जगमोहन फुटेला-
ये पढ़ते हुए आपको अजीब सा लग सकता है मगर संसद में सिर्फ एक सांसद वाला इंडियन नेशनल लोक दल राष्ट्रपति के चुनाव में निर्णायक होने की हद तक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है. बताएं, कैसे?
पहले अब तक सामने आ और आ के निबट चुके नामों को देख लें. कांग्रेस अपने सभी सहयोगी दलों और उस पर संसद और विधानसभाओं में यूपीए घटकों के सभी सदस्यों के मत मिला कर भी अपना उम्मीदवार जिता सकने की हालत में नहीं है, ये सूरज की तरह साफ़ है. भाजपा की तरफ से सर्वसम्मत उम्मीदवार के रूप में डा. एपीजे अब्दुल कलाम का नाम कांग्रेस को मंज़ूर नहीं है. प्रणब दा कांग्रेस के उम्मीदवार है नहीं. हों भी तो भाजपा की साफ़ मनाही के बाद उन के कामयाब हो सकने का कोई चांस नहीं है. भाजपा को ऐतराज़ अगर फिलहाल उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी के नाम पर भी है तो उन की स्थिति भी वैसी ही मान के चलें. अब जब सब मान ही चुके हैं कि असल फैसला कुछ मुलायम, नवीन पटनायक, जयललिता, चंद्रबाबू नायडू और बादल के दलों ने करना है तो फिर इन सब के मित्र चौटाला को एक ख़ास भूमिका में मान के चलिए. खासकर तब कि जब वे अपने उम्मीदवार के नाम पर कांग्रेस और भाजपा दोनों का मुंह बंद कर पाने की स्थिति में भी हैं.
ये पढ़ते हुए आपको अजीब सा लग सकता है मगर संसद में सिर्फ एक सांसद वाला इंडियन नेशनल लोक दल राष्ट्रपति के चुनाव में निर्णायक होने की हद तक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है. बताएं, कैसे?
पहले अब तक सामने आ और आ के निबट चुके नामों को देख लें. कांग्रेस अपने सभी सहयोगी दलों और उस पर संसद और विधानसभाओं में यूपीए घटकों के सभी सदस्यों के मत मिला कर भी अपना उम्मीदवार जिता सकने की हालत में नहीं है, ये सूरज की तरह साफ़ है. भाजपा की तरफ से सर्वसम्मत उम्मीदवार के रूप में डा. एपीजे अब्दुल कलाम का नाम कांग्रेस को मंज़ूर नहीं है. प्रणब दा कांग्रेस के उम्मीदवार है नहीं. हों भी तो भाजपा की साफ़ मनाही के बाद उन के कामयाब हो सकने का कोई चांस नहीं है. भाजपा को ऐतराज़ अगर फिलहाल उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी के नाम पर भी है तो उन की स्थिति भी वैसी ही मान के चलें. अब जब सब मान ही चुके हैं कि असल फैसला कुछ मुलायम, नवीन पटनायक, जयललिता, चंद्रबाबू नायडू और बादल के दलों ने करना है तो फिर इन सब के मित्र चौटाला को एक ख़ास भूमिका में मान के चलिए. खासकर तब कि जब वे अपने उम्मीदवार के नाम पर कांग्रेस और भाजपा दोनों का मुंह बंद कर पाने की स्थिति में भी हैं.
इस उम्मीदवार और उस के भी सर्वसम्मत हो सकने की संभावना पे चर्चा करेंगे, पहले होने वाले राष्ट्रपति से आम जनता और दलों की उम्मीदों पे गौर कर लें और राष्ट्रपति की ज़िम्मेवारियों को निभा सकने की क्षमता का भी. जिन की राय का कोई मतलब है उन लगभग सभी समझदारों की राय को देखें तो आज के हालात में राष्ट्रपति ऐसा होना चाहिए जो दलगत राजनीति से ऊपर हो, उसे संविधान की जानकारी हो, राष्ट्रहित में कूटनीति की भी और जो सेना का सुप्रीम कमांडर हो सकने के लिए उस तरह की प्रशासनिक दक्षता भी रखता हो. और सब से बड़ी बात कि वो राष्ट्रपति हो तो लगे भी कि हाँ उसे ही राष्ट्रपति होना चाहिए था. जिस व्यक्ति की बात हम कर रहे हैं, उस में वे सारे गुण हैं. वो कभी किसी पार्टी का मामूली कार्यकर्ता तक नहीं रहा. निरपेक्ष है. सक्षम है और प्रशासनिक दक्षताओं से भरपूर भी. भ्रष्टाचार भी अगर एक पैमाना है तो उस का कोई झूठा आरोप भी उन पर कभी नहीं लगा. ये व्यक्ति है, डा. सैयद शहाबुद्दीन कुरैशी.
