देश की मशहूर हस्ती पर चैनल मुकदमा चलाता है,उन्हें परेशान करनेवाले सवाल करता है और शो के आखिर में उनका शुक्रिया अदा करते हुए बाइज्जत बरी कर देता है। राज्य सभा पर मीडिया आलोचना औऱ परिचर्चा के लिए मीडिया मंथन नाम से जो शो चल रहा है,उसका काम भी कुछ उसी तरह का है। शो की शुरुआत में चैनल मीडिया से जुड़े चाहे जिस भी सवाल को उठाता है,उस पर एक छोटी सी पैकेज प्रसारित करता है। ये पैकेज इतने दमदार होते हैं कि आप मीडिया के नाम पर इस देश में जो भी गड़बड़ियां हो रही हैं,उसकी वास्तविक स्थिति को आसानी से समझ सकते हैं।
लेकिन उसके बाद उर्मिलेश की ओर से पैनल में शामिल अतिथियों से जिस तरह के सवाल-जबाब किए जाते हैं,उसमें तल्खी एकदम से खत्म हो जाती है। अंत आते-आते उर्मिलेश इन मेहमानों के साथ ठीक उसी अंदाज में पेश आने लग जाते हैं,जिस तरह से आपकी अदालत का जज। पैकेज में मीडिया को लेकर जो क्रिटिकल एप्रोच होता है,वो परिचर्चा में अंत तक आते-आते खत्म हो जाता है और हर बार यही निष्कर्ष निकलता है कि थोड़े प्रयासों के बाद मीडिया की मौजूदा हालत को दुरुस्त किया जा सकता है।
ऐसा इसलिए होता है क्योंकि आमतौर पर परिचर्चा में उन्हीं चैनलों और मीडिया संस्थानों के लोग शामिल होते हैं जो अपने-अपने स्तर से या तो उन गड़बड़ियों को बढ़ावा दे रहे हैं,नजरअंदाज कर रहे हैं या फिर वो चाहकर भी उसे रोक नहीं पा रहे हैं। नतीजा जब वो संबंधित मीडिया विषय पर बात करते हैं तो वह वस्तुस्थिति का सही-सही आकलन के बजाय अपने पक्ष में दिया गया कुतर्क ज्यादा होता है। तब ऐसा लगता है कि इस शो का दो ही उद्देश्य है- पहला पब्लिक ब्राडकास्टिंग की तरफ से निजी मीडिया पर आरोप लगाना और दूसरा निजी मीडिया की ओर से अपने बचाव और पक्ष में तर्क देना और अंत में उज्जवल भविष्य की कामना के साथ शो को खत्म कर देना।
पैकेज के अलावे ये शो किसी भी स्तर पर क्रिटिकल नहीं हो पाता क्योंकि जो मुजरिम है,वही वकील बनकर शो में शामिल होते हैं। बड़े चेहरे और नाम से पैनल तो सजा हुआ जरुर दिखता है लेकिन कभी भी नई बात निकलकर नहीं आती। मीडिया कंटेट के अलावे वितरण,बाजार औऱ विज्ञापन को लेकर जो मारकाट मची होती है,उसके भीतर की जो सडांध है,उस पर बात नहीं होती और सबकुछ सतही स्तर पर चर्चा करके खत्म हो जाती है। शो का सबसे कमजोर पक्ष है कि वो पब्लिक ब्राडकास्टिंग को लेकर कोई सवाल नहीं करता और उसके लिए मीडिया का अर्थ सिर्फ निजी मीडिया है। दूसरी बात साप्ताहिक शो होने के बावजूद एक ही परिचर्चा दूसरी बार भी रिपीट होने लगे तो नए शो के इंतजार में समय अलग से खराब होता है। हालांकि ये ड्राइरन पर चल रहा है लेकिन आगे अगर ये रिपीटेशन होती है तो इसका दर्शकों पर नकारात्मक असर पड़ेगा। आनेवाले समय में अगर ये शो मीडिया को लेकर क्रिटिकल नहीं हो पाता है तो जल्द ही ये आप मुझे हाजी कहो,मैं आपको काजी कहूंगा शो बनकर रह जाएगा। (मूलतः तहलका पत्रिका में प्रकाशित. तहलका से साभार)
