चंडीगढ़ से प्रकाशित -दैनिक ट्रिब्यून के पूर्व संपादक, भोपाल में माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विवि के संस्थापक कुलपति और हरियाणा साहित्य अकादमी के निदेशक रहे श्री राधेश्याम शर्मा पिछले दिनों मध्यप्रदेश सरकार के प्रतिष्ठित -माणिकलाल वाजपेयी- पुरस्कार से सम्मानित हुए। कुछ माह पहले माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विवि ने उन्हें डी लिट् की मानद उपाधि भी प्रदान की थी। स्वस्थ पत्रकारिता के लिए राष्ट्रीय स्तर के पुरस्कार वे पा चुके हैं। वे संपादक रहे, कुलपति रहे या अकादमी के निदेशक लेकिन अपनी पहचान वह पत्रकार के तौर पर आंकते हैं। करीब ७७ साल की आयु में वे सक्रिय है, लिखते-पढ़ते हैं और क्षेत्र में होने वाली साहित्यिक और पत्रकारिता से जुड़ी गोष्ठियों में हिस्सा लेते हैं। वे कथनी और करनी में अंतर नहीं करते। अपनी शादी में दहेज नहीं लिया, शगुन के तौर पर एक रुपया और नारियल लेकर शादी कर ली। इकलौते बेटे की शादी भी एक रुपया और नारियल लेकर ही हुई।
महेंद्रसिंह राठौड़ ने कुछ सवाल पूछे जिसके कुछ अंश।
बचपन से अब तक के सफर पर कुछ बताएं
मेरा जन्म एक मार्च १९३४ को हरियाणा-राजस्थान सीमा पर स्थित पुरानी नीमराणा रियासत के गांव जोनयचां कलां में हुआ। यही मेरा पुश्तैनी गांव है। बताना इसलिए पड़ा क्योंकि कुछ लोग मुझे मध्यप्रदेश का समझते रहे हैं। इसकी वजह यह रही कि पहली कक्षा से पढ़ाई और बाद में पत्रकारिता की शुरूआत वहीं से हुई और वही कर्मक्षेत्र रहा है। पिताजी गांव में सरकारी शिक्षक थे और कड़ा अनुशासन रखते थे। सब ठीक चल रहा था। एक दिन पता चला कि पिताजी सब कुछ छोड़ छाडक़र संन्यासी हो गए और घर छोड़ दिया। मां के ऊपर सारी जिम्मेवारी आ गई, पिताजी ने ऐसा क्यों किया, मुझे तो क्या पता होता मां को भी ज्यादा जानकारी नहीं थी। मां ने सब भगवान पर छोड़ दिया। मैं तब चार साल का था, खेलने खाने के दिन थे अचानक इस संकट से सब कुछ बिखर सा गया। मां ने सोचा यहां गांव में बच्चे की पढ़ाई नहीं हो सकेगी, वह मुझे पढ़ाकर बहुत बड़ा आदमी बनाने की इच्छा रखती थीं। इसलिए उन्होंने अपने भाई जयनारायण शर्मा से संपर्क किया। वे मध्यप्रदेश के बालाघाट जिले में स्थित तहसील वारासिखनी में ट्रेजरर थे। मामा जी स्थिति को देखते हुए अपने साथ ले गए। मां मायके में रेवाड़ी तहसील (हरियाणा) के गांव में रही। बस पुश्तैनी गांव जोनायचां कलां छूटा और मैं मध्यप्रदेश का हो गया। कभी-कभार गांव आना होता था, हालांकि बाद में पिता घर लौट आए थे लेकिन मैं मामा जी के पास ही रहा। मुझे मामाजी के घर का माहौल इतना अच्छा लगा कि मैं चाहकर भी गांव नहीं आया। घर की परिस्थिति के चलते बचपन बहुत अच्छा नहीं गुजरा लेकिन विपरीत हालात ने मुझे बहुत कुछ सिखा दिया।
