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Nandita Mahtani hosts a birthday party for Tusshar Kapoor

http://www.sakshatkar.com/2017/11/nandita-mahtani-hosts-birthday-party.html

दर्शक पागल नहीं होता


दर्शक पागल नहीं होता


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नीरज सनन तीन राष्ट्रीय ब्रॉडकास्टिंग चैनलों – ‘स्टार न्यूज़’, ‘स्टार आनंदा’ और ‘स्टार माझा’ के एक्जीक्यूटिव वाइस प्रेसिडेंट (मार्केटिंग और डिस्ट्रीब्यूशन) हेड हैं। इसके अलावा, वे ‘एमसीसीएस’ के डिजिटल विभाग और सेंट्रल क्रिएटिव सेल के भी हेड हैं। सनन को मार्केटिंग के क्षेत्र में एफएमसीजी (स्कीन केयर. हेयर केयर और कंफेक्शनरी), सेमी ड्यूरेबल्स (पेंट्स) और सर्विस (ब्रॉडकास्ट, मोबाइल) 16 वर्षों से अधिक का अनुभव है। ‘एमसीसीएस’ ज्वाइन करने से पहले सनन ‘नेटवर्क18’ के मोबाइल और इंटरनेट विभाग, ‘वेब18’ में सीएमओ के तौर पर कार्यरत थे। उन्होंने देश की विभिन्न अग्रणी कंपनियों – ‘डाबर’, ‘रिगलेज’, ‘नेटवर्क18’ और अब ‘एमसीसीएस’ में अपनी कार्यकुशलता से लोगों को प्रभावित किया है।

नीरज सनन इलेक्ट्रॉनिक्स एंड कम्युनिकेशन्स इंजीनियर हैं और उन्होंने आईआईएम, बैंगलोर से मैनेजमेंट में पोस्ट ग्रेज्युएट किया है। पेश है नीरज सनन से समाचार4मीडिया की बातचीत...


 डिस्ट्रीब्यूशन कहता है कि रेट कम है। सेल्स कहता है कि कंटेट अच्छा नहीं है। और एडिटोरियल कहता है कि आप बेच नहीं पा रहे हो। इन तीनों के सामंजस्य की सबसे बेहतर स्थिति क्या हो सकती है?
यह लड़ाई हमेशा चलती रहेगी। यह एक तरीका होता है इन तीनों डिपार्टमेंट पर प्रेशर बनाए रखने का। डिस्ट्रीब्यूशन हमेशा कहेगा कि रेट कम हैं, रेट बढ़ाइए। सेल्स हमेशा कहेगा कि चैनल की रेटिंग कम है, रेटिंग बढ़ाइए। यह प्रेशर कभी खत्म नहीं होगा और हमेशा दूसरा आदमी गलत होगा और आपको यह भी बता दूं कि यह प्रेशर जिस कंपनी में सही तरीके से चलता है वह कंपनी आगे जाती है। जिस कंपनी में यह प्रेशर निगेटिव हो जाता है और लोग एक-दूसरे पर उंगली उठाते हुए लड़ने लगते हैं, कंपनी घाटे में जाने लगती है। फिर इन सबमें “कंटेंट किंग है” इस बात से इनकार नहीं है।
 
लेकिन जब भी इन तीनों के बजटिंग की बात आती है तो सबसे ज्यादा पैसा डिस्ट्रीब्यूशन पर खर्च होता है और कंटेट पर सबसे कम। किंग पर सबसे कम खर्च क्यों?
देखिए, कंटेंट बेशक किंग होता है, लेकिन डिंफरेंसिएटेड नहीं है। आपको डिफरेंशिएशन के लिए पैसा मिलता है। यह सही नहीं है कि कंटेंट को पैसा नहीं मिल रहा है। और ऐसा भी नहीं कि कंटेंट पर पैसा खर्च नहीं होता है। “कौन बनेगा करोड़पति” के लिए अमिताभ बच्चन को पांच करोड़ रुपये मिले तो कंटेंट के नाम पर ही। हमारे यहां भी जो क्रिक्रेट में एक्सपर्ट आते हैं सबा करीम और विनोद कांबली वे हाइली पेड हैं। लेकिन पैसा तभी मिलता है जब आपके पास आइडिया होता है। ‘पीटीआई’ की खबर को काट कर लगाने के लिए कोई आपको पैसा क्यों देगा। कंटेट क्रिएटिविटी है और क्रिएटिविटी जरूरी नहीं कि पैसा लगाने पर आए। “रीच इज द फंक्शन ऑफ मनी”, लेकिन टाइम स्पेंट क्रिएटिविटी से आता है। पैसा डिस्ट्रीब्यूशन और मार्केटिंग के लिए होता है और कंटेट के लिए क्रिएटिविटी खर्च होती है।
 
