दिल्ली सरकार की कंपकपी भले ही चढ़ रही हो मगर उसके सभी नेता जोर शोर से दावा करने में जुटे हैं कि अन्ना से कोई नहीं डरता और अन्ना लोकतंत्र के विरोध में काम कर रहे हैं। 16 अगस्त को अन्ना के प्रदर्शन के साथ ही यह तय हो जायेगा कि यह देश किस विचारधारा को पसंद करता है। वह अन्ना की सोच के साथ है या फिर हमारे माननीय राजनेताओं की विचारधारा के साथ। अन्ना और उनकी टीम ने पूरे देश में वातावरण बना दिया है कि आमजन इस बात के लिये सड़कों पर उतरें कि देश के प्रधानमंत्री और न्यायपालिका को भी लोकपाल के अधीन लाकर इस देश में भ्रष्ट्राचार के विरुद्ध एक मुहिम चलाई जाये। आने वाले कुछ दिन तय कर देंगे कि दिल्ली सरकार भ्रष्ट्राचार को रोकने के लिये कोई साहासिक कदम उठाती है या फिर अन्ना की मुहिम की ही हवा निकलती है।
पूरे लोकतंत्र के लिये अन्ना की मुहिम बड़े परिवर्तन की ओर इशारा कर रही है। अन्ना और उनके साथियों ने जब लोकपाल विधेयक ड्राफ्ट किया था तो उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि इस देश में उनकी मुहिम को इस हद तक समर्थन मिल जायेगा। जब यह ड्राफ्ट जनता के सामने आया तो इससे देश में परिवर्तन की बड़ी लहर शुरू हो सकती है। दरअसल उससे पहले भ्रष्ट्राचार के इतने मामले सामने आ चुके थे कि आमजन का तंत्र से विश्वास ही उठता चला जा रहा था। उसको लग रहा था कि शासक वर्ग सिर्फ उसके हितों के शोषण करने के लिये बना है। ऐसे में कुंठा और आक्रोश उसके भीतर धधक रहा था मगर न तो सत्ता पक्ष और न ही विपक्ष उसे कोई ठोस आश्वासन दे पा रहे थे। ऐसे में अन्ना और उनके साथियों की बेदाग छवि ने उसको बेहद राहत पहुंचायी उसको लगा कि इस तरह के आंदोलन से सत्ता पक्ष की आंख खुलेगी और कहीं न कहीं भ्रष्ट्राचार के विरुद्ध लड़ाई शुरू होगी।
जब अन्ना ने अपनी मुहिम तेज की तो पूरी सरकार को पसीना आ गया। सरकार के सभी आला नेता अन्ना के आगे पीछे नजर आये। अन्ना की मानसून सत्र में विधेयक पेश करने की मांग भी मान ली गयी। तब अन्ना भी सरकार की कुटिल नीतियों को समझ नहीं पाये। सरकार ने एक तरफ तो स्वामी रामदेव को भी इससे मिलते-जुलते मुद््दे को लेकर आगे किया और बाद में उनके उग्र होने पर उन पर चौतरफा हमला करवाकर यह सिद्ध करने की कोशिश की कि सरकार से टकराने के नतीजे खतरनाक हो सकते हैं। यह मैसेज अन्ना और उनकी टीम को भी देने की कोशिश की गयी। शांतिभूषण और उनके पुत्र के खिलाफ चली मुहिम इसी का एक हिस्सा थी। मगर अन्ना हजारे की टीम का साम्राज्य स्वामी रामदेव के साम्राज्य की तरह नहीं था जो सरकार से दबाव में आ जाता। लिहाजा अन्ना की टीम ने साफ तौर पर सरकार को चेतावनी दे दी कि अगर उसने लोकपाल विधेयक को कमजोर करने की कोशिश की तो उनकी टीम पूरे देश में आंदोलन करेगी।
