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Nandita Mahtani hosts a birthday party for Tusshar Kapoor

http://www.sakshatkar.com/2017/11/nandita-mahtani-hosts-birthday-party.html

पत्रकारों दलाली छोड़ो, दलालों पत्रकारिता छोड़ो

जगेंद्र सिंह- 


लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहे जाने वाले मीडिया में पीत पत्रकारिता करने वाला एक वर्ग पुलिस व प्रशासन के अधिकारियों की चमचागीरी में ही अपनी शान समझने लगा है। अधिकारी भी पत्रकार जगत की अंदरूनी जानकारियां हासिल करने के लिए इन्हें ‘बोटी’ डालते रहते हैं। चाटुकारिता में राष्ट्रीय स्तर के समाचार पत्रों के भी संवाददाता शामिल हैं। अभी तक इस तरह की दोयम दर्जे की पत्रकारिता सिर्फ छोटेमोटे अखबारों के ही पत्रकार किया करते थे। लेकिन देखादेखी बड़े अखबारों के कुछ पत्रकारों को यही रोग लग जाने के कारण अब खबरों की सत्यनिष्ठा भी संदिग्ध होने लगी है। पहले जो अधिकारी पत्रकारों को जो सम्मान दिया करते थे वह अब इन्हीं चाटुकारों की वजह नहीं मिल रहा है।


सम्मान की तो बात ही छोड़िए, अब अफसर पत्रकारों के फोन रिसीव करना भी मुनासिब नहीं समझते। सिर्फ चाटुकारों के फोन रिसीव किए जाते हैं। और उन्हें विभाग के अंदर की एक दो अच्छी खबरें बताकर अधिकारी निगेटिव खबरों को दबा लेते हैं। पुलिस विभाग का एक बड़ा अफसर तो पत्रकारों के बीच पूरी राजनीति खेल रहा है। किसी पत्रकार को फुसलाता है तो किसी को यह कहकर धमकाता है कि फलां जगह जब पोस्टेड था तो पत्रकारों के साथ ऐसा सलूक किया था। यह भी कहता है कि कोई लगातार निगेटिव खबरें छापेगा तो वह मेरा एक वार नहीं झेल पाएगा। निगोही के पत्रकार की हत्या और मिर्जापुर में एक पत्रकार की बसूली करने वाले पुलिसकर्मी द्वारा पिटाई का मामला अफसरों को इन्हीं चाटुकार पत्रकारों की वजह से दबाने में मदद मिली है। चाटुकार पत्रकारों की तैयार हुई यह फसल अपने हित के लिए अपने ही भाईबंदों की बलि चढ़ाने में जुटी है। इन्हीं के कारण साफ सुथरी पत्रकारिता अब गंदगी का दलदल बनती जा रही है। जो चाटुकारिता नहीं कर पाते, उन्हे अब आउट डेटेड पत्रकार मान लिया जाता है। अभी नामांकन के समय कलेक्ट्रेट में जमे कई पत्रकार तो प्रत्याशियों से फोटो छापने के नाम पर सौ-सौ रुपये बसूलते देखे गए। कई बार ऐसे पत्रकार अपनी हरकतों के कारण पिटते और बेइज्जत भी होते देखे जाते हैं। लेकिन इन्हें शर्म ही कहां। एक अखबार के संपादक तो खुलेआम कहते हैं कि कोई उन्हें बंद कमरे में बीस जूते भी मार ले तो कोई हर्ज नहीं। आखिर पैसा पैदा करने के लिए यह सब तो सहना ही पड़ेगा। और बाकई वह देखते ही देखते हाकर से ब्यूरो चीफ और आज एक अखबार के संपादक बन गए हैं। आप सब उन्हे बखूबी जानते हैं।


अभी तक जिन लोगों को दलाली करते देखा जाता था, अब वे भी कोई न कोई लखनवी अखबार लाकर पत्रकार का तमगा हासिल कर चुके हैं। पहले दलाली करने में जो दिक्कतें आती थीं अब पत्रकार बनने से वे सब दूर हो गई हैं। इनकी पत्रकारिता थानों, पुलिस कार्यालय और कलेक्ट्रेट गेट तक सिमट कर रह गई है। कोई पीड़ित अपनी फरियाद लेकर आता है तो ये मिलकर उसे मूड़ लेते हैं। ये पत्रकार पुलिस को भी हिस्सा देते हैं। ऐसे कई पत्रकार हैं जिन्हें न कुछ लिखना आता है और न उनका अखबार कहीं नजर आता है, लेकिन थानों में उनकी चलती है जैसे वह किसी बड़े अखबार के संपादक हों। कहते हैं कि डायन भी चार घर छोड़ देती है, लेकिन कुछ ऐसे दलाल पत्रकार भी हैं जो अपने दोस्तों और करीबियों को भी नहीं बख्शते। इनकी शामें बिना दारू मुर्गा के नहीं कटतीं। जय हो इन चाटुकार पत्रकारों और इन्हें प्रश्रय देने वाले अधिकारियों की।


-जगेंद्र सिंह
शाहजहांपुर
7376061960

Sabhar- journalistcommunity.com

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