मेरी शुरुआती शिक्षा मध्यप्रदेश में हुई। मैट्रिक १९५० में जबलपुर से की, तब पुराने मध्यप्रदेश में ११ साल में मैट्रिक होती थी। यह करके वाराणसी गया काशी हिंदू विवि में विज्ञान पढऩे, इरादा था डाक्टर बनने का। वहां से इंटरमीडिएट साइंस के बाद बीएससी प्रथम वर्ष में दाखिला लेने तक पत्रकारिता की ओर झुकाव होने लगा। अखबारों में लिखना और खबरें भेजना शुरू किया।
इंडियन एक्सप्रेस समूह का -दैनिक जनसत्ता- १९५२ में निकला था, तब में उसका बनारस में संवाददाता था, लेकिन वह साल भर बाद बंद हो गया था। शिक्षक रहते हुए सागर से बीए किया। फिर दैनिक युगधर्म जबलपुर के १९५६ से सिटी रिपोर्टर रहते हुए १९५८ में जबलपुर विवि से नियमित छात्र के बतौर एमए किया।
यह संयोग ही है कि शिक्षकीय कार्य छोडक़र १९५४ में नागपुर में -दैनिक युगधर्म- में प्रशिक्षु उप-संपादक बना, वेतन साठ रुपए महीना लेकिन चार माह बाद संपादकजी ने भगा दिया कि जाओ पहले हिंदी लिखना सीखो, तुम कभी पत्रकार नहीं बन सकते। इसके बाद शिक्षकीय कार्य शुरू किया लेकिन अध्ययन और अखबारी लेखन या संवाद संकलन जारी रखा। संयोग बना कि १९५६ में जबलपुर से उसी युगधर्म का जबलपुर संस्करण शुरू हुआ तो नगर संवाददाता बनने का अवसर मिला।
तब और अब में क्या अंतर देखते हैं
जमीन-आसमान का, समय के साथ सब बदलते ही हैं इसमें कोई नई बात नहीं है। तब साधन नहीं होते थे, वेतन भी बहुत कम होता था लेकिन उस दौर के हिसाब से ठीक माना जा सकता है लेकिन जिम्मेवारियां बहुत होती थी। साइकिल पर सारे शहर की परिक्रमा, खबर कहां मिलेगी, इसकी चिंता। खबर लाओ, लिखो, खुद ही प्रूफ पढ़ो, फिर पेज का मेकअप कराओ तब छुट्टी होती थी। दिन में खबर के पीछे भागो, प्रेस में रात के दो से तीन बजे तक काम, सवेरे उठे तैयार हुए और सीधे कालेज। अब तो सारी सुविधाएं है, फोन से लेकर इंटरनेट, बैठे-बैठे खबर बना लो, जहां जरूरी हो वहां चले जाओ कहने का मतलब है पत्रकारिता में पहले और अब में बहुत अंतर है। मैं ऐसा नहीं कहता कि आज के पत्रकारों पर जिम्मेवारियां नहीं है, हैं लेकिन वे बहुत दबाव में काम करते हैं, हमारे समय में यह दबाव नहीं था। दबाव में कोई भी काम सहजता से नहीं होता।
राजनीतिक रिपोर्टिंग आती नहीं थी, स्पोर्टस का जबलपुर अच्छा केंद्र था, उसकी रिपोर्टिंग शुरू कर दी, जहां कोई मैच हुआ पहुंच गए। तब खेल जगत वाले हिंदी के अखबारों को महत्व नहीं देते थे। उनकी खबरें ही अंग्रेजी अखबारों में छपती थीं। धीरे-धीरे तालमेल हुआ, मित्रता का दायरा बढ़ा, जबलपुर में स्पोट्र्स की हिंदी अखबारों में नियमित रिपोर्टिंग की शुरुआत का Ÿोय युगधर्म को मिला।
१९५६ में राज्य पुनर्गठन हुआ तो हाईकोर्ट नागपुर से जबलपुर आ गया, सोचा अब हाईकोर्ट की रिपोर्टिंग करनी होगी। किसी बड़े वकील के पास पहुंच जाते कि कोई अहम फैसला हो तो बता दें। वकील भी एक से एक दिग्गज और हम एकदम नादान, सामान्य वेशभूषा में लेकिन उनका बड़प्पन कि प्यार से मिलते, कभी-कभी फैसले की फाइल ही सामने रख देते। जब कुछ दिक्कत होती तो कहते अंतिम पेज पढ़ लो खबर बन जाएगी। उनको नाम छपाने की चिंता नहीं होती थी बल्कि कहते कि नाम नहीं छापना।
