...पहले स्व. विनोद शुक्ल जी.... फिर स्व. घनश्याम पंकज जी... उसके बाद सुभाष राय जी... और अब राजनाथ सिंह ‘सूर्य’ : ये वो नाम हैं जिनको आज की पत्रकारिता पीढ़ी में बड़े आदर व सम्मान के साथ जाना जाता है। बात चाहे इनके अतीत की करें या वर्तमान की, जो जहां भी रहे, उनकी ‘हैसियत’ के सामने अच्छे-अच्छे बौने दिखे। कोई पीठ पीछे चाहे जो भी कहे लेकिन सामने सिर झुकाकर आदर से ही बात किया, जितनी मेरी जानकारी में है। इन लोगों के सानिध्य में पत्रकारिता के क्षेत्र में पले-बढ़े ऐसे अनेक मूर्धन्य नाम हुए, जो आज इस क्षेत्र के ‘सिरमौर’ बन बैठे और कुछ ऐसे हुए जो ‘भड़ासी’ बन गये और एक ‘कपूत’ बेटे की तरह उन्हीं पर आज अपनी भड़ास निकाल रहे हैं। वो भी इनमें से कई के मरने के बाद तो किसी के रिटायरमेंट की स्थिति में आने के बाद।
मेरा मानना है कि ‘भड़ासी’ होना अच्छी बात है। जिसके मन में ‘भड़ास’ की उपज नहीं होती उसे अपनी महत्वाकांक्षा प्राप्ति में बहुत कठिनाई और देर होती है। मायने ये रखता है कि आदमी के मन में कैसी महत्वाकांक्षा पल रही है और वह किस जगह पर किस तरह अपनी भड़ास निकाल रहा है। एक हैं लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार और जाने-माने साहित्यकार (जैसा भड़ास4मीडिया बता रहा है), जिनके मन में बहुत ज्यादा भड़ास भरा है, लेकिन महत्वाकांक्षा भी अजीबो-गरीब। पिछले डेढ़-दो वर्षों में उनकी कई ऐसी टिप्पणियां ‘भड़ास4मीडिया’ जैसे सार्वजनिक मंच पर पढ़ने को मिली, जिसमें इन्होंने उपरोक्त लोगों के बारे में किसी को गुंडा संपादक, किसी को दलाल, किसी को लौंडियाबाज जैसे अनेक शब्दों का चयन किया। यहां तक कि इन लोगों के लिए ’पत्रकारिता का कोढ़’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल करने में भी इन्होंने कोई कोताही नहीं बरती। महत्वाकांक्षा देखिए... जिस-जिस के साथ कभी इनके सम्बन्ध रहे हैं या उनके साथ में इन्होंने काम किया है, सबको सार्वजनिक मंच पर नंगा करेंगे (झूठ या सच... ये तो वह खुद तय कर लेंगे जो इनको अच्छी तरह जानते होंगे)। अगर इसी क्रम में दयानंदजी अपने इस ‘मिशन’ पर लगे रहे तो आने वाले समय में इनके कलम की ‘तेज’ से सुब्रत राय सहारा या कोई और संपादक नवाजा जाएगा, क्योंकि वर्तमान में ये महोदय सहारा में ही कार्यरत हैं।
बहरहाल, मैं पिछले 12 साल से इस क्षेत्र में हूं, लेकिन इनसे कभी भी मेल-मुलाकात का मौका नहीं मिला। खैर, इनकी ऐसे विशिष्ट लोगों के बारे में ऐसी टिप्पणियों को पढ़ मेरी मंशा इनके बारे में जानने को हुई। मैंने अपने जानने वाले सहयोगी साथियों से, जो इनको बहुत करीब से जानते हैं (कुछ इनके साथ काम कर चुके हैं और कुछ आज भी कर रहे हैं), जानना चाहा। लोगों ने दयानंद जी के बारे में जो प्रतिक्रया दिया उसे मैं यहां नहीं