परोसी जा रही है।’
1986 में कथाकार कमलेश्वर (3)
4. ‘एक राष्ट्र में एक संविधान, एक भाषा, एक राष्ट्रीय ध्वज तो एक राष्ट्रधर्म क्यों नहीं? एक राष्ट्र धर्म समय की मांग है।’
29 जुलाई, 2009 को दैनिक जागरण में प्रकाशित समाचार का अंश (4)
…
पहला उद्धरण उत्त्र भारतीय पत्रकारिता के आरंभिक दौर का है, जबकि दूसरा स्वतंत्रता प्राप्ति से थोड़ा पहले का। तीसरे उद्धरण में कमलेश्वर ने भारत में दूरदर्शन की शुरुआत के कुछ साल बाद आयी विकृतियों का जिक्र किया है। और चौथा उद्धरण आज का है – आज, यानी 29 जुलाई, 2009, जिसकी उमस भरी सुबह मैं यह लेख लिख रहा हूं।
पहला उद्धरण उत्त्र भारतीय पत्रकारिता के आरंभिक दौर का है, जबकि दूसरा स्वतंत्रता प्राप्ति से थोड़ा पहले का। तीसरे उद्धरण में कमलेश्वर ने भारत में दूरदर्शन की शुरुआत के कुछ साल बाद आयी विकृतियों का जिक्र किया है। और चौथा उद्धरण आज का है – आज, यानी 29 जुलाई, 2009, जिसकी उमस भरी सुबह मैं यह लेख लिख रहा हूं।
हिंदी पत्रकारिता के पिछले 150 सालों में क्या बदला है?
यहां हम इस अवधि के बीच आये वर्ष 1949 को याद कर सकते हैं – उस साल 26 नवंबर को हमने एक महान संविधान आत्मार्पित करते हुए खुद से कहा था :
‘हम भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए, तथा उसके समस्त नागरिकों को : सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए, दृढ़ संकल्प होकर… इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।’ (5)
…
‘समस्त नागरिकों’ को विचार, अभिव्यक्ति और विश्वास की भी स्वतंत्रता! इन 60 सालों में यह स्वतंत्रता किन तबकों को उपलब्ध रही है? 1890 में भी तो यह स्वतंत्रता थी। उस समय सामाज सुधार का मतलब था, ब्राह्मणों का नेतृत्व कायम करना। आज कहा जा रहा है, ‘एक राष्ट्र में एक संविधान, एक भाषा, एक राष्ट्रीय ध्वज तो एक राष्ट्रधर्म क्यों नहीं?’ महज शब्द बदले हैं, साजिश वही पुरानी है। ब्राह्मण धर्म की पुर्नस्थापना।
‘समस्त नागरिकों’ को विचार, अभिव्यक्ति और विश्वास की भी स्वतंत्रता! इन 60 सालों में यह स्वतंत्रता किन तबकों को उपलब्ध रही है? 1890 में भी तो यह स्वतंत्रता थी। उस समय सामाज सुधार का मतलब था, ब्राह्मणों का नेतृत्व कायम करना। आज कहा जा रहा है, ‘एक राष्ट्र में एक संविधान, एक भाषा, एक राष्ट्रीय ध्वज तो एक राष्ट्रधर्म क्यों नहीं?’ महज शब्द बदले हैं, साजिश वही पुरानी है। ब्राह्मण धर्म की पुर्नस्थापना।
विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सामाजिक आधार नहीं बदला है। भारत में द्विज हिंदू न सिर्फ पत्रकारिता के माध्यम से एक राष्ट्र-एक धर्म की जरूरत बता रहे हैं, बल्कि न्यायपालिका के माध्यम से भी वर्ण व्यवस्था को मजबूत करने वाली गीता को राष्ट्रीय धर्म शास्त्र माने जाने का उद्घोष कर रहे हैं। (6) … यानी संविधान की रखवाली करने वाली दोनों संस्थाएं कमोबेश द्विज ‘विचारों’ को अभिव्यक्त कर रहीं हैं।
क्या यह सिर्फ द्विजों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मामला है? मीडिया संस्थानों में द्विजों का कब्जा है, इसलिए वे अपनी सांस्कृतिक जरूरतों, आकांक्षाओं को अनायास अधिक स्पेस देते रहे हैं?