एक वरिष्ठ वकील से वास्ता पड़ा, बड़े खुश हुए बोले हम तुम्हें पत्रकार बनाएंगे। वे लंदन स्कूल आफ इकोनोमिक्स में पढ़े थे, वहां पत्रकारिता भी की थी। उनकी सभी बेटियां उन दिनों लंदन में पढ़ रही थीं। वे पत्रकारिता पर लेक्चर देते, समझाते ज्ञान की बात, क्या लिखना और कैसे लिखना। उनसे काफी कुछ सीखने को मिला।
तब मुख्य न्यायाधीश थे एम हिदायतुल्ला, जो बाद में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और उपराष्ट्रपति बने। सोचा उनसे परिचय किया जाए, चिट देकर चैंबर में पहुंच गए, उनका बड़ा दबदबा था, बड़ा नाम भी था, बड़े विद्वान और सहृदय। जब भी जाता बड़े प्यार से मिलते और समझाते। एक रात भीमराव अंबेडकर के निधन की खबर आई, सिटी रिपोर्टर के नाते स्थानीय शोक संदेश बटोरने की जिम्मेवारी मिली, सोचा कानूनी जगत का इस शहर में हिदायतुल्ला से बड़ा कौन है, उनका शोक संदेश लेना चाहिए, रात को बारह बजे फोन किया, मैंने सोचा वे सो चुके होंगे, कुछ देर बाद उन्होंने ही फोन उठाया। मैंने नींद खराब करने पर माफी मांगी, अपना नाम बताया और कहा कि आपका शोक संदेश चाहिए इसके बिना खबर पूरी नहीं होगी। बोले अच्छा लिखो पर अंग्रेजी में लिखाऊंगा। उन्होंने संदेश लिखवाया, अगले दिन खबर केवल हमारे अखबार में थी। दरअसल मैंने किसी विवि से पत्रकारिता की कोई डिग्री नहीं ली लेकिन संपर्कों और कुछ बनने की ललक ने सब कुछ सिखा दिया।
इस बीच एमए करते ही तरक्की मिली और भोपाल तबादला हो गया, विशेष संवाददाता तो बन गया लेकिन वहां कोई सीधे मुंह बात नहीं करता था। खुद जाकर सबसे परिचय करना पड़ा। दिल्ली के अखबारों के संवाददाताओं को उन दिनों दबदबा ज्यादा था। फिर मेरा अखबार तो सरकार के खिलाफ भी दमदारी से लिखता था तो अनेक लोग जिनमें कुछ अफसर भी थे दूरी बनाकर रखते थे। धीरे धीरे हालात बदले, खबरे मिलने लगीं।
उस दौरान ठाकुर गोविंद नारायण सिंह से परिचय हुआ, वह काशी हिंदू विवि के टापर और स्वर्ण पदक प्राप्त लेकिन बोलते थे ठेठ देहाती यानी बखेलखंडी। उनको तब मुख्यमंत्री कैलाशनाथ काटजू और प्रदेश का अध्यक्ष मूलचंद देहलहरा ने पार्टी की तीसरी पंचवर्षीय योजना समिति का सचिव बनाया। काशी विवि के छात्र होने के नाते उन्होंने छोटा भाई तो बना लिया लेकिन परीक्षा भी ले ली। योजना के बारे में बताया और कहा कि छपने पर दिखा देना। जब खबर छपी तो पढऩे के बाद पक्के दोस्त बन गए। वे उपमंत्री बने तो मैंने कहा -दाऊ हमारे घर भी मुंह मीठा कर लेना। उन्होंने सुबह फोन किया और कहा -हम तोहार घर आब तो खाली मिठाई नही खाब, खाना भी खाब. वे घर आए, साथ में कांग्रेस नेता शत्रुघ्न तिवारी और जागरण के तत्कालीन स्थानीय संपादक जुगलबिहारी अग्निहोत्री को भी लाए। घर में सोफा नहीं था और न ही डाइनिंग टेबल, जमीन पर दरी पर बैठकर भोजन किया, सभी खुश होकर गए। एक दिन मंत्रिमंडल की बैठक के बाद में उनके घर पहुंचा और पूछा दाऊ क्या फैसले हुए। बोले -हम नहीं जानत, जे फाइल पड़ी है देख लो।
