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Nandita Mahtani hosts a birthday party for Tusshar Kapoor

http://www.sakshatkar.com/2017/11/nandita-mahtani-hosts-birthday-party.html

एसपी की पत्रकारिता का दंश-पुण्य प्रसून वाजपेयी


कांशीराम ने पत्रकारो पर हाथ लहराया था और एसपी सिंह सडक पर पत्रकारो के समूह को संबोधित करते हुये यह कहने से नहीं चूके कि राजनेता कमरो में बैठ कर जोड -तोड करते है और जनतांत्रिक मूल्यों को ताक पर रखकर सत्ता पाना चाहते है और ऐसे में पत्रकार दिनभर जुझते हुये अपना काम करता है तो यह भी उन्हे बर्दाशत नहीं होता। राष्ट्रपति भवन ज्ञापन सौपने जाते पत्रकारो के सामने एसपी सिंह पांच मिनट से ज्यादा नहीं बोले। लेकिन जो कहा उसका सार यही था कि सत्ता की मदहोशी में नेता संविधान और लोकतंत्र को भी ताक पर रखने से नहीं चूकते और पत्रकार इस सडी-गली राजनीति को जब बताता है तो यही राजनीति लोकतंत्र की दुहाई देकर मीडिया पर अंकुश लगाना चाहती है। यह घटना 14 साल पुरानी है। लेकिन इन 14 सालो में मीडिया और राजनीति संबंध के तौर पर मान्यता पा गयी और अब पत्रकार पर राजनीति से ज्यादा मीडिया सवाल दागने को तैयार है। 18 जून को "नंदीग्राम डायरी " लिखने वाले पत्रकार पुष्पराज का फोन आया कि उन्हे नंदीग्राम में पुलिस ने यह कह कर रोक लिया कि आपको यहा आने की जरुरत क्या है। और आपकी जान को यहा खतरा हो सकता है। पुष्पराज ने पुलिसवाले से जब यह सवाल किया कि सुरक्षा देने का काम तो आपकाहै, इसपर जबाब मिला सिर्फ नंदीग्राम की सीमा तक आगे कौन क्या करता है यह हमारी सीमा में नहीं आता। 17 जून को आंनदस्वरुप वर्मा ने बताया कि नेपाल के माओवादियो पर बनायी उनकी डाक्यूमेन्ट्री को सेंसर बोर्ड ने यह कह कर रोक दिया है कि इससे भारत के माओवादियो की विचारधारा को हवा मिलेगी। आंनदस्वरुप वर्मा का सवाल था कि नेपाल में माओवादी जनतांत्रिक तरीके से सत्ता में आये और उनके नेता प्रधानमंत्री भी बने और भारत के राजनयिक संबंध भी बरकरार रहे, तो खतरा काहे का। जवाब मिला फिलहाल देश में माओवादी गतिविधियो में डाक्यूमेंट्री आग में घी का काम कर सकती है।16 जून को कोलकत्ता में एक साइटिस्ट और एक प्रोफेसर को माओवादी विचारधारा का समर्थन करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया। दोनो ने सवाल किया किसी धारा को पढना-जानना उसको समर्थन करना कैसे हो सकता है। जबाव मिला जब सरकार इस धारा को खतरा मानती है तो पढने जानने का मतलब ही सुरक्षा के लिये खतरा पैदा करना होगा। इस तरह की तमाम खबरें सूचना से आगे बढी नहीं। चूकि यह तीनो जानकारी मानवाधिकार और माओवाद, लोकतंत्र और राज्यतंत्र के बीच झूल रहे है तो क्या यह कहा जा सकता है कि पहली बार सत्ता ने खुद को परिभाषित किया है। जिसमें जो सत्ताधारियो के साथ खडा है वह सही और जो सवाल खडा कर रहा है वह अपराधी। ऐसे में मीडिया की भूमिका होनी क्या चाहिये। जाहिर है दस साल पहले ऐसा सवाल उठाना सवाल नहीं होता, लेकिन वर्तमान का सच यही है कि अगर सत्ता किसी खबर को सामने आने देना नहीं चाहती तो बहुसख्य मिडिया सबसे पहले मान लेता है कि उस खबर दिखाना सही नहीं है। असल में सत्ता सिर्फ अपनी परिभाषा ही नहीं मिडिया की भी नयी परिभाषा भी गढने को तैयार है। क्योकि खबरो को सूचना में बदलने की फिराक में सत्ता हमेशा रहती है, और उसकी पहली कडी सूचना को भी बदर्शत नहीं कर पाना है। 