अगर सिर्फ ऐसा ही है, तो 29 जुलाई, 1939 के दूसरे उद्धरण में अखबार अपना आशय व्यक्त करने के लिए छल का सहारा लेता क्यों दिखता है? गायों को पानी न मिलने पर कोई कुंए में तो नहीं ही कूदेगा। ‘खबर’ गोरक्षा आंदोलन के पक्ष में हवा बनाने के लिए लिखी गयी है। यह उसकी अगली पंक्तियों से भी साफ हो जाता है। गोरक्षा आंदोलन द्विज हिंदुओं के सांस्कृतिक-राजनीतिक प्रभुत्व का आंदोलन था।
ध्यान इस पर दिया जाना चाहिए कि इस छल में आलंबन ‘किसान’ को क्यों बनाया गया है। सामान्य तौर पर इस काल्पनिक खबर में कोई ब्राह्मण गौ-व्यथा में कुंए में कूद पड़ता तो ज्यादा तर्कसंगत होता। इससे ब्राह्मण जाति का गौरव बढ़ता। लेकिन इस समाचार का उद्देश्य इससे अधिक दूरगामी है। इसे किसान, जो मुख्यतः गैर-द्विज, पिछड़ी जातियों का समूह रहा है, को निशाने पर रख कर लिखा गया है। उद्देश्य है किसान जातियों का द्विज-हितों के पक्ष में मानसिक अनुकूलन। यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का छलपूर्ण नमूना भर नहीं है बल्कि द्विजों के सांस्कृतिक-राजनीतिक प्रभुत्व के लिए भारतीय पत्रकारिता द्वारा चलायी जाने वाली अनवरत कवायद का हिस्सा है।
कहने की जरूरत नहीं कि कवायद आज भी जारी है। समाचार माध्यम वंचित तबकों की सामाजिक-राजनीतिक सक्रियताओं को दिग्भ्रमित करने, इनके नायकों को श्रीहीन करने, इनके पक्ष में जाने वाले तथ्यों को अंडरप्ले करने और द्विज प्रभुत्व को चुनौती देने वाले तर्कों को डायल्यूट करने की मुहिम में जुटे हैं।
तो; क्या बदला है? वास्तव में यही वह सवाल है, जिसे हमें भारतीय पत्रकारिता पर चर्चा के आरंभ में पूछना चाहिए। क्या पत्रकारिता आजादी के बाद पतित हुई है? क्या पत्रकारिता ज्ञान की सत्ता का ही एक हिस्सा नहीं, जिसके चारों ओर द्विजों ने चारदीवारियां खींच रखी थीं और जिसका दुरुपयोग वे 1947 के बहुत पहले से और उसके बाद भी अपनी सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक सत्ता को बचाये रखने, पुर्नस्थापित करने के लिए करते रहे हैं?
बदलाव भारतीय प्रेस की मानसिकता में नहीं, तकनीक में हुआ है। यह दुनिया के पहले अखबार के प्रकाशन का 400वां साल है। जर्मनी में सामान्य अभिरुचि का पहला अखबार ‘अविका रिलेशंस ओडर जोइतुंग’ 1609 में शुरू हुआ था। इसके लगभग 200 साल बाद भारत में अखबारों का छपना शुरू हुआ। संचार व्यवस्था की अद्यतन प्रौद्योगिकी के लिए भारत हमेशा यूरोप का मुखाक्षेपी रहा है। जबकि वहां ‘दूसरे विश्वयुद्ध से लेकर आज तक प्रौद्योगिकी – खासकर संचार की प्रौद्योगिकी – की परिकल्पना और उसका विकास पूंजीवाद के हितों और उसकी विशेष जरूरतों से जुड़ा रहा है।’ (7) … ब्रिटिश चिंतक रेमंड विलियम्स ने भी तर्कपूर्ण ढंग से प्रमाणित किया है कि ‘रेडियो और दूरदर्शन के प्रसारण का आरंभ और विकास बाजार द्वारा शासित विकास का अनिवार्य परिणाम है’। (8)