पत्रकारिता में आपने न काहू से दोस्ती न काहू से बैर को कैसे निभा लिया
मैंने एक रणनीति सदैव अपनाई, राजनीतिक दौड़ में होई हार गया या दरकिनार, मैंने अपने संपर्कों में कमी नहीं आने दी। इसकी नतीजा यह होता कि जब वे सत्ता में आते मुझ पर सबसे ज्यादा भरोसा करते। १९५१ में नेहरू से टक्कर लेने के बाद द्वारका प्रसाद मिश्र राजनीति में हाशिए पर आ गए लेकिन मैंने उनसे मुलाकातें जारी रखी। १९६३ में जब वे मुख्यमंत्री बने तो उनके खिलाफ भी कलम चलाई, अपरोक्ष रूप से मुझे धमकी भी मिली लेकिन मेरी कलम नहीं रुकी। १९७५ में आपातकाल लगा, मेरे अखबार पर तो पाबंदी लगी पर मेरे संपर्कों और वैचारिक विरोधियों का मुझ पर विश्वास का नतीजा था कि मुझे हाथ नहीं लगाया गया। तीन माह बाद पाबंदी हटी फिर से अखबार को खड़ा करने में साथियों के साथ जुटा। पत्रकारिता में संघर्ष का नया पाठ इस दौर ने सिखाया। उस दौर के तनाव ने हाई ब्लड प्रेशर से स्थायी दोस्ती करा दी।
दादा माखनलाल चतुर्वेदी द्वारा १९५८ में एक बातचीत में कही बात आज तक दिलो दिमाग में है-पत्रकार के लिए कलम ही सबसे बड़ी है, यह न रुकनी चाहिए, न झुकनी चाहिए, अटकनी चाहिए और न ही भटकनी चाहिए।
आज की पत्रकारिता के बारे में कुछ
बहुत कुछ कहने का मन है, कभी-कभार मन द्रवित भी होता है लेकिन समय की बलिहारी है, कोई कुछ कहे यह सब चलता रहेगा। देखो अब के मालिक पहले जैसे नहीं तो संपादक भी पहले जैसे नहीं तो भला पत्रकार कैसे पहले जैसे रहते। जैसे मालिक वैसे ही संपादक और वैसा ही अखबार का चरित्र। ज्यादातर अखबार कारोबारी लोगों के हाथों में हैं जो इसे कवच बनाकर शोहरत और पैसा कमाना चाहते हैं। इसमें पत्रकारिता का उद्देश्य गुम होता जा रहा है। क्या खबर छपे, कैसी छपे, किस पेज पर छपे सब मालिक लोग तय कर लेते हैं। यह मैं ज्यादातर अखबारों की बात कर रहा हूं, अपवाद के तौर पर कुछ समूह अब भी ऐसे हैं जहां संपादक काफी कुछ तय करते हैं। ज्यादातर संपादक नाम के हैं काम के उंगलियों पर गिनने लायक ही। पत्रकारिता में बिकाऊ हो जाने को मैं सबसे नीच काम समझता हूं। जो बिक गया वह पैसे बनाने में लग गया, उसके अंदर का स्वस्थ पत्रकार मर गया। जिस पत्रकार या संपादक की एक बार बोली लग गई या वह किसी कीमत पर बिक गया समझो वह खत्म हो गया, उसकी औकात का पता लग गया, अगली बार उसे वह कीमत नहीं मिलेगी जो पहले मिल चुकी है।