14 साल पहले सत्ता की जोड-तोड में लगे कांशीराम से कौन नेता पिछले दरवाजे से कैसे मिल रहा है इस सूचना को कांशीराम बर्दाश्त नहीं कर पाये और हाथ पत्रकार पर लहरा दिया। लेकिन बीते चौदह साल की राजनीतिक सत्ता और मिडिया को अगर देखे तो सत्ता की परिभाषा भी नयी नजर आ सकती है। इस दौर में सत्ता का स्वाद हर राजनीतिक दल के नेताओ ने चखा। यूनाइटेड फ्रेट की सरकार से गठबंधन के दौर को विस्तार एनडीए ने दिया और यूपीए ने भी इसपर स्वीकृति देकर इस सच पर ठप्पा लगा दिया कि सत्ता का मतलब सिर्फ इशारा है। यानी सत्ता बदलने पर नीतियो में परिवर्तन या विचारधारा में बदलाव के संकेत 2010 में मायने नहीं रखते। मायने रखता है तो लोकतंत्र के चारो स्तम्भ किसके इशारे को मानेगे। और सत्ता जिसकी होगी इशारा उसी का चलेगा। मुश्किल यह नहीं है कि 14 साल पहले सत्ता इशारा नहीं करती थी या फिर मीडिया इशारो के खिलाफ इशारा कर जनता को संजीवनी और लोकतंत्र को आक्सीजन देने से नहीं घबराता था।मुश्किल यह है कि सत्ता की नयी परिभाषा के घेरे में चौथा स्तम्भ भी खुद को सत्ता मानने लगा है और उसका अपना इशारा भी सत्ता सरीखा ही हो चला है। इसलिये मीडिया संस्थान खबरो को छोड खबरो पर सेमिनार कराने को तैयार है। जिसमें लकीर के इस और उस पार के दोनो प्रतिदन्दियो को खडा कर छौथा खम्भा होने का धर्म अपना रहे है। दांतेवाडा से लेकर नंदीग्राम तक के बीच सामाजिक-आर्थिक विकास का सच न्यूज चैनल पर कौन देखेगा, इस सवाल को उठानेवाले मिडिया संस्थान अगर दांतेवाडा पर "नक्सलवाद, राजनीति और मिडिया " विषय पर एक सेमिनार करा लें जिसमें छत्तिसगढ के सीएम से लेकर सीएम की नीतियो का विरोध कराने वाले सोशल एक्टीविस्ट और पत्रकारो का जमावडा एक मंच पर हो जाये, तो मिडिया संसथान की यह एक नयी सफलता होती है। जिस दौर में मिडिया से सरोकार की खबरे गायब होने लगी। आम लोगो की जरुरतो से जुडे मुद्दे हाशिये पर गये। ग्रामिण-आदिवासी का सवाल गैरकानूनी सरीखा लगने लगा अगर ध्यान दें तो इसी दौर में मिडिया सस्थानो ने सेमिनार और अलग अलग आयोजनो में इन्ही मुद्दो को उठाया। असल में मिडिया में खबरो का डाल्यूट होने से ज्यादा खतरनाक समाज के रुखडे सवालो को पांच सितारा आयोजना में धुयें में उडा कर ब्राडिंग करना है। और ब्रांडिग का सीधा मतलब मुनाफा है जिसमें प्रायोजक बन कर मुनाफा वहीं देते है जो मुद्दो की वजह होते है। छतितसगढ में राजनीतिक सत्ता से हमजोली कर खनन के जरीये करोडो कमाने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनी अगर आदिवासियो के संकट विषय पर होने वाले सेमिनार की प्रायोजक हो तब कौन सवाल खडा करेगा। मिडिया की अपनी भूमिका जब सत्तानुकुल है तो ऐसे सेमिनारस्थल ही मंच का काम करेंगे और उसमें राजनीति पर फिल्मकार प्रकाश झा भी अपनी बात रखेगे। लेखिका अरुणधति राय भी विचार व्यक्त करेगी। शोभा डे भी कुछ कहेगी। मेधा पाटकर भी होगी। किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी का कोई चैयरमैन भी विकास के सवाल पर अपनी बात रखेगा और कोई सांसद या मंत्री की मौजूदगी के साथ कोई संपादक सरीका पत्रकार भी होगा। यह काकटेल आयोजन के लिहाज से बिकाउ भी होगा और मिडिया के लिहाज से टीआरपी देने वाला भी। यानी कमाउ सोच का यह तरीका ही असल में मिडिया की नयी परिभाषा के तौर पर उभरा है। लेकिन यह कहना बेमानी होगी कि यह वर्तमान का सच है, न्यूज चैनलो की हकीकत है और पहले ऐसा नहीं था। आजतक शुरु होने के बाद आजतक का असर और मुनाफा ग्राफ जिस तेजी से बढा उसने कन्टेन्ट और नब्ज पकडने का सवाल उठाया। कन्टेन्ट का मतलब सीधे मुद्दे को पकडना था और नब्ज का मतलब राजनीतिक सत्ता के कान मरोडना था। काशीराम का हाथ यूं ही हवा में नहीं लहराया था। कैमरा अगर तस्वीर पकड रहा था तो उसे आजतक मथकर जनता के कटघरे में में ही ले जाकर छोडता था। असल में राजनीति यही बर्दाश्त नहीं कर पाती। और यही सलीका एसपी सिंह के पास था।