मीडिया के बाजारवाद के खतरे और दुष्परिणाम बहुआयामी हैं। नयी तकनीक ने कई मायनों में ब्राह्मणवाद के अस्त्र के प्रभाव को व्यापक बनाया है। लेकिन क्या कारण है कि इसके दुष्परिणामों में से सिर्फ एक – स्त्री शरीर के प्रदर्शन को ही चिन्हित किया जाता है? वस्तुतः यही वह दुष्परिणाम है, जिससे सबसे ज्यादा भारत का सामंती समाज प्रभावित हुआ है। अन्यथा इस बाजारवाद ने अनेक प्रकार की मनोरंजन-विधियों, जो सिर्फ धनिकों तक सीमित थीं, की पहुंच बहुसंख्यक लोगों तक संभव कर दी है। निश्चित तौर पर यह छलावा पिछड़ी और दलित जातियों का ध्यान मूल मुद्दों से भटकाता है, उन्हें यथास्थिति के लिए अनुकूलित करता है और उनकी संघर्ष चेतना को कुंद कर उन्हें अराजनीतिक बनाये रखने की साजिश में शामिल रहता है। वह इन तबकों में परिवर्तनकामी बौद्धिक विकास को बाधित करता है तथा इनके नायकों की पहचान को धुंधला कर डालता है। किंतु, ये बातें इस देश में बाजारवाद के खतरे और दुष्परिणामों पर विमर्श का हिस्सा नहीं बनतीं।
यूरोपीय बाजार द्वारा शासित मास-मीडिया की तकनीक ‘बाजारवाद’ के साथ 1990 में भारत पहुंची थी। उसी साल पहली बार विदेशी समाचार चैनल सीएनएन ने कदम रखा। 1991 में यहां दुनिया के सबसे विशाल टीवी नेटवर्कों में से एक स्टार टीवी की शुरुआत हुई। उसके बाद से देशी-विदेशी निजी टेलीविजन केबल नेटवर्कों का जाल फैलता गया।
माना जाता है कि इन परिवर्तनों के कारण 1990 के बाद से भारत के मीडिया का चरित्र बदलने लगा। यह सच है कि भारत की द्विज पत्रकारिता 1990 के बाद से बाजार का आदेश अधिक से अधिक मानने के लिए उत्त्रोत्त्र मजबूर होती गयी है। लेकिन इससे पहले भारतीय अखबार और सरकारी ‘दूरदर्शन’ किनके हितों के लिए काम कर रहे थे? इसका उत्तर इस लेख के आरंभ में दिये गये तीसरे उद्धरण से मिल सकता है। कमलेश्वर का यह लेख (‘दूरदर्शन की भूमिका’) रविवार के 7-13 दिसंबर, 1986 अंक में प्रकाशित हुआ था। यही नहीं कि यह लेख 1990 के चार साल पहले छपा था बल्कि जाहिर तौर पर, इसमें वर्णित दूरदर्शन के ‘पतित’ होने की घटना उससे काफी पहले की है। कमलेश्वर दूरदर्शन की शुरुआत (1959) के समय से ही प्रथम स्क्रिप्ट राइटर के तौर पर उससे जुड़े थे और बाद मं एडीशनल डायरेक्टर जनरल तक बने। कमलेश्वर बताते हैं कि भारत में दूरदर्शन का उद्घाटन करते हुए प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इसके लक्ष्यों को एकदम स्पष्ट रखा था। नेहरू ने कहा था कि भारत जैसे देश में दूरदर्शन की उपयोगिता के सामाजिक लक्ष्य तय करने होंगे, तभी इस पर होने वाले खर्च को ‘सामाजिक आमदनी’ के रूप में प्राप्त किया जा सकेगा। उन्होंने दूरदर्शन का लक्ष्य ‘सामाजिक परिवर्तन’ लाने वाले माध्यम के रूप में तय किया था। इसे देश में सामाजिक, आर्थिक और वैज्ञानिक परिवर्तनों के लिए जमीन तैयार करनी थी। इसके जरिये पुरातन और विषमता पीड़ित देश की मानसिक, वैचारिक और सामाजिक गरीबी मिटायी जानी थी। सदियों के पागलखाने से उन तंदुरुस्त लोगों को बाहर निकाला जाना था, जो स्वस्थ थे, पर पागलों का पथ्य खाते-खाते खुद पागल होते जा रहे थे। (9) … लेकिन नेहरू द्वारा तय किये गये इन लक्ष्यों का क्या हश्र हुआ? प्रारंभिक दिनों में नेहरू के लक्ष्यों के अनुसार ‘नयी मानसिकता के निर्माण का काम दूरदर्शन ने शुरू किया’। लेकिन यह सब ज्यादा समय तक नहीं चल सका। कुछ ही समय बाद दूरदर्शन ‘75 प्रतिशत गरीबों को 5 प्रतिशत शहराती कुलीनों की सांस्कृतिक जूठन खाने के लिए मजबूर’ करने लगा। ‘सदियों की सभ्यता और संस्कृति का वह सफर, जो इस देश में भयानक विषमताओं को जन्म देकर भी सही दिशा की ओर जाने के लिए प्रतिबद्ध और तत्पर हुआ था, वह सफर और उसकी दिशा ही बदल’ दी गयी। और यह सब हुआ 1990 से बहुत पहले। उस समय बहुराष्ट्रीय मीडिया हाउस नहीं थे। तो फिर किन ताकतों की रुचि इसमें थी कि दूरदर्शन ‘सामाजिक परिवर्तन’ का माध्यम न बन सके? कमलेश्वर कहते हैं कि वे ‘इसी देश में पैदा हुए नवधनिक’ थे। (10)
अपवादों से इनकार न करने के बावजूद वस्तुनिष्ठ तथ्य यह है कि भारतीय मीडिया के चरित्र में बदलाव को चिन्हित करने के लिए 1947 या 1990 आदि को पैमाना नहीं बनाया जा सकता। जैसा कि मैंने पहले कहा 1990 में परिवर्तन उसके मूल चरित्र में नहीं, प्रौद्योगिकी में आया था। पत्रकारिता आरंभ से ही द्विजों के कब्जे में रही है। भारत के इस पारंपरिक प्रभुवर्ग ने हर दौर में अपने हितों के लिए इस अस्त्र का इस्तेमाल किया है। स्थितियां आज भी बदली नहीं हैं।
संदर्भ व टिप्पणियां
(1) प्रतापनारायण मिश्र ग्रंथावली, नागरी प्रचारिणी सभा, काशी। प्रताप नारायण मिश्र आधुनिक हिंदी के निर्माताओं की वृहत्त्रयी (भारतेंदु, बालकृष्ण भट्ट, प्रताप नारायण मिश्र) में से एक थे। उन्होंने ब्राह्मण पत्र का प्रकाशन 15 मार्च, 1883 ई में प्रारंभ किया था। सन् 1894 ई तक यह प्रकाशित हुआ। बीच में कुछ दिनों के लिए मिश्र कालाकांकर से प्रकाशित होनेवाले ‘हिंदुस्तान’ में संपादक होकर चले गये थे। ब्राह्मण और हिंदी प्रदीप (सं बालकृष्ण भट्ट) उस युग के प्रमुख पत्र थे, जो उग्र राजनीतिक धारा के लिए जाने जाते थे, हिंदी साहित्य कोष, ज्ञानमंडल
(2) पुनर्प्रकाशित, दैनिक हिंदुस्तान, 29 जुलाई, 2009
(3) कमलेश्वर, ‘दूरदर्शन की भूमिका’। रविवार, 7-13 दिसंबर, 1986
(4) दैनिक जागरण, पटना संस्करण में प्रकाशित समाचार ‘एक राष्ट्रधर्म घोषित करे सरकार’, 29 जुलाई, 2009
(5) भारतीय संविधान की उद्देश्यिका
(6) इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश एसएन श्रीवास्तव ने 30 अगस्त, 2007 को दिये एक फैसले में गीता को राष्ट्रीय धर्मशास्त्र घोषित करने को कहा है। इस फैसले से संबंधित षड्यंत्र का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि इसके महज चार दिन बाद 4 सितंबर, 07 को श्रीवास्तव का सेवाकाल समाप्त हो रहा था। इतना ही नहीं, मीडिया में यह खबर उनकी सेवानिवृत्ति के 7 दिन बाद 11 सितंबर, 2007 को अचानक जोर-शोर से उछाली गयी। 