एक और संजय नहीं....
वह लगभग चौदह-पन्द्रह वर्ष का लड़का था.....नाम था संजय...आश्रम में सफाई और इधर-उधर के छोटे-मोटे काम करता...तवे सा काला रंग, फटी पैंट, बड़े-बड़े दाँत, मैली टीशर्ट और हमेशा चेहरे पर रहने वाली हँसी उसकी पहचान थी....उसके दिन भर हँसते रहने से आश्रम आने वाले यात्री परेशान होते और इसी से वह सबकी डांट खाता...एक दिन उसे किसी ने इसी बात पर थप्पड़ मार दिया और वह रोता हुआ मेरे पास आया...मैंने उसे चुप कराते हुए कहा कि तुम सफाई से रहने की आदत डालो और मुझसे रसोई का काम सीखो....मेरे जाने के बाद स्वामीजी की सेवा करना...यहाँ तुम्हे कोई कुछ नहीं कहेगा...मैं लगभग दो महीना हरिद्वार रहती ही थी...उसी दौरान मैंने उसे सब काम समझा दिया और उसने भी निष्ठा से सीखा...उसे ज़िम्मेदारी सौंपकर मैं वापस शाहजहाँपुर आ गयी....लगभग आठ महीने बाद दोबारा हरिद्वार जाना हुआ...वहाँ पहुँच कर देखा तो पुराना संजय पहचान में ही नहीं आया....कान में बाली, गले में सोने की चेन, ऊँगली में अंगूठी, कलाई में घड़ी, नोकिया के तीन-तीन महंगे सेट, दस से ज्यादा जोड़ी चप्पल-जूते, और अनगिनत ब्रांडेड कपड़े....मैं हैरान रह गयी...स्वामीजी के साथ ऐसे लोग भी थे जो दस साल की उम्र में आये और आज दस साल के बच्चे के पिता हैं...मैंने कभी भी स्वामीजी को उनके प्रति इतना उदार नहीं देखा....वेतन के अलावा सामने होते तो पर्वों पर सौ-दो सौ दे देते...इसके अलावा उनके द्वारा इस्तेमाल की हुई वस्तुओं पर ही कर्मचारियों की दृष्टि होती थी और वे उन्हें पाकर प्रसन्न भी होते थे....नया खरीद कर देना तो काफी नयी घटना थी मेरे लिये...दो दिन बाद संजय को स्वामीजी के आसन पर सोते देखा...क्रोधित हो मैंने उसे डांटा तो वह खड़ा हो गया और बोला, दीदी स्वामीजी ने ही कहा था कि यहाँ सो जाया करो...यह एक और नयी बात थी...मुझे विश्वास नहीं हुआ...मैंने स्वामीजी से पूछा तो उन्होंने माना...अपनी उस समय की स्तिथि को मैं शब्दों में नहीं बता सकती....जो आश्रम से जुड़े हैं वह समझ सकते हैं कि यह कितनी बड़ी बात थी....मेरे वहाँ न रहने पर वह सोफे पर बैठता और कर्मचारियों को घंटी बजाकर बुलाता...ऐसा स्वामीजी के अलावा और कोई नहीं करता था...पहली बार में जो देखा उससे स्तब्ध थी...धीरे-धीरे आगे और बातें सामने आती गयीं और हैरानी की जगह गुस्से ने ले ली... जो हो रहा था वह ठीक नहीं था...स्वामीजी से क्या कहती और निर्लीप्त रह नहीं पा रही थी...बस गंगा जी से मानसिक शांति की गुहार लगाती....जाने क्यों तब तक मुझे यही लगता रहा कि स्वामीजी यह सब जानते नहीं हैं या फिर फुर्सत न होने के कारण जानना ही नहीं चाहते....वह वहाँ लगभग चार साल रहा...इस बीच बहुत कुछ हुआ...पूरे आश्रम में कोई नहीं था जो उसे कुछ कह पाता.. जिस किसी ने कभी कुछ कहा तो स्वामीजी ने कहने वाले को सबके सामने मारा...किसी से झगड़ा होने पर वह स्वामीजी के मोबाईल पर फोन करता और स्वामीजी जहाँ होते वहीँ से उसका पक्ष लेते....स्वामीजी की अनुपस्थिति में भी उनके निवास की चाबी उसके पास रहती और वह उसी में रहता...उनके आसन पर बैठकर टीवी देखता, वहीँ सोता...वहीँ खाता....यह इसलिए भी अनुचित था कि स्वामीजी का निवास आश्रम की मर्यादा का हिस्सा था...भक्तों के लिये वह मंदिर ही था....