द्याखौ चुतिया कौ, हमहीं से पूछत है सर्वश्रेष्ठ कवि कौन है?----
♦ विष्णु खरे
यदि वरिष्ठ कवि-आलोचक विजय कुमार का फोन न आता तो यह सब न लिखा जाता। पिछले एक दिन उन्होंने मुझसे पूछा कि मैंने अपने किस लेख में कब लिखा है कि मैं निराला को “अपाठ्य” कवि मानता हूं। मुझे उनके इस प्रश्न का संदर्भ कुछ याद तो आया, किंतु मैंने उनसे माजरा जानना चाहा। बोले कि गांधी हिंदी विश्वविद्यालय की अंग्रेजी पत्रिका में केदारनाथ सिंह का कोई अनूदित लेख या वक्तव्य प्रकाशित हुआ है, जिसमें उन्होंने कहा है कि विष्णु खरे निराला को अपाठ्य मानता है।
मैंने विजयजी से यह नहीं पूछा कि वे वर्धा की बेहूदा और खरदिमाग ढंग से संपादित-प्रकाशित कल्पनाशून्य पत्रिकाएं पढ़ते ही क्यों हैं – यद्यपि हिंदी में कूड़ा पढ़ना अनिवार्य कर दिया गया है – किंतु मामले की गंभीरता से सजग हुआ। केदारजी ने शायद अलाहाबाद के अपने किसी भाषण में उस तरह का कुछ कहा था, जिसे किसी पत्रिका ने उद्धृत भी किया था, किंतु अधिकांश हिंदी अखबारों और साहित्यिक पत्रिकाओं में ऐसे भाषणों का जो अनर्गल चर्बा छपता है, वह अविश्वसनीय और रद्दी के लायक होता है। लेकिन पूरे भाषण या लेख का ऐसा हिस्सा, भले ही आशंकित खराब अंग्रेजी अनुवाद में, कुछ तवज्जोह चाहता है।
केदारजी की प्रतिष्ठा ऐसी है कि उनके किसी भी वक्तव्य को, विशेषतः पूर्वी उत्तर प्रदेश के भोजपुरीभाषी अंचल में, आर्षवाक्य मान लिया जाता है। यदि वह कथन विष्णु खरे को निराला का निंदक ठहराता हो तो कहना ही क्या – सैकड़ों विकलमस्तिष्कों के मानस-मुकुल खिल-खिल जाते हैं।
हमारे यहां कोई यह पूछने या जानने की जहमत नहीं उठाना चाहता कि अमुक बात यदि कही या लिखी गयी है, तो कहां या कब? उसके लिखित या दृश्य-श्रव्य सबूत या गवाह क्या और कौन हैं? स्वयं केदारजी ने कोई हवाला नहीं दिया है। इतने बड़े कवि तथा प्रोफेसर-पीर से उसका मुत्तवल्ली-मंडल भला क्यों तफ्तीश करे – बाबा वाक्यं प्रमाणं।
सच क्या है? मैंने सार्वजनिक रूप से निराला पर कभी नहीं बोला है – उन पर लिखी गयी अपनी दो टिप्पणियों को अवश्य मैंने संगोष्ठियों में पढ़ा है। एक को वर्षों पहले भारत भवन में और दूसरी को पिछले तीन वर्षों में कभी हिंदी अकादेमी के तत्वावधान में दिल्ली में। पहली में निराला की बीसियों प्रारंभिक कविताओं की सराहना और यत्किंचित विश्लेषण हैं और दूसरी में उनकी सिर्फ एक कविता – “महगू महगा रहा” – की लंबी व्याख्या, क्योंकि विषय वैसा ही था। दोनों मौकों पर कुल मिला कर ढाई-तीन सौ सुधी श्रोता तो रहे होंगे, भले ही केदारजी मौजूद न रहे हों। दोनों टिप्पणियां शायद आयोजकों द्वारा प्रकाशित भी की जा चुकी हैं या उनके रिकॉर्ड में होंगी। मेरे पास तो हैं ही। उनमें निराला की हल्की-सी भी आलोचना नहीं है – वे एक निर्लज्ज भक्ति-सरीखे भाव से भरी हुई हैं।
इसे भले ही आत्मश्लाघा समझा जाए, लेकिन मैं हिंदी के शायद उन कुछ लोगों में से हूं, जिन्होंने निराला की एक-एक कविता एकाधिक बार पढ़ रखी है। नंदकिशोर नवल द्वारा काबिलियत से संपादित ‘निराला रचनावली’ के पहले दोनों (कविता) खंडों में मेरे बीसियों पेंसिल-निशान हैं और शेष छह खंड भी लगभग पूरे पढ़े हुए हैं। यह स्पष्ट ही होगा कि मैंने निराला को अपाठ्य मानकर पूरा का पूरा तो पढ़ा न होगा।