पत्रकारिता में कीमत लगाने वाले बहुत हैं, बिकने वाले भी बहुत है। कुछ अखबारों में पत्रकारों को वेतन बहुत कम मिलता है ऐसे में उनकी कलम भटक सकती है। कलम भटकी या रुकी तो समझो बेड़ा गर्क हो गया। आज के बाजारवाद के युग में पेड न्यूज का चलन इसी का नतीजा है वरना चुनाव तो पहले भी होते थे, विज्ञापन पहले भी छपते थे लेकिन खबर की कीमत पर पैसा लेकर विज्ञापन के तौर पर छापने का रिवाज नहीं था। जिन खबरों में विज्ञापन जैसा कुछ भी लगता था उन्हें रिजेक्ट कर दिया जाता था। फिर चाहे किसी की सिफारिश आए या दबाव वह खबर के बतौर नहीं छप सकती थी। पत्रकारों और संपादकों को प्रलोभन पहले भी मिलते थे और अब भी मिल रहे हैं और आगे भी मिलते रहेंगे लेकिन उन्हें स्वीकार करने की जरूरत क्या है? अगर जरूरत है तो आप पत्रकारिता की आड़ में दलाली कर रहे हैं। अगर आपका मकसद अखबार या मीडिया के माध्यम से धन और शोहरत कमाना ही है तो आप करें नहीं तो विशुद्ध रूप से स्वच्छ पत्रकारिता ही करें। मुझे बहुत बार बहुत लोगों ने परखा लेकिन उन्हें निराशा ही हाथ लगी, आखिर में मुझे उनके मुंह से अपरोक्ष रूप से यही सुनने को मिला कि यह आदमी हमारे काम का नहीं हो सकता। जो आदमी न पीता है न खाता है वह क्या खाक हमारे पक्ष में लिखेगा या अपने संवाददाता से लिखवा सकेगा। मुझे यह सुनने में बुरा नहीं लगता था क्योंकि मैं जैसा था वैसा बने रहना चाहता था। चंडीगढ़ में एक महानुभाव ने एक बार घर पर आमंत्रित किया, मैंने जाते ही बोल दिया कि ना तो मैं पीता हूं और न ही यह सब खाता हूं, यह सुनकर उनका मुंह उतर गया क्योंकि ज्यादातर सौदेबाजी की बातें पीने पिलाने के बाद ही हुआ करती है। हो सकता है कि काकटेल पार्टी के बहाने वे मुझे अपने प्रभाव में लेना चाहते हों। मैंने सादा खाना खाया, खूब बातें की और चला आया। उसके बाद उन्होंने मुझे फिर अकेले में पार्टी में नहीं बुलाया और जहां तक मुझे याद है कभी मिलने भी नहीं आए।
मध्यप्रदेश से चंडीगढ़ कैसे पहुंच गए?
वर्ष १९७८ के दौरान एक कार्य के सिलसिले में दिल्ली आया था, पता चला कि ट्रिब्यून, चंडीगढ़ का हिंदी संस्करण निकलने वाला है। यह लाहौर का अखबार है जो १८८१ से शुरू हुआ था और विभाजन के बाद यहां आया। इसे एक ट्रस्ट चलाता है। सोचा यह अखिल भारतीय स्तर का होगा, कोशिश करने में क्या हर्ज है। चंडीगढ़ के एक परिचित पत्रकार से फोन पर बात की और बायोडाटा भेज दिया। किसी को बताया नहीं, तुरंत चंडीगढ़ से बुलावा आ गया, तब आने-जाने का प्रथम Ÿोणी का किराया देने की बात लिखी थी। फिर क्या था वहां से रवाना हो गया, यहां साक्षात्कार हुआ आौर चुन लिया गया। वेतन मेरे कहे अनुसार देने के लिए तैयार थे लेकिन बोले कि यहां दो नंबर पर रहना होगा। चूंकि मैं युगधर्म में संपादक था इसलिए एक बार मन नहीं माना लेकिन बाद में किसी तरह तैयार हो गया। एक साल की छुट्टी लेकर चंडीगढ़ आ गया, फिर दो नंबर से एक नंबर यानी संपादक भी बन गया। यहां भी भोपाल वाली रणनीति काम आई। हरियाणा में लालों की राजनीति यानी देवीलाल, बंसीलाल और भजनलाल का वर्चस्व था। देवीलाल के