ऐसे में सरकार के पास एक ही चारा था कि विपक्ष को इस बात के लिये राजी किया जाये कि वह भी इस मुद््दे पर ज्यादा हंगामा न करे। भाजपा को समझाया गया कि अगर प्रधानमंत्री भी लोकपाल विधेयक के दायरे में आ गये तो उनकी सरकार बनने पर उन्हें भी भारी परेशानी हो जायेगी। एनडीए सरकार के दामन में कई छींटे पहले भी लग चुके है। सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों जानते थे कि आधे से अधिक सांसदों के दामन दागदार हैं लिहाजा कोई भी इसे लागू कराने की शुरुआत नहीं करेगा। भाजपा ने प्रतीकात्मक तरीके से विरोध किया कि प्रधानमंत्री को भी लोकपाल विधेयक के दायरे में लाया जाये, मगर यह विरोध इतना प्रभावी नहीं था कि उससे सरकार पर कोई असर पड़ता। हकीकत यह थी कि इस मामले में सत्ता और विपक्ष के बीच पहले ही डील हो चुकी थी।
इस बात से नाराज अन्ना और उनके साथियों ने 16 अगस्त से दिल्ली में अनशन का ऐलान कर दिया। सरकार के सामने अब इस बात की चुनौती है कि यह आंदोलन देश भर में जन आंदोलन का रूप किसी भी तरह न ले पाये। इससे पहले अन्ना के आंदोलन में जिस तरह पूरे देश के लोग सड़कों पर आ गये थे उससे सरकार बहुत असहज स्थिति में आ गयी थी। सरकार को पता है कि यदि इस बार भी अन्ना के समर्थन में इस तरह का जनांदोलन शुरू हुआ तो उसे लेने के देने पड़ जायेंगे।
केन्द्र सरकार के सामने परेशानी की बात यह भी है कि सोनिया गांधी ऑपरेशन के चलते अपने पुत्र राहुल गांधी के साथ देश से बाहर हैं। इस बार किसी भी जन आंदोलन से निपटने की कमान प्रधानमंत्री के हांथों में है जो बहुत सफाई के साथ यह कहते रहे हैं कि वह तो स्वयं को लोकपाल के अधीन लाने को तैयार हैं।
मगर उनके सहयोगी इसके लिये तैयार नहीं हैं। अब इस देश को तय करना है कि उसे एक कमजोर प्रधानमंत्री चाहिये या भ्रष्ट्राचार के विरुद्ध कड़े तेवरों के साथ एक मजबूत लोकपाल। जाहिर है आने वाले दिन सरकार के साथ-साथ देश का भी भाग्य तय कर देंगे
Sabhar:-Weekandtimes.com
पूरे लोकतंत्र के लिये अन्ना की मुहिम बड़े परिवर्तन की ओर इशारा कर रही है। अन्ना और उनके साथियों ने जब लोकपाल विधेयक ड्राफ्ट किया था तो उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि इस देश में उनकी मुहिम को इस हद तक समर्थन मिल जायेगा। जब यह ड्राफ्ट जनता के सामने आया तो इससे देश में परिवर्तन की बड़ी लहर शुरू हो सकती है। दरअसल उससे पहले भ्रष्ट्राचार के इतने मामले सामने आ चुके थे कि आमजन का तंत्र से विश्वास ही उठता चला जा रहा था। उसको लग रहा था कि शासक वर्ग सिर्फ उसके हितों के शोषण करने के लिये बना है। ऐसे में कुंठा और आक्रोश उसके भीतर धधक रहा था मगर न तो सत्ता पक्ष और न ही विपक्ष उसे कोई ठोस आश्वासन दे पा रहे थे। ऐसे में अन्ना और उनके साथियों की बेदाग छवि ने उसको बेहद राहत पहुंचायी उसको लगा कि इस तरह के आंदोलन से सत्ता पक्ष की आंख खुलेगी और कहीं न कहीं भ्रष्ट्राचार के विरुद्ध लड़ाई शुरू होगी।