निराला से मेरी ताजिंदगी वाबस्तगी का एक ताजा उदाहरण देना चाहता हूं। निराला के सभी समर्पित पाठक जानते हैं कि नेहरू-परिवार से, विशेषतः विजयलक्ष्मी पंडित से, उनके जटिल रागात्मक संबंध थे। उनकी कुछ कविताओं में इसके साक्ष्य हैं। यह सुविदित है कि आजादी के बाद निराला की बदहाली को जानकर जवाहरलाल नेहरू ने उनके लिए एक नियमित आर्थिक सहायता का प्रबंध किया था। हाल नवंबर में संयोगवश मेरी भेंट विजयलक्ष्मी की बेटी और सुपरिचित भारतीय-अंग्रेजी लेखिका नयनतारा सहगल से हुई, जो अब स्वयं चौरासी वर्ष की हैं। अपने बदतमीज दुस्साहस में मैंने उनसे निराला और उनकी मां के विषय में पूछा, और यह भी कि क्या विजयलक्ष्मीजी के मृत्योपरांत कागजात में निरालाजी के कोई पत्र मिलते हैं, जिनका हवाला उनकी कविताओं में है? मुझे लगा कि मेरे इस प्रश्न से नयनताराजी अपने-आप में लौट गयीं और उन्होंने मुझे अजीब ढंग से देखकर – शायद यह मेरी कल्पना ही हो – सिर्फ इतना कहा कि ऐसे कोई पत्र नहीं हैं। मैंने तब बात को आगे नहीं बढ़ाया। लेकिन हमारे स्वनामधन्य मतिमंद हिंदी प्राध्यापकों को ऐसी चीजों से भला क्या लेना-देना?
निराला का मेरे लिए क्या अर्थ है, इसे ज्यादा तूल न देते हुए मैं सिर्फ अपनी तीन कविताओं का हवाला देना चाहूंगा। एक का शीर्षक है “सरोज-स्मृति”, जो एक अलग तरह की सरोज की अलग तरह की स्मृति है। यह अभी प्रकाशित नहीं हुई है। दूसरी है, “जो मार खा रोयीं नहीं”, जो दो बच्चियों की उनके पिता द्वारा पिटाई को लेकर है और संग्रह “सबकी आवाज के परदे में” छपी है। तीसरी “कूकर” है, जो “खुद अपनी आंख से” में संकलित है और जिसकी कुछ प्रासंगिक अंतिम पंक्तियां इस तरह हैं :
कबीर निराला मुक्तिबोध के नाम का जाप आजकल शातिरों और जाहिलों में जारी है
उन पागल संतों के कहीं भी निकट न आता हुआ सिर्फ उनकी जूठन पर पला
छोटे मुंह इस बड़ी बात पर भी उनसे क्षमा मांगता हुआ
मैं हूं उनके जूतों की निगरानी करने को अपने खून में
अपना धर्म समझता हुआ भूंकता हुआ।
उन पागल संतों के कहीं भी निकट न आता हुआ सिर्फ उनकी जूठन पर पला
छोटे मुंह इस बड़ी बात पर भी उनसे क्षमा मांगता हुआ
मैं हूं उनके जूतों की निगरानी करने को अपने खून में
अपना धर्म समझता हुआ भूंकता हुआ।
निराला की और भी प्रकट-प्रच्छन्न उपस्थितियां मेरी कविताओं में होंगी और होती रहेंगी। उनकी एक कविता मेरे लिए बतौर कवि अब भी एक बड़ी चुनौती बनी हुई है और मेरे और उसके बीच एक लंबा कृष्ण-जांबवंत युद्ध चल रहा है। अपने गद्य में मुझे निराला का चमरौंधे वाला जुमला बहुत उपयोगी और मुफीद लगता है और उनका “द्याखौ चुतिया कौ, हमहीं से पूछत है हिंदी का सर्वश्रेष्ठ कवि कौन है” तो अपनी नकली खीझ-भरी सैंस ऑफ ह्यूमर में अद्वितीय है और कभी-कभी मेरे काम आता है।
तो क्या जब केदारजी यह कहते हैं कि विष्णु खरे निराला को अपाठ्य मानता है तो वह एक अनुत्तरदायित्वपूर्ण, शरारती प्रलाप है। नहीं? वह मयपरस्ती से पैदा हुई एक अतिरंजित स्मृतिभ्रष्ट गलतबयानी है।