सितारे जब गर्दिश में थे तो मैंने उनको खूब छापा, न्याय युद्ध के बाद जब वे मुख्यमंत्री बने तो जहां उनकी आलोचना होनी थी वह भी की लेकिन संबंधों में कभी दरार नहीं आई। हरियाणा की राजनीति जानने वाले बंसीलाल के तेवर भी समझते हैं। दो टूक कहने वाले और कार्रवाई करते देर नहीं लगाने वाले बंसीलाल से भी मेरे संबंध अच्छे रहे। १९८७ में जब कांग्रेस को राज्य में ९० में से पांच सीटें मिली, खुद बंसीलाल हार गए थे। मैंने उनसे संपर्क जारी रखा, एक बार बातचीत में उनसे कहा कि हार-जीत चलती रहती है लेकिन अखबार में आपको फिर भी स्थान मिलता रहेगा। उनकी फोन पर दी गई खबरें छपती थी। १९९६ में जब बंसीलाल मुख्यमंत्री बने तो मुझे वही सम्मान मिला हालांकि तब मैं संपादक भी नहीं था केवल स्वतंत्र पत्रकारिता ही करता था।
ज्यादातर किस तरह की पत्रकारिता की है
हर तरह की, क्राइम रिपोर्टिंग से लेकर विधानसभा की, झाबुआ और बस्तर के अनजान से आदिवासी से बात की तो इंदिरा गांधी जैसी बोल्ड महिला से साक्षात्कार भी किया। समाज के दबे कुचले वर्ग के लिए मेरे मन में हमेशा जगह रही है इसलिए आदिवासी इलाके बस्तर, सरगुजा, रायगढ़, मंडला, झाबुआ, सीधी, शहडोल के अलावा गुजरात, अरुणाचल प्रदेश, आसाम और महाराष्ट्र के ऐसे इलाकों का भ्रमण किया और खूब लिखा। पत्रकारिता में अगर मैं इस मुकाम पर पहुंचा तो इसके पीछे वे लोग हैं जिन्होंने मुझे हर कदम पर बढ़ावा दिया। मैं नाम नहीं बताना चाहूंगा लेकिन कुछ लोग इतना भरोसा करते थे कि गोपनीय सूचना भी मुझे दे देते थे। मेरे पास सूत्रों की कमी नहीं थी इसलिए खबरों का कभी अकाल नहीं रहा। बहुत बार अच्छी खबरों के लिए संपादकों की वाहवाही मिली। यही तरीका मैंने भी अपनाया जिस किसी रिपोर्टर ने आफ बीट खबर लिखी उसका उत्साह बढ़ाया।
कुछ नामी संपादकों की तरह राष्ट्रीय स्तर पर आपकी पहचान न बनने की वजह
हो सकता है मैं ऐसे लोगों के समकक्ष ना पहुंचा हूं जिनकी आप चर्चा कर रहे हों पर मैं अपने किए काम से संतुष्ट हूं। यह लोगों की इच्छा पर निर्भर है कि वे किस शख्स को किस रूप में और किस तरह देखना चाहते हैं। छोटे-मोटे विवाद को छोड़ दें तो ऐसे किसी झमेले में नहीं फंसा जिसमें बदनामी झेलनी पड़ी हो। मैने जिंदगीभर स्वस्थ पत्रकारिता की है, अपने उसूलों और आदर्शों को कायम रखने का प्रयास किया। इसमें कहां तक सफल रहा हूं इसका आकलन लोग ही करें तो बेहतर होगा। भूदान आंदोलन में बिनोबा भावे के साथ भी जुड़ा रहा हूं। मध्यप्रदेश में डाकुओं के आत्मसमर्पण के अभियान में खूब रिपोर्टिंग की है। जयप्रकाश नारायण जेपी और मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रकाशसिंह सेठी के सामने दस्युओं ने हथियार डाले थे, मैंने वह पूरी रिपोर्टिंग की थी। सेठी के बारे में प्रचारित था कि वे बात-बात में आपा खो बैठते थे, एक बार तो उन्होंने किसी बात पर पिस्तौल निकाल ली थी। (हंसते हुए) खबर के सिलसिले में मेरी अक्सर उनसे बातचीत होती थी और कभी ऐसा मौका नहीं आया जिसमें वे उखड़ गए हों।
