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Nandita Mahtani hosts a birthday party for Tusshar Kapoor

http://www.sakshatkar.com/2017/11/nandita-mahtani-hosts-birthday-party.html

खुशवंत जी, बेगैरत पत्रकार हैं आप!

27 नवम्बर को खुशवंत सिंह जी का लेख पढ़ा. सिद्धार्थ शंकर रे को याद करने के साथ ही उन्होंने कुछ बातें आपातकाल के बारे में लिखी है...आप भी पढ़ें... "उसी दौरान श्रीमती गांधी ने आपातकाल की घोषणा कर दी और विपक्ष के सभी नेताओं को जेल में डाल दिया। लोकतांत्रिक तकाजों को निलंबित करने के लिए जरूरी कानूनी मसौदा तैयार करने में सिद्धार्थ ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जयप्रकाश नारायण सहित विपक्ष के नेता विरोध प्रदर्शन के लिए लोकतांत्रिक सीमाओं को लांघ चुके थे। देश की अखंडता दांव पर थी।"
खुशवंत जी की सहानुभूति श्रीमती गांधी और रे के साथ दिखाई देती है और वे आपातकाल के समर्थक नज़र आते हैं. वे ऐसे कानून का मसौदा बनाने में रे की महत्वपूर्ण भूमिका का जिक्र करते हैं जो लोकतंत्र पर प्रहार करने वाला था. इस कार्य के लिए कहीं भी नकारात्मक टिप्पणी वे जरूरी नहीं समझते. वहीं वे जेपी और विपक्ष के अन्य नेताओं को लोकतान्त्रिक सीमाएं लांघने का दोषी ठहराते हैं और उनके विरोध को देश की अखंडता के लिए खतरा बताते हैं.
जिस आपातकाल के विरोध में अखबार काले पन्ने निकाल रहे थे, जिसे लोकतंत्र पर आक्रमण समझा जाता है और जिसके कारण श्रीमती गांधी की बुरी तरह हार हुई, जो आम जनता की संवेदना और भावनाओं से जुड़ा मुद्दा समझा जाता है, उस पर एक वरिष्ठ पत्रकार की टिप्पणी व्यक्तिगत आग्रह-दुराग्रह से भरी नज़र आती है. कहीं से भी इसे तटस्थ नजरिया नहीं माना जा सकता...वे आगे लिखते हैं ...
"जनता द्वारा चुने गए विधायकों को विधानसभा जाने से रोका जा रहा था, लोगों से कहा जा रहा था कि वे टैक्स चुकाना बंद कर दें, पुलिस और लोगों को विद्रोह के लिए उकसाया जा रहा था। अराजकता के हालात थे। हड़तालें हो रही थीं। स्कूल-कॉलेज बंद थे। उग्र जुलूस कारों के शीशे और दुकानों की खिड़कियां तोड़कर आगे बढ़े चले जा रहे थे। लेकिन आपातकाल लगाए जाने के बाद रातोंरात सब शांत हो गया। कानून व्यवस्था फिर बहाल हो गई। स्कूल-कॉलेज खुल गए। ट्रेनें समय से दौड़ने लगीं। सभी ने राहत की सांस ली।"
आन्दोलनों को कुचलने के लिए ही आपातकाल का प्रयोग किया गया और नेताओं को जेल में ठूंस दिया गया. इसे खुशवंत जी रातोंरात सब शांत होना कहते हैं.."सभी ने राहत की सांस ली" लिखते हुए वे यह भूल जाते हैं कि "सभी" का अर्थ आम जनता कतई नहीं थी, हालाँकि वे एक वाक्य आपातकाल के विरोध में भी लिखते हैं लेकिन किस तरह...देखिये... "लेकिन जब श्रीमती गांधी और उनके परिवार के सदस्यों खासतौर पर मेनका गांधी, उनके माता-पिता और उनके पति द्वारा व्यक्तिगत हिसाब बराबर करने के लिए आपातकाल का दुरुपयोग किया जाने लगा, तब उसकी छवि खराब हुई। सिद्धार्थ भी मुझसे सहमत थे।"
आपातकाल के दुरूपयोग से ख़राब उसकी छवि के बहाने उनका निशाना मेनका गाँधी और उनके परिजन ज्यादा दिखाई देते हैं, वे क्यों संजय गाँधी का सीधा नाम दुरूपयोग करने वालों में नहीं लेते, देखें वे लिखते हैं... "जब मुझे द इलस्ट्रेटेड वीकली से निकाल बाहर कर दिया गया, तब संजय गांधी मेरे लिए एक युवा मददगार बनकर आए। उन्होंने राज्यसभा सदस्य के रूप में मेरा मनोनयन किया और मुझे द हिंदुस्तान टाइम्स का संपादक बना दिया।"
ये पढ़कर खुशवंत जी की छवि एक गैरतमंद पत्रकार की कतई नहीं बनती. मुझे याद है दीवान बीरेन्द्र नाथ का लेख जिसमें उन्होंने जिक्र किया है कि श्रीमती गाँधी उनकी बहुत इज्ज़त करती थीं, उनके सम्बन्ध भी मधुर थे, लेकिन आपातकाल को लेकर, उनके तानाशाही रवैये को लेकर उन्होंने कोई लिहाज़ नहीं किया और अपना विरोध प्रकट किया. सत्ता पक्ष से नजदीकी, सौहार्दपूर्ण संबंध अलग चीज है, लेकिन अपना कर्त्तव्य, पाठकों के प्रति ईमानदारी, देश की आम जनता के लिए प्रतिबद्धता भी कुछ होती है.
लेखक महेश शर्मा स्‍वतंत्र पत्रकार और ब्‍लॉगर हैं.
Sabhaar : bhadas4media.com

2 comments:

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    जनाब !
    आपने जो लिखा वो हर उस नजरिये से ना-काफी और लिहाज रखते हुए लिखा गया मालूम देता है जो कि खुश्बंत सिंह जैसे ढ्पोरशंखी और बेतुके तथाकथित साहित्यकार के लिए न्याय नहीं है / खुश्बंत सिंह ज्यो ज्यो बुढा रहे है त्यों त्यों अक्ल घांस चरने में घुसी जा रही है / आप जिस ''सत्संग '' से उक्त उदाहरण पेश कर रहे है वो उनका अनुपम साहित्य मैंने भी पढ़ है जो खुलासा बताता है कि वो सत्ता धारी पार्टी के कितने बड़े चम्मच है या यूं कह ले कि बड़ा वाला चम्मचा है /
    बांकी अभी खुश्बंत जी की शान में कुछ और भी कशीदे पढने का दिल था परन्तु समय का अभाव आड़े आ रहा है /
    जय हिंद !

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    महेश जी बहुत कम ही ऐसे पत्रकार होंगे जो सत्ताधारिओ की जूठी पत्तले चाटने से इंकार करे. जिनका जमीर मर गया होता है बह सत्ता और भत्ता से आगे नहीं सोच पाते.

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