इसके अलावा नीचे भण्डार चलता था और सभी आश्रम वासी उसी में खाते थे.....मर्यादा की तो यहाँ क्या बात करूँ....उसके कमरे में टीवी और म्युज़िक सिस्टम था...जिसे वह अपने गाँव जाने के पहले बेच देता और वापस आने पर नया खरीदता....जब भी गाँव जाता स्वामीजी उसे मुँह माँगा पैसा देते....कभी दस हज़ार कभी बीस हज़ार...डेढ़ हज़ार वेतन पाने वाले कर्मचारी के हिसाब से यह बहुत अधिक था और उसके घर में ऐसी कोई आपदा भी नहीं थी कि उसे इतना पैसा सहायता के तौर पर दिया जाता हो...मुझे यह इसलिए पता था कि उसके गाँव के और भी लोग वहाँ काम करते थे.....पैसे के अलावा लगभग हर बार वह एक फोन भी घर पर देकर आता....उसके और उसके घर के इन सभी मोबाईल का खर्च स्वामीजी ही उठाते थे...इस बीच उसे शराब की लत भी लग चुकी थी...वह चोरी से अलमारी से शराब निकालता और आश्रम के अपने खास मित्रों को उपर बुलाकर उनके साथ पीता...इसके अलावा उसे जो लत थीं उनका यहाँ किन शब्दों में उल्लेख करूँ समझ नहीं पा रही हूँ...मैंने स्वामीजी से ससंकोच इशारे में चर्चा की तो वे टाल गये...वह आश्रम में रहने वाले सन्यासियों तक से अभद्रता करता....मैं परेशान थी कि जो हो रहा है वह बाबा को दिख क्यों नहीं रहा....धीरे-धीरे एक के बाद एक बातें खुलती गयीं और स्तिथि साफ़ हो गयी...वह सब मेरे लिये ही नया था वरना वह और स्वामीजी दोनों ही आश्रम में चर्चा का विषय बन चुके थे...लोग चिरौरी करते कि आप यहीं रहिये...यह आप ही का लिहाज करता है....स्वामीजी तो इसे कुछ कहते नहीं....न मेरे लिये संभव था उस गन्दगी को बर्दाश्त करना और न स्वामीजी ही चाहते थे कि मैं हरिद्वार में रह कर उनकी निजी जिंदगी में दखल दूँ....यह सब ऐसे ही चलता रहा...अचानक चार साल बाद कुछ हुआ...स्वामीजी ने उसे कमरे में बुलाया...दस मिनट बाद वह कमरे से निकला और अपना सामान लेकर आश्रम से चला गया...उसके कुछ दिन बाद स्वामीजी को शायद कुछ पता चला और उन्होंने अपने ड्राइवर को भेज कर उसे दोबारा बुलवाया...उसके आते ही कमरा अंदर से बंद हो गया....आखिरी बार फिर बंद कमरे में स्वामीजी की और संजय की कुछ बात हुई और तब से आज तक संजय की कोई खबर नहीं...वह ऐसे गया जैसे कभी था ही नहीं...क्या हुआ मुझे पता नहीं...उसे क्यों निकाला मुझे पता नहीं...सफाई करने वाले लड़के से भारत के पूर्व गृह राज्यमंत्री और इतने बड़े आश्रम के अध्यक्ष को कमरा सील करके चर्चा क्यों करनी पड़ी, मुझे पता नहीं....यह रहस्य वह अपने साथ ही ले गया...उसके जाने के बाद मेरा क्रोध शांत हो गया और मैं उसकी सारी गलतियाँ भूल गयी...याद रह गया तो केवल उसका वही हँसता हुआ चेहरा...उसका दौडकर आकर पाँव छूना और बच्चे सा ठुनकना....उसका भोलापन इस हश्र का अधिकारी नहीं था...अपनी आँखों को पोंछते हुए खुद से ही वादा करती हूँ कि वह कभी मिला तो उसकी जिंदगी को वापस पटरी पर लाने का ईमानदार प्रयास करुँगी.....यह बहुत आवश्यक इसलिए है कि आजकल स्वामीजी के पास रहने वाले लड़के शत्रुघ्न के लिये भी लोग यही कहते हैं कि यह भी संजय बन गया है...संजय का नाम ही मानो गाली हो गया है....अब कोई तीसरा लड़का संजय न बने ऐसी प्रार्थना और प्रयास है......
Sabhar:- http://chidarpita.blogspot.com/
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