कोई प्रेरक प्रसंग जो आप लोगों को बताना चाहें
हां क्यों नहीं बहुत हैं लेकिन दो का जिक्र करना चाहूंगा। माखनलाल चतुर्वेदी ने एक बार बातचीत में कहा था-पत्रकार बनना चाहते हो तो देखो, एक बात हमेशा याद रखना। तुम्हारी कीमत एक बार ही लगेगी, चाहे आज लगा लो चाहे साल, दस साल या बीस साल बाद। चाहे जितनी लगा लो, हजार, लाख, दस लाख किंतु समझ लो यदि एक बार कीमत लगा दी तो दूसरे दिन से तुम्हारी कीमत शून्य हो जाएगी अगर कीमत नहीं लगने दी तो यह लगातार बढ़ती जाएगी लेकिन कभी लगाना मत। यह बात गांठ में बांध ली और इस पर अमल किया और कभी कीमत लगने नहीं दी।
दूसरा प्रसंग टाइम्स आफ इंडिया, इंडियन एक्सप्रेस और ट्रिब्यून के संपादक रह चुके प्रेम भाटिया जी से जुड़ा है। वो मेरे कुछ कुछ आदर्श भी रहे हैं। एक बार बोले देखो, दिन में १० बजे से ५ बजे तक काम तो नौकरी है, इसके लिए तुम्हें वेतन मिलता है। इसके अलावा जो काम करते हो वह मिशन है। उनकी प्रेरणा का फल है कि जो भी जिम्मेदारी मिली मिशन के तौर पर किया। शायद इसी का नतीजा रहा कि सेवानिृवत्ति के बाद भी चंडीगढ़ और पंचकूला से राष्ट्रीय स्तर के समाचार पत्रों ने संपादक और सलाहकार के तौर पर रखा।
प्रिंट, इलेक्ट्रानिक्स और न्यू मीडिया के बारे में कुछ बताएं
समय के साथ मीडिया का स्वरूप बदल रहा है लेकिन उद्देश्य वही है। प्रिंट मीडिया का अपना महत्व है और यह कभी कम नहीं होगा। चूंकि मैं प्रिंट मीडिया में ही रहा इसलिए मुझे यही बेहतर लगता है। इलेक्ट्रानिक्स मीडिया की पहचान बन रही है और चैनलों पर चैनल खुल रहे हैं और बंद भी हो रहे हैं। मीडिया में प्रतिस्पद्र्धा पहले भी थी, अब भी है और आगे भी रहेगी। अब स्वस्थ प्रतिस्पद्र्धा नहीं है बल्कि यह गलाकाट हो गई है। पहले खबरों को लेकर एक दूसरे से आगे बढऩे की होड़ थी अब राजस्व के आंकड़ों और टीआरपी को लेकर एक दूसरे से आगे बढऩे का खेल चल रहा है। एक बात कहना चाहूंगा मीडिया का रूप चाहे कोई हो लेकिन ईमानदारी कायम रहनी चाहिए। मीडिया से जुडऩे वाले लोगों को यही संदेश है अपनी कीमत नहीं लगने देना और किसी तरह के समझौते के लिए कभी राजी नहीं होना। वह समय भी देखा, यह भी देख रहे हैं। सजग प्रहरी पत्रकार, अखबार और पत्रकारिता के प्रति जो सोच और विश्वास था उसकी स्थिति कैसी हुई है। वह शायद इस प्रकार है।
हम तो सोचते थे मुंसिफ से करेंगे फरियाद
लेकिन वह भी कम्बख्त तेरा चाहने वाला निकला
फिर भी भरोसा है हालात बदलेंगे और अवश्य बदलेंगे।
By .. Mahendra rathore
thanks gangwar ji, agar pic bhi istemal ho to behter hoga.
ReplyDeleteअच्छा लगा एक सिद्धांतवादी पत्रकार के बारे में पढकर ।
ReplyDeletenice
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