लिख सकता, नहीं तो शायद इनके और हमारे टिप्पणी में फर्क करना बहुत मुश्किल हो जाएगा। वैसे भी मेरी मंशा उस ‘प्रतिक्रिया’ को सार्वजनिक मंच पर लाकर इन्हें वो तकलीफ देने की नहीं है जो ये अपने पुराने वरिष्ठों को दे रहे हैं, या दे चुके हैं। दयानंद जी, किसी के बारे में कुछ भी लिख देना बहुत आसान है, सो आप कर रहे हैं। आप जैसा कथित बड़ा साहित्यकार और वरिष्ठ पत्रकार की कलम से ऐसा ‘कुत्सित भाषा’ का प्रयोग अच्छा नहीं लग रहा है।
खैर, आप आलोचनात्मक टिप्पणी बहुत अच्छा लिख लेते हैं, मानना पड़ेगा। मतभेद किसी से भी हो सकते हैं, आलोचना का पात्र कोई हो सकता है। मगर ‘बहादुर’ वह है जो किसी की आलोचना उसके मुंह पर करे। किसी के मर जाने या किसी के जीवन के अंतिम पड़ाव आने के बाद नहीं। आप द्वारा कथित इन लोगों के ‘अवगुणों’, जिसकी आप आलोचना कर रहे हैं को छोड़कर उनके व्यक्तित्व से कुछ ‘गुण’ अख्तियार किया गया होता तो आज आप भी कम से कम राज्यसभा सदस्य नहीं तो किसी अखबार के संपादक तो जरूर बने बैठे होते, न कि किसी कंपनी के ‘पेंशन प्लान’ के तहत कोई ‘मुखपत्र’ निकाल रहे होते। इसलिए किसी की आलोचना करने से पहले अपने आप का मूल्यांकन करने की कोशिश करें। अच्छा तो यह होता कि आप अपने पत्रकारिता की उपलब्धियों और व्यक्तिगत जिंदगी को भी सार्वजनिक मंच पर खुद लाते जिससे हम सब नयी पीढ़ी के लिए तुलनात्मक आंकलन करना आसान हो जाता।
दयानंद जी, इस सुझावनात्मक टिप्पणी के बाद आपके मन में यह सवाल आना स्वाभाविक है कि ये कौन है जो मेरी तरह फटे में टांग अड़ा रहा है (जैसा कि आपने राजनाथ जी के साक्षात्कार के बाद किया), तो दयानंद जी आपको मैं बता देना चाहता हूं कि उपरोक्त जितने लोगों पर आप बराबर टिप्पणी कर रहे हैं, या करते आए हैं, इनमें सुभाष राय को छोड़ सबके साथ मेरे सम्बन्ध रहे हैं और मैं बहुत करीब से जानता हूं, सुभाष जी के बारे में भी मेरी क्या आप जैसों को छोड़ सबकी धारणा अनुकूल ही होगी, ऐसा मेरा विश्वास है। स्व. घनश्याम पंकज जी के साथ तो मुझे पांच साल काम करने का भी सौभाग्य मिल चुका है। ‘सौभाग्य’ इसलिए कि मेरा नजरिया आपके नजरिए से बिल्कुल अलग है। वो कलम के धनी थे, उनका व्यक्तित्व बड़ा था। ऐसे लोगों के साथ काम करना सौभाग्य ही है। बाकी उनके व्यक्तिगत जीवनशैली में क्या है या क्या था, इससे मुझ जैसों को क्या मतलब? इसका ठेका तो आप जैसे लोग लिये हुए हैं। हालांकि, बहुत लोग ऐसे होंगे जो इनके करीब रहे होंगे, उन्होंने यह सब लिखने की जरूरत नहीं समझी, मैंने समझा-सो लिखा। बिना किसी लाग-लपेट और किसी फायदे को ध्यान में रखते हुए।
दयानंद जी, आप जैसे दो दशक से भी अधिक पुराने पत्रकार और कथित साहित्यकार जो अब अपने कॅरियर के अंतिम दशक में हिलोरे मार रहा हो, सलाह देते अच्छा तो नहीं लगