जगमोहन फुटेला-
कवि ओमप्रकश आदित्य की एक कविता सुनी थी कोई पैंतीस साल हुए रुद्रपुर के एक कवि-सम्मलेन में. शीर्षक था, “कोई मेरो का कल्लेगो” (कोई मेरा क्या कर लेगा). अब वो कविता शब्दश: याद नहीं. लेकिन उस कविता का पात्र दुनिया भर की हरामज़दगी करने की बात कहता है. इस चुनौती के साथ कि खुद भ्रष्ट और कुछ करने को अनातुर व्यवस्था उसका कर क्या पाएगी. निर्मल बाबा वही हैं. व्यवस्था भी वैसी. सारे देश को बुद्धू बना रहा है वो सरेआम. मगर व्यवस्था है कि कुछ करने को आतुर नहीं है. आज वो इस स्थिति में है कि व्यवस्था को अपनी रखैल बना सके.
रुद्रपुर में ही मेरा एक दोस्त कहा करता था, दुनिया में मूर्ख बनने वालों की कमी नहीं है, बस बनाने वाला चाहिए (उसने तो मूर्ख की जगह कुछ और कहा था, लेकिन मैं शालीनता की खातिर उस से मिलते जुलते इस शब्द का इस्तेमाल कर रहा हूँ). निर्मल बाबा ने वो कर के दिखा दिया है. उस की कलाकारी देखिए कि जिन चैनलों पे उस के खिलाफ(?) बोला जाता है उन्हीं पे उस की प्रशंसा के कार्यक्रम चलते हैं. भले ही विज्ञापन के रूप में. उसके चालू और चैनल के भड़भूजेपन का आलम ये है कि वो खुद अपने इश्तहारी कार्यक्रम में अपनी आलोचना कराता है और फिर उसी में अपना गुणगान. ऊपर कोने में चैनल का लोगो है ही. लगता है कि चैनल पे जो आलोचना हुई थी वो चैनल ने अपनी तरफ से तारीफ़ में बदल दी है. मज़े की बात ये है कि जब तारीफ़ वाला हिस्सा आता है तो ऊपर विज्ञापन भी लिखा नहीं होता. ‘विज्ञापन’ शब्द भी लगातार नहीं है. कभी आता है, कभी जाता है. चैनल चापलूस हो गया है. इतना दम है बाबा के पैसे में कि वो उसके आगे बोरी बिछा के लेटने को तैयार है. निर्मल बाबा का विरोध भी चैनल भड़वागिरी के तरीके से कर रहे हैं. सच तो ये है कि बाबा के खिलाफ(?) इस तरह के प्रचार से उसका प्रसार और ज्यादा हो रहा है. सुना है बाबा अपने भक्तों में वो सीडियां बंटवा रहा है. ये बता के देखो जिन चैनल वालों ने उसके खिलाफ दुष्प्रचार किया वो खुद अब उसकी तारीफ़ कर रहे हैं. लोग और ज्यादा बेवकूफ बन रहे हैं. भीड़ बढ़ रही है. आमदनी भी और इस उपकार के बदले में चैनलों को मिलने वाली विज्ञापन-राशि भी.
अब कोई चमत्कार ही हो जाए तो बात लगा है वरना आप नोट कर के रख लो. बाबा का कुछ नहीं बिगड़ने वाला. खासकर उसके खिलाफ हो दर्ज हो रही इस तरह की शिकायतों के बाद. अपन को तो ये शिकायतें भी फर्जी और अपने खिलाफ खुद दर्ज कराई लगती हैं. बेतुकी और बेसिरपैर की. मिसाल के तौर पर कि मैंने बाबा के कहने से खीर खाई. मुझे शुगर हो गई. अब इस एक शिकायत को ही सैम्पल केस मान लें. क्या सबूत है कि बाबा ने मीठी खीर खाने को कहा ही था? खीर क्या कोई ज़हर है? माना कि डायबिटीज़ हो तो नहीं खानी चाहिए. मगर क्या बाबा को बताया गया था कि भक्त मधुमेह का मरीज़ है? और अगर वो पहले से है तो उसने फिर भी क्यों खाई? खानी ही थी तो जिस डाक्टर का इलाज चल रहा था उस की राय के अनुसार क्यों नहीं खाई? और फिर ये क्या पता कि बाबा के यहाँ हो आने के बाद आपने मीठी खीर के अलावा और भी कोई बदपरहेज़ी की थी या नहीं? की या नहीं की, क्या आप लगातार अपने ब्लड शुगर की माप करते हो? करते हो तो तुरंत खीर खानी बंद कर दवा क्यों नहीं ली और नहीं करते हो तो क्या वो बाबा आ के करेगा? वकीलों दलीलों के द्वंद्व में भी जीतेगा बाबा ही. भक्त अगर भक्त है तो वैसे ही भाग जाएगा. और अगर सच में ही दुखी है तो नीचे निचली अदालत तक के वकील की फीस भी नहीं चुका पाएगा. बाबा उसको ले के जाएगा सुप्रीम कोर्ट तक.
अगर सिर्फ पेट सिकोड़ लेने की कला के साथ बाबा रामदेव बरसों पुरानी योग की पद्धति के साथ सौ पचास रूपये की दवाइयां बेच सकते हैं तो निर्मल नरूला तो सिर्फ समोसे और उस से भी सस्ते मंदिर में स्नान भर की बातें कह रहे हैं. एक आदमी को बीडी पी लेने की नसीहत भी उन ने दी. और भैया हिंदुस्तान में जो बिना पैसे के इलाज करता हो उसको लोग पूजते और वो मरे तो उसकी समाधि या मज़ार तक बना लेने तक के आदी हैं. फिर भले ही वो किसी हाईवे के बीचोंबीच किसी जानलेवा मोड़ का कारण ही क्यों न हो!
दुर्भाग्य इस देश का ये है कि वो सरासर बेवकूफों सी बातें कर के बेवकूफ बनाता जा रहा है. समझ उसके खेल को हर कोई रहा है. मगर कर कोई कुछ नहीं पा रहा. इसकी वजह भी सिर्फ कुछ न करने की इच्छा ही नहीं है. वजह ये भी है कि संतों और भक्तों के इस पावन देश में अपनी पवित्रतम नदी में कुत्तों तक की सड़ी गली लाश बहाना भी पुण्य की परिभाषा में आता है और संतई की आड़ में छोटे छोटे बच्चों के साथ भी जो कुकर्म कर डाले लोग उसे बापू (xxराम) समझ कर पूजते रहते हैं. किसी भी सरकार या प्रशासन में संतई या सुधार की आड़ में देश को शोषित या भ्रमित करने वाले ऐसे किसी भी दुश्चरित्र के खिलाफ कुछ करने साहस नहीं रहा है जिस के पीछे भक्तों क्या, महज़ तमाशबीनों की भीड़ भी हो. और निर्मल बाबा के मामले में तो भारत की दंड विधान संहिता भी जैसे मौन है. कहाँ लिखा है कि खीर खाने को कहना या धारीदार लुंगी पहनने को कहना अपराध माना जाएगा? दो हज़ार रूपये समागम में आने की फीस बाबा पहले से बता के लेता है. दसवंध लेने भी बाबा या उसके बंदे किसी के घर जाते नहीं. राम रहीम की तरह सिर पे कलगी लगा के वो अपने आप को किसी गुरु का अवतार भी नहीं बता रहा कि किसी समुदाय की धार्मिक भावनाएं आहत हो रही हों. क्या कह के पकड़ ले जायेगी पुलिस उसे? किस दफा में चालान पेश होगा? किस कुसूर की सजा मिलेगी उसे? लाख टके का सवाल ये है कि बाबाओं को भी ढोंगी मान सकने का प्रबंध और क़ानून की किताबों में वो अनुबंध ही कहाँ है जिस के न होने से निर्मल बाबा जैसे लोग लगातार जनता का शोषण और धनोपार्जन ही नहीं कर रहे. इस देश की सत्ता, व्यवस्था और आस्था का मज़ाक भी उड़ा रहे हैं. कोई मेरो का कल्लेगो की स्टाइल में!
ये व्यवस्था ऐसे ही चली तो वो दिन दूर नहीं जब किसी भी राम रहीम और रामदेव की तरह दुनिया अपने पीछे लगाए निर्मल बाबा भी आपको नेता अपने क़दमों में बिठाए मिलेंगे.
(जगमोहन फुटेला वरिष्ठ पत्रकार हैं और वर्तमान में जर्नलिस्टकम्युनिटी.कॉम के संपादक हैं।)
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