12 सितंबर, 2007 को विश्व हिंदू परिषद ने सेतु समुद्रम परियोजना के विरोध में भारत बंद का आह्वान किया था। इस तरह, यह खबर अपना अपेक्षित प्रभाव छोड़ने में भी सफल रही और भारत बंद के हो-हंगामे के कारण इसे गैर-ब्राह्मण तबके की ओर से कोई चुनौती भी नहीं मिल सकी। सेवानिवृत्ति के कारण न्यायाधीश श्रीवास्तव के खिलाफ कोई वाद भी नहीं लाया जा सका। देखें – प्रमोद रंजन, ब्राह्मणवाद की पुर्नस्थापना का षड्यंत्र, जनविकल्प, (संपादक: प्रेमकुमार मणि/ प्रमोद रंजन), अक्टूबर, 07 और ‘गये राम आये कृष्ण’, फारवर्ड प्रेस, फरवरी 2012
(7) हरबर्ट आई शिलर, संचार माध्यम और सांस्कृतिक वर्चस्व, ग्रंथ शिल्पी, पृष्ठ 65
(8) वही, रेमंड विलियम्स का उद्धरण। ग्रंथ शिल्पी, पृष्ठ 61
(9) कमलेश्वर, ‘दूरदर्शन की भूमिका’। रविवार, 7-13 दिसंबर, 1986
(10) वही
(2) पुनर्प्रकाशित, दैनिक हिंदुस्तान, 29 जुलाई, 2009
(3) कमलेश्वर, ‘दूरदर्शन की भूमिका’। रविवार, 7-13 दिसंबर, 1986
(4) दैनिक जागरण, पटना संस्करण में प्रकाशित समाचार ‘एक राष्ट्रधर्म घोषित करे सरकार’, 29 जुलाई, 2009
(5) भारतीय संविधान की उद्देश्यिका
(6) इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश एसएन श्रीवास्तव ने 30 अगस्त, 2007 को दिये एक फैसले में गीता को राष्ट्रीय धर्मशास्त्र घोषित करने को कहा है। इस फैसले से संबंधित षड्यंत्र का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि इसके महज चार दिन बाद 4 सितंबर, 07 को श्रीवास्तव का सेवाकाल समाप्त हो रहा था। इतना ही नहीं, मीडिया में यह खबर उनकी सेवानिवृत्ति के 7 दिन बाद 11 सितंबर, 2007 को अचानक जोर-शोर से उछाली गयी। 12 सितंबर, 2007 को विश्व हिंदू परिषद ने सेतु समुद्रम परियोजना के विरोध में भारत बंद का आह्वान किया था। इस तरह, यह खबर अपना अपेक्षित प्रभाव छोड़ने में भी सफल रही और भारत बंद के हो-हंगामे के कारण इसे गैर-ब्राह्मण तबके की ओर से कोई चुनौती भी नहीं मिल सकी। सेवानिवृत्ति के कारण न्यायाधीश श्रीवास्तव के खिलाफ कोई वाद भी नहीं लाया जा सका। देखें – प्रमोद रंजन, ब्राह्मणवाद की पुर्नस्थापना का षड्यंत्र, जनविकल्प, (संपादक: प्रेमकुमार मणि/ प्रमोद रंजन), अक्टूबर, 07 और ‘गये राम आये कृष्ण’, फारवर्ड प्रेस, फरवरी 2012
(7) हरबर्ट आई शिलर, संचार माध्यम और सांस्कृतिक वर्चस्व, ग्रंथ शिल्पी, पृष्ठ 65
(8) वही, रेमंड विलियम्स का उद्धरण। ग्रंथ शिल्पी, पृष्ठ 61
(9) कमलेश्वर, ‘दूरदर्शन की भूमिका’। रविवार, 7-13 दिसंबर, 1986
(10) वही
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(प्रमोद रंजन। प्रखर युवा पत्रकार एवं समीक्षक। अपनी त्वरा और सजगता के लिए विशेष रूप से जाने जाते हैं। फॉरवर्ड प्रेस के संपादक। जनविकल्प नाम की पत्रिका भी निकाली। कई अखबारों में नौकरी की। बाद में स्वतंत्र रूप से तीन पुस्तिकाएं लिखकर नीतीश कुमार के शासन के इर्द-गिर्द रचे जा रहे छद्म और पाखंड को उजागर करने वाले वह संभवत: सबसे पहले पत्रकार बने। उनसे pramodrnjn@gmail.com पर संपर्क करें।)
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