लेकिन दूरदर्शन की रीच तो सबसे ज्यादा है, फिर भी उसकी लोकप्रियता कम है?
हां, दूरदर्शन का डिस्ट्रीब्यूशन अच्छा है, प्लेसमेंट अच्छा है, लेकिन डीडी का ब्रांड कमजोर है। मैं,अगर दूरदर्शन की जगह होता तो पहले उस ब्रांड को मजबूत करता। सेटेलाइट में तो अकेले दूरदर्शन की मोनोपोली है, लेकिन केबल में दूरदर्शन को क्यों नहीं पसंद किया जा रहा है क्योंकि वहां पर उनसे मजबूत ब्रांड मौजूद हैं। तो जैसा आप कह रहे हैं कि उनकी रीच अच्छी है, उनकी रीच अच्छी नहीं है। उनका डिस्ट्रीब्यूशन और प्लेसमेंट अच्छा है।

डिस्ट्रीब्यूशन को लेकर मार्केट में बड़ा कंपिटीशन है और अब जबकि डिस्ट्रीब्यूशन एनलॉग से डिजिटल की ओर बढ़ रहा है तो आपको नहीं लगता कि अब इस कंपिटीशन में कुछ कमी आएगी?
देखिए कंपिटीशन तो कम नहीं होगा, लेकिन जो सिस्टम में इनअफिसिएंसी है, वो खत्म हो जाएगी। लड़ाई होती है पीसीएस बैंड की। अभी पैंतालीस चैनल के स्पेस को पांच सौ ब्रांड चेंज कर रहे हैं और इसके लिए कोई सिस्टम नहीं है, कोई रेटकार्ड नहीं है। बस ब्रांड देखकर, मुंह देखकर पैसे से और रिलेशन से यह स्पेस बेचा जा रहा है। तो पांच सौ चैनल जब 45 स्पेस के लिए लडेंगे तो डिमांड-सप्लाई सिचुएशन की स्थिति में डिस्ट्रीब्यूशन का रेट बढ़ा हुआ है। जब डिजिटल हो जाएगा तो 45 स्पेस बढ़कर दो सौ हो जाएगा, मार्केट में उतना करेक्शन आएगा।
 
लेकिन इसका जो खर्च आएगा वह केबल ऑपरेटर से लिया जाएगा, आपरेटर कन्ज्यूमर से मांगेगा और कंज्यूमर देने को तैयार नहीं होगा तो यह सिस्टम किस तरह से मेंटेन होगा?
देखिए यह जो हालात है वह ऐसे कि हमने बस घर बना लिया उसके लिए कोई प्लानिंग नहीं की। इसी तरह भारत की टीवी इंडस्ट्री भी अनप्लान्ड सिटी है। जब अनप्लॉन्ड सिटी में प्लानिंग की जाती है तो कुछ तोड़-फोड़ होती है, लेकिन इसका फायदा भी दिखता है।
 
हाल के दिनों में देखा गया कि जो चैनल सात-आठ की रेटिंग पर थे उन्होंने डिस्ट्रीब्यूशन बढ़ाया तो वे तीन-चार पर पहुंचने लगे तो क्या यह माना जाए कि सारी लड़ाई डिस्ट्रीब्यूशन को लेकर ही है। कंटेंट का कोई रोल नहीं?
 
देखिए आप डिस्ट्रीब्यूशन एक हद तक बढ़ा सकते हैं। अगर आपके कंटेंट में दम है और आप डिस्ट्रीब्यूशन में पैसा डालते हैं, तो पक्का है आपकी रेटिंग बढ़ेगी। लेकिन साथ ही साथ आपका एथिक्स भी सही होना चाहिए। ऐसा नहीं है कि आप कोई भी कंटेंट लेकर डिस्ट्रीब्यूशन मजबूत कर रहे हैं, तो आपका धंधा बढ़ जायेगा। दोनों का मेल होने चाहिए। अगर एक आदमी अपनी क्रिएटिविटी से कंटेंट को आगे ले जता है तो दूसरा आदमी उतने ही डिस्ट्रीब्यशन से आगे नहीं जा सकता। उदाहरण के तौर पर, ‘स्टार न्यूज़’ की पहुंच ‘स्टार प्लस’ के 70 प्रतिशत होता है। लेकिन हमारी रेटिंग ‘स्टार प्लस’ के 70 प्रतिशत नहीं होता है। आपका एक पहिया तेज भाग रहा है, दूसरा उतना तेज नहीं तो आपकी गाड़ी तेज नहीं चलेगी। टाइम स्पैंड, डिस्ट्रीब्यूशन और कंटेंट को एक साथ भागना पड़ेगा। अलग-अलग भागेगा तो रेटिंग नहीं आयेगी।
 