डा. कुरैशी आई.ए.एस. थे जब भारत के निर्वाचन अधिकारी नियुक्त हुए. मुख्य निर्वाचन अधिकारी के तौर पर उन्होंने किसी भी संवैधानिक पदाधिकारी से बेहतर परिणाम दिए हैं. उन पर किसी तरह का कोई दाग नहीं है. भाजपा को अगर किसी मुसलमान के राष्ट्रपति हो जाने में कोई ऐतराज़ नहीं है तो ऐतराज़ वो उन के नाम पर किसी और कारण से भी नहीं कर सकती. अब करेगी तो लगेगा कि डा. कलाम का नाम वो महज़ शोशे की तरह उछाल रही थी. बल्कि सच तो ये है कि भाजपा के अब सहयोगी नहीं रहे चौटाला इस हालत में भी हैं कि भाजपा को डा. कुरैशी का नाम स्वीकार कर लेने के लिए मजबूर कर सकें. चौटाला और बादल को करीब से जानने वाले सब जानते हैं कि चौटाला बादल के लिए भाजपा से कहीं ज़्यादा करीब हैं. चंद्रबाबू नायडू के मामले में ये सच और भी सटीक है. जयललिता भाजपा के साथ कितनी टिक कर खड़ी रही है ये तो बहस का विषय हो सकता है. लेकिन चौटाला के साथ उन के सम्बन्ध हमेशा प्रगाढ़ रहे हैं. मुलायम भी केंद्र में रक्षा मंत्री हो गए होते तो बात अलग थी. लेकिन अगर चौटाला का आग्रह हो और डा. कुरैशी जैसा उम्मीदवार तो उत्तर प्रदेश में खुद अपनी राजनीति के तकाज़े से भी मुलायम भी उन के साथ होने चाहियें. और ये जब हो जाए तो फिर नवीन पटनायक के बीजू जनता दल को भी आँख मूँद कर इन सब के साथ चला समझिये. गौरतलब है कि कांग्रेस उड़ीसा में प्रमुख विपक्षी दल होने के बावजूद बीजेडी भाजपा के साथ मिल के चुनाव नहीं लड़ता.
चौटाला के ही शब्दों में कहें तो राजनीति में संभावनाओं से इनकार नहीं किया जा सकता. अकाली दल. इनेलो, ए.आई.डी.एम.के.,सपा, तेलुगु देशम और बीजेडी साथ हो लें और भाजपा बेबस तो फिर कामरेड भी कांग्रेस के साथ तो नहीं जायेंगे. और होने को तो कांग्रेस को भी डा. कुरैशी का नाम हो तो इनकार करने की वजह क्या है? खासकर तब कि जब कांग्रेस और भाजपा से बचे दल उन्हीं के नाम पर सहमत हों !
तो आते, जाते नामों के बीच एक नाम ये भी है मेहरबान, भले ही उस का प्रचार अभी किसी ने नहीं किया है. असल उम्मीदवार किसी भी चुनाव में यूं भी अवतरित होते रहे हैं. प्रतिभा पाटिल का ही किस को इल्हाम था उन का नामांकन होने तक. कांग्रेस और भाजपा में हो न हो, इन क्षेत्रीय दलों में ये नाम है और पूरी संजीदगी के साथ है. अब आप पूछेंगे कि चौटाला को ही ये सब करने की क्या पड़ी है?..बता दें कि चौटाला और उनके पूज्य पिता जी चौधरी देवी लाल तीन बार हरियाणा पे राज कर चुके हैं और कुरैशी ने एक प्रशासनिक अधिकारी के रूप में हमेशा उन्हें अपने सौ फ़ीसदी से अधिक कर के दिखाया है और मुख्यमंत्री ओमप्रकाश चौटाला के तो वे प्रधान सचिव भी थे. जिन्हें न पता हो बता दें कि डा. कुरैशी एक नामचीन शायर हैं और गिटार बजाने का शौक भी फरमाते हैं.
Sabhar- Journalistcommunity.com
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