मैं केदारजी को अपना मित्र समझने की मुंहचाटू गुस्ताखी तो नहीं कर सकता लेकिन हां, वे बहुत प्यारे इंसान हैं, मुझे बर्दाश्त कर लेते हैं और उनकी सोहबतों की सौगातें मुझे मिलती रही हैं। उनकी संगत बहुत पुरलुत्फ, जीवंत, शेर-ओ-सुखन व जबरदस्त सैंस ऑफ ह्यूमर से मालामाल होती और करती है। श्लेषों और जूमानियत की आवाजाही लगातार बनी रहती है। वे बराहे मयपरस्ती खूब खुल भी लेते हैं। साकी, हमप्यालों और पैमानों पर एक ही गर्दिश रहती है कि केदारजी को जितना शौक मुंह की लगी हुई से है, उसके एक-दो कश के बाद ही वे एक उतने ही खूबसूरत सुरूर में दाखिल हो जाते हैं और दो-तीन के बाद तो, अल्लाह झूठ न बुलवाये, खुद पर एक कलन्दराना हाल-नुमा तारी कर लेते हैं। फिर उन्हें या तो मौक-ए-वारदात पर ही आरामफर्मा किया जाता है या किसी गुलगोथने, नींद में मुस्कुराते हुए नौजाईदा की मानिंद निहायत एहतियात से हाथों-हाथ उनके दौलतखाने ले जाया जाता है। अगली सुबह और उसके बाद उनकी कैफियत ‘इक याद रही इक भूल गये’ की रहती है।
बात कुछ वर्षों पहले शायद बिलासपुर, छत्तीसगढ़ की है। केदारजी और मैं एक साहित्यिक आयोजन में वहां आमंत्रित थे। रात जवान होते-होते होटल के कमरे में अदब और बादे का दोस्ताना इजलास शुरू हुआ और बात निराला तक पहुंची। जब ‘तुलसीदास’ और ‘राम की शक्ति-पूजा’ सरीखी उनकी कविताओं का चर्चा हुआ तो मेरा निवेदन यह था कि मैं निराला की ऐसी पुनरुत्थानवादी, वर्णाश्रमधर्मी, मृदु-हिंदुत्ववादियों के द्वारा इस्तेमाल की जा सकने वाली रचनाओं को सराह नहीं सकता और उनके पाठ्यक्रमों में रखे जाने के सख्त खिलाफ हूं। केदारजी का निराला की ऐसी कविताओं को लेकर अपने तरह का बचाव रहा होगा किंतु मैं तब भी सिर्फ निराला ही नहीं, मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद और अन्य कवियों की ऐसी कविताओं का विरोधी था, अब भी हूं और रहूंगा। उनकी ऐसी रचनाएं, जो सौभाग्य से बहुत कम हैं, दुर्भाग्यपूर्ण हैं किंतु वे तब भी हमारे महान और कालजयी कवि हैं।
मुझे हैरत इस बात की है कि बिलासपुर की उस पुरजोश शाम के बाद हालांकि केदारजी से बीसियों बार तर-ओ-खुश्क मुलाकातें नसीब हुई हैं लेकिन उन्होंने कभी निराला का न तो जिक्र छेड़ा न उस सरसरी बहस को आगे बढ़ाया, उलटे वैसा एकतरफा, बेबुनियाद और निराला (के लिए बहुत कम) व मेरे लिए (काफी) नुकसानदेह बयान दे डाला। यदि वह वैसा न करते, तो मैं भी यह सब लिखने को मजबूर न होता। नामवर सिंह जैसे लबार यहां-वहां अनर्गल प्रलाप करते घूमते रहते हैं किंतु उन्हें बरसों से कुछ चिरकुट-चेलों और प्रलेस के उनके मतिमंद क्रीतदासों के सिवा कोई गंभीरता से नहीं लेता। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से संबद्ध होने के बावजूद केदारनाथ सिंह की सार्वजनिक प्रतिष्ठा अब भी बची हुई है और मुझ सरीखे लोग उनकी स्नेहिल कद्र भी करते हैं, लिहाजा उनसे उम्मीद और इल्तिजा की जाती है कि वे अतिरेक में ऐसी गैर-जिम्मेदाराना गलतबयानी से बचेंगे।
(विष्णु खरे। हिंदी कविता के एक बेहद संजीदा नाम। अब तक पांच कविता संग्रह। सिनेमा के गंभीर अध्येता-आलोचक। हिंदी के पाठकों को टिन ड्रम के लेखक गुंटर ग्रास से परिचय कराने का श्रेय। उनसे vishnukhare@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।
Sabhar - Mohalllive.com
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