आज सभी न्यूज चैनल यह कह रहे हैं कि हम ख़बरों की ओर जा रहे हैं, क्या ख़बरों की ओर बढ़ना, रेटिंग के लिए है या फिर विश्वसनीयता के लिए?
 
देखिए जब कोई न्यूज़ चैनल यह कहता है कि हम ख़बरों की ओर जा रहे हैं तो वह अपना ब्रांड क्लीन करने की कोशिश करता है। जैसे लोग अपने ज्योतिष और भविष्यवाणी के कार्यक्रम बंद कर रहे हैं तो यह सब ब्रांड साफ करने के लिए है। लोग आपके बारे में अच्छी बात करें इसके लिए आपको अच्छा कंटेंट देना होगा। खबरें तो सभी सेगमेंट से होंगी। क्राइम की भी, राजनीति की, खेल की और बिजनेस की। लेकिन इन सबके अलग-अलग जोनर होंगे। और उनको जोड़कर हमारी रेटिंग आयेगी। देखिए जो बायर होते हैं, वे हार्ड न्यूज़ और सॉफ्ट न्यूज़ देखकर हमें नहीं खरीदते हैं, वो टाइम स्पैंड से खरीदते हैं। टाइम बैंड के हिसाब से देखते हैं। रेटिंग कंटेंट के हिसाब से आता है। और रेट, टाइम बैंड के हिसाब से आता है। यह एक दुविधा है कि हमारा जो सबसे अच्छा प्रोग्राम होगा, उसमें सबसे कम पैसे मिलते हैं। तब हमें कई बार विज्ञापन गिराना होता है। सबकी रेटिंग बढ़ी थी, लेकिन वहीं पर हमारी एड भी। “रूल ऑफ गेम” तो यही कहता है कि जब रेटिंग की जरूरत है, तो आपको एड को गिराना होता है।
 
आप केवल ख़बरें दिखाते हैं, तो केवल ख़बरें दिखाकर नंबर वन क्यों नहीं बन पाते?
हमें ऐसे नंबर वन बनना भी नहीं है। अगर, ऐसे ही नंबर वन बनना है तो न्यूज़ चैनल पर फिल्म दिखाइए। अगर, हम अपने बांग्ला चैनल पर फुटबाल दिखाएं तो नंबर वन बन जाएं,लेकिन ऐसा करके हम नंबर वन बन भी जाते हैं तो हम न्यूज़ चैनल की अपनी विश्वसनीयता खो देंगे। आपको अपनी सोच कायम रखनी होगी। आप दूसरों को देखकर गाड़ी नहीं चला सकते और यही वजह है कि दर्शक हम पर विश्वास करते हैं। 
 
क्या भारतीय परिदृश्य में डिस्ट्रीब्यूशन का सब्क्रिप्शन मॉडल सफल हो सकता है?
 
आज की तारीख में तो सवाल ही नहीं पैदा होता है। लोग अपने घर में तीन टीवी देखते हैं और 150 रुपये देने को तैयार नहीं है। केबल वाले भले ही चिल्लाते रहें। इंडियन कंज्यूमर के लिए“वैल्यू फॉर मनी” बहुत ज्यादा है। भारत में इकनॉमी बायर ज्यादा हैं और प्रीमियम बायर कम। पैसा देता है, प्रीमियम बायर। लेकिन प्रीमियम बायर बहुत ही नीस होता है। प्रीमियम बायर से पैसा लेने के लिए आपको प्रीमियम कंटेंट देना होगा। और प्रीमियम कंटेंट आपकी  क्रिएटिविटी पर निर्भर करता है। अगर आपका कंटेंट गाजर-मूली की तरह है तो गाजर मूली के ही पैसे मिलेंगे। “पीटीआई” से खबर निकाली उसे पैकेज का रूप दे दिया तो पैसा भी वैसे ही आयेगा। आपको अगर प्रीमियम पैसा लेना है तो कंटेंट भी प्रीमियम देना होगा। हिंदुस्तान में दर्शक पागल नहीं है। इसलिए यह मॉडल अभी दूर की कौड़ी है।


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