जब अन्ना ने अपनी मुहिम तेज की तो पूरी सरकार को पसीना आ गया। सरकार के सभी आला नेता अन्ना के आगे पीछे नजर आये। अन्ना की मानसून सत्र में विधेयक पेश करने की मांग भी मान ली गयी। तब अन्ना भी सरकार की कुटिल नीतियों को समझ नहीं पाये। सरकार ने एक तरफ तो स्वामी रामदेव को भी इससे मिलते-जुलते मुद््दे को लेकर आगे किया और बाद में उनके उग्र होने पर उन पर चौतरफा हमला करवाकर यह सिद्ध करने की कोशिश की कि सरकार से टकराने के नतीजे खतरनाक हो सकते हैं। यह मैसेज अन्ना और उनकी टीम को भी देने की कोशिश की गयी। शांतिभूषण और उनके पुत्र के खिलाफ चली मुहिम इसी का एक हिस्सा थी। मगर अन्ना हजारे की टीम का साम्राज्य स्वामी रामदेव के साम्राज्य की तरह नहीं था जो सरकार से दबाव में आ जाता। लिहाजा अन्ना की टीम ने साफ तौर पर सरकार को चेतावनी दे दी कि अगर उसने लोकपाल विधेयक को कमजोर करने की कोशिश की तो उनकी टीम पूरे देश में आंदोलन करेगी।
ऐसे में सरकार के पास एक ही चारा था कि विपक्ष को इस बात के लिये राजी किया जाये कि वह भी इस मुद््दे पर ज्यादा हंगामा न करे। भाजपा को समझाया गया कि अगर प्रधानमंत्री भी लोकपाल विधेयक के दायरे में आ गये तो उनकी सरकार बनने पर उन्हें भी भारी परेशानी हो जायेगी। एनडीए सरकार के दामन में कई छींटे पहले भी लग चुके है। सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों जानते थे कि आधे से अधिक सांसदों के दामन दागदार हैं लिहाजा कोई भी इसे लागू कराने की शुरुआत नहीं करेगा। भाजपा ने प्रतीकात्मक तरीके से विरोध किया कि प्रधानमंत्री को भी लोकपाल विधेयक के दायरे में लाया जाये, मगर यह विरोध इतना प्रभावी नहीं था कि उससे सरकार पर कोई असर पड़ता। हकीकत यह थी कि इस मामले में सत्ता और विपक्ष के बीच पहले ही डील हो चुकी थी।
इस बात से नाराज अन्ना और उनके साथियों ने 16 अगस्त से दिल्ली में अनशन का ऐलान कर दिया। सरकार के सामने अब इस बात की चुनौती है कि यह आंदोलन देश भर में जन आंदोलन का रूप किसी भी तरह न ले पाये। इससे पहले अन्ना के आंदोलन में जिस तरह पूरे देश के लोग सड़कों पर आ गये थे उससे सरकार बहुत असहज स्थिति में आ गयी थी। सरकार को पता है कि यदि इस बार भी अन्ना के समर्थन में इस तरह का जनांदोलन शुरू हुआ तो उसे लेने के देने पड़ जायेंगे।
केन्द्र सरकार के सामने परेशानी की बात यह भी है कि सोनिया गांधी ऑपरेशन के चलते अपने पुत्र राहुल गांधी के साथ देश से बाहर हैं। इस बार किसी भी जन आंदोलन से निपटने की कमान प्रधानमंत्री के हांथों में है जो बहुत सफाई के साथ यह कहते रहे हैं कि वह तो स्वयं को लोकपाल के अधीन लाने को तैयार हैं।
मगर उनके सहयोगी इसके लिये तैयार नहीं हैं। अब इस देश को तय करना है कि उसे एक कमजोर प्रधानमंत्री चाहिये या भ्रष्ट्राचार के विरुद्ध कड़े तेवरों के साथ एक मजबूत लोकपाल। जाहिर है आने वाले दिन सरकार के साथ-साथ देश का भी भाग्य तय कर देंगे
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