ऐसा इसलिए होता है क्योंकि आमतौर पर परिचर्चा में उन्हीं चैनलों और मीडिया संस्थानों के लोग शामिल होते हैं जो अपने-अपने स्तर से या तो उन गड़बड़ियों को बढ़ावा दे रहे हैं,नजरअंदाज कर रहे हैं या फिर वो चाहकर भी उसे रोक नहीं पा रहे हैं। नतीजा जब वो संबंधित मीडिया विषय पर बात करते हैं तो वह वस्तुस्थिति का सही-सही आकलन के बजाय अपने पक्ष में दिया गया कुतर्क ज्यादा होता है। तब ऐसा लगता है कि इस शो का दो ही उद्देश्य है- पहला पब्लिक ब्राडकास्टिंग की तरफ से निजी मीडिया पर आरोप लगाना और दूसरा निजी मीडिया की ओर से अपने बचाव और पक्ष में तर्क देना और अंत में उज्जवल भविष्य की कामना के साथ शो को खत्म कर देना।
पैकेज के अलावे ये शो किसी भी स्तर पर क्रिटिकल नहीं हो पाता क्योंकि जो मुजरिम है,वही वकील बनकर शो में शामिल होते हैं। बड़े चेहरे और नाम से पैनल तो सजा हुआ जरुर दिखता है लेकिन कभी भी नई बात निकलकर नहीं आती। मीडिया कंटेट के अलावे वितरण,बाजार औऱ विज्ञापन को लेकर जो मारकाट मची होती है,उसके भीतर की जो सडांध है,उस पर बात नहीं होती और सबकुछ सतही स्तर पर चर्चा करके खत्म हो जाती है। शो का सबसे कमजोर पक्ष है कि वो पब्लिक ब्राडकास्टिंग को लेकर कोई सवाल नहीं करता और उसके लिए मीडिया का अर्थ सिर्फ निजी मीडिया है। दूसरी बात साप्ताहिक शो होने के बावजूद एक ही परिचर्चा दूसरी बार भी रिपीट होने लगे तो नए शो के इंतजार में समय अलग से खराब होता है। हालांकि ये ड्राइरन पर चल रहा है लेकिन आगे अगर ये रिपीटेशन होती है तो इसका दर्शकों पर नकारात्मक असर पड़ेगा। आनेवाले समय में अगर ये शो मीडिया को लेकर क्रिटिकल नहीं हो पाता है तो जल्द ही ये आप मुझे हाजी कहो,मैं आपको काजी कहूंगा शो बनकर रह जाएगा। (मूलतः तहलका पत्रिका में प्रकाशित. तहलका से साभार)
विनीत कुमार : टेलीविजन के कट्टर दर्शक। एमए हिन्दी साहित्य (हिन्दू कॉलेज,दिल्ली विश्वविद्यालय)। एफ.एम चैनलों की भाषा पर एम.फिल्। सीएसडीएस-सराय की स्टूडेंट फैलोशिप पर निजी समाचार चैनलों की भाषा पर रिसर्च(2007)। आजतक और जनमत समाचार चैनलों के लिए सालभर तक काम। टेलीविजन संस्कृति,यूथ कल्चर,टीवी सीरियलों में स्त्री छवि पर नया ज्ञानोदय,वसुधा,संचार, दैनिक जागरण में लगातार लेखन। ‘हुंकार’ ब्लॉग के जरिए मीडिया के बनते-बदलते सवालों पर नियमित टिप्पणी। सम्प्रति- मनोरंजन प्रधान चैनलों में भाषा एवं सांस्कृतिक निर्मितियां पर दिल्ली विश्वविद्यालय से पीएच.डी. सम्पर्क-vineetdu@gmail.com , Blog : Hunkaar.com.
Sabhar:- mediakhabar.com
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