इसलिये एसपी के साथ के जो पत्रकार 1995-96 में थे जब 2010 में तमाम निर्णायक पद पर बैठकर यह सवाल करते है कि अगर एसपी होते तो वह भी आज बाजार के दबाव में लोकप्रिय रौ में बह चुके होते। तो समझना यह भी होगा कि एसपी सिंह उस दौर में सहयोगी रिपोर्टरो से जो स्टोरी कवर करवाते उसे कवर आज भी किया जाता है, लेकिन उसका असर एसपी सिंह की सामाजिक-राजनीतिक समझ से होता हुआ आजतक कार्यक्रम में दिखायी देता था। और यह समझ ही उस दौर में ब्रांड थी और एसपी सिंह खुद आजतक के ब्रांड थे। यानी बाजार की नब्ज अगर पत्रकार ने नहीं पकडे तो फिर मिडिया की नब्ज बाजार पकड लेगा, इसे एसपी बेहद बारिकी से समझते थे। इसीलिये बाजार के तरीको को पूंछ से नहीं सूंड से एसपी ने पकडा और पत्रकारिता के पैनापन को ब्रांड बनाकर दिखाया। अब के दौर की मुश्किल यही है कि बाजार को ही मिडिया अपनी नब्ज पकडने का न्यौता देकर अपनी लीक को ही छोडने पर उतारु है। ब्रांड बनने की होड यहा भी है मगर उसके सलीके पत्रकारिता से नहीं मुनाफे से मुनाफा बनाते हुये बाजार पर टिका दिये गये है। यह नया सलीका खबरो के लिये इंटरनेट और गुगल पर आ टिका है जबकि एसपी सिंह साप्ताहिक पत्रका रविवार से लेकर आजतक के दौर में एक सामानांतर पत्रकारिता का स्पेस भी ना सिर्फ बनाते रहे बल्कि मान्यता भी देते रहे। बिहार के "जनशक्ती" में छपी चार लाइन की खबर, भोजपुर में एक दलित बच्चे को कुंअे में जमींदार ने लटकाया। बस एसपी की नजर गयी और पटना के स्ट्रीगर रिपोर्टर नवेन्दु को लिफाफे में अखबार की कटिंग भेजकर दो लाइन की चिट्ठी लिखी। इस खबर को पकडो। और दो अंक के बाद रविवार की वह कवर स्टोरी बनी। देश में राजनीतिक हंगामा हुआ। लोगो ने जाना कि विकास की धारा का सच गांव से कैसे कोसो दूर है और जमींदारी तले लोकतंत्र अब भी कैसे पानी भरता है। दूसरा तरीका आईपीएफ की पत्रिका "जनमत" को बचाने के लिये वैक्लपिक आर्थिक स्रोत पर दिल्ली के शकरपुर में 1996 में नजर आये। जमीन पर बिछी दरी पर एक्टीविस्टो के साथ जनमत को चलाने के तरीको पर ना सिर्फ अपना मत रखते हुये बल्कि चंदे की जिम्मेदारी लेते हुये पाठको का कैनवास बढाने के तरीको को भी बताते हुये। तब जनमत के संपादक रामजी राय ने एसपी से कहा आप आजतक से करोडो का लाभ दिलाते हो, क्या जनमत सरीखी पत्रिका महज बीस हजार के जुगाड में दम तोड देगी। एसपी का जबाव था यहा मैगजीन के लिये पूंजी चाहिये और वहा पूंजी के लिये टीवी है। इसलिये अंतर तो होगा लेकिन हमारी जिम्मेदारी दोनो जगहो से निगरानी की है और इस पत्रकारिता के तरीके अलग अलग नहीं है। यह हमें समझना भी है और बिगडो को समझाना भी है। इसलिये रामजी भाई आजतक की जरुरत भी है और जनमत की भी। नहीं तो पूंजी हम सब को खा जायेगी। एसपी सिंह की मौत के ठीक तेरह साल बाद पत्रकारो को यह सोचना है कि यह सवाल कितना मौजू है कि पत्रकारिता निगरानी कर रही है या पूंजी सबको खा गयी है। और अब पत्रकारो पर लहराते हाथो के खिलाफ संघर्ष तो दूर मिडिया उसे खबर भी क्यो नहीं मानता।
(साभार - जाने -माने पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी के ब्लॉग से. )

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