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Nandita Mahtani hosts a birthday party for Tusshar Kapoor

http://www.sakshatkar.com/2017/11/nandita-mahtani-hosts-birthday-party.html

मीडिया इंस्टीटयूट-हर मोड़ पर मिलावटी सामान की मंहगी दुकान

मीडिया में आने के सपने और संघषॆ के बाद जो नया शौंक चढ़ा वो है मीडिया को पढ़ने का, पढे हुए को समझकर और अपनी बीती से मिलाकर कुछ लिखने का। इसी सिलसिलें में मीडिया के कुछ लोगों को खासकर उनके सफर को पढ़ा तो एक बात मुझे अपनी सी लगी वो है मीडिया में आने की उनकी कहानी। मेरा किस्सा भी कुछ ऐसा ही है और जितने लोगों को मीडिया में पढने की कोशिश करती हूँ उनका अनुभव भी कुछ वैसा ही नजर आया। घर से भागकर, घरवालों के खिलाफ जाकर, घर पर बिना बताये, पिता जी से लड़कर, माँ को मनाकर॥पत्रकारिता की पढाई करने की इजाजत अधिकतर लोगो को पूर्ण सहमति के रूप में नही मिली है। हर एक सफर पर एक खास खबर तैयार हो सकती है। सबके अपने-अपने अलग किस्से रहे है क्रांतियों के। घर से क्रांति करके निकले और समाज में क्रांति करने का सपना संजोया। फिर हुआ ये कि कदम वक़्त को नही समझ सके लेकिन क्रांति वक़्त की आंधी में कई कदम पीछे हो गई। लेकिन कदम जब बेलगाम, आगे बढे उबड़-खाबड़ रास्तों पर, तो वो चिकनी सड़क का मोह न छोड़ सके। आखिर सब कुछ छोड़ कर आये एक व्यक्ति के पास अब कुछ और छोड़ने का विकल्प ही नही था। समाज समाज करते-करते बातें स्वयं से शुरू होकर स्वयं पर ख़त्म होने लगी। दरअसल संघर्ष जिंदगी की एक सच्चाई है लेकिन कई बार संघर्ष की इस कहानी में ट्विस्ट आ जाते है, बेहद घातक ट्विस्ट। जब सिस्टम की लाग-लपेट में आप के सपनो का लहू निकलने लगता है। सालों पहले की पत्रकारिता को छोड़ दें और सिफॆ आज की बात करें तों इस सफर की शुरुआत के लिए सबसे जमीनी आधार और बड़ी जरुरत है वो होता है एक बढ़िया, नामचीन, रोजगार मुहैया करने वाला मीडिया संस्थान। इस तलाश में दिल्ली में तो आपको ज्यादा भटकना नहीं पड़ेगा। दिल वालों की दिल्ली में तो ऐसी दुकानों की कोई कमी नहीं है। चुनाव आपका है, विकल्प बहुत है। आपसे साक्षात्कार में ये खूबसूरत सवाल पुछा जाना लाज़मी है कि आप पत्रकार क्यों बनना चाहते है। इस पर आपकी वजह चाहे आपकी ख़ूबसूरती हो, कड़क आवाज, आपका मिजाज या फिर लिखने की शमता लेकिन किसी भी सूरत में आपको ६ महीने में एंकर और रेडियो जॉकी बना ही दिया जायेगा। बड़ी कंपनी के ब्रांड की तरह यहां उस तरह का टैग तो नहीं लगा होता कि कंडीशनस एप्लाई, लेकिन जो कंडीशनस यहाँ एप्लाई की जाती हैं वो बस एक नोटों की एक मोटी गड्डी है। खैर व्यंग्य रूप में बहुत कुछ कहा जा सकता है क्योंकि मीडिया की पढाई किसी मजाक से कम नहीं रह गई है लेकिन जब बात छेड़ी है तो कुछ तथ्य जिकिरियाना जरुरी है पत्रकारिता के कोर्से तीन तरह के संस्थान चला रहे है एक जो सरकार के माध्यम से पोषित है दुसरे जो नामी विश्विधाल्यों से मान्यता के नाम पर अपना स्कूल खोले हुए है तीसरे वो जिन्हें खुद न्यूज़ चैनेल और अख़बारों ने खोला है। सबसे ज्यादा चलने वाली दुकान दरअसल यही है। यहाँ प्रोफशनल लोग पढाते है, पूरा माहौल होता है जिसमे आगे जाकर काम करना है। नाम तो वैसे दिल्ली विश्वविधालय का भी कम नहीं है लेकिन जहाँ तक पत्रकारिता की बात है तो ये ऊँची दुकान फीका पकवान वाली बात होगी ।
प्रिंट मीडिया , इलेक्ट्रोनिक मीडिया से लेकर फिल्म प्रोडक्शन जैसे विषय हिंदी के अध्यापक पढ़ा रहे है। हालाँकि अध्यापक अपने स्तर पर छात्रों को सम्बंधित जानकारी उपलब्ध करा भी दे तो ये उसकी निजी व्यावहारिकता होगी। लेकिन एक भाषा के टीचर से मीडिया पढवाना दोनों तरफ से शोषण करना है। जिस तेजी से मीडिया में बदलाव हो रहे है, हर एक साल पर कोर्से रिवाइस होने चाहिए। यहां तो पिछले कई सालों से आज़ादी के समय वाली पत्रकारिता पढाई जा रही है जबकि अब हम नई तरह की बेड़ियों में जकड़े जा चुके है। आज अगर जो लिखा है ये पहले कहीं पढ़ लिया होता तो अब ये लिखने की नौबत नहीं आती। खैर ये बेहद निजी भाव है। लेकिन अगर मीडिया एक उभरता करियर विकल्प बन रहा है और लोग उसमे आना चाहते है तो पढाई के स्तर पर भी बदलाव होना बहुत जरुरी है। क्योंकि पत्रकार बेशक प्रधानमन्त्री नहीं होता लेकिन वो एक पत्रकार होता है जो अपने स्तर पर पूरी तरह आज़ाद होकर देश और दुनिया से जुड़े कई आयाम गढ़ सकता है। जब शिक्शा नितियों में सुधार की बात चल ही रही है तो ये सवाल उठाना और सबको दिखने वाले इश दृस्य को शब्दों के माध्यन से प्रतिबिंबित करना मुझे जरुरी लगा। शायद कोई माननीय पहुंच वाले व्यकित पढ़ ले और कुछ बदलाव हो सके.......
साभार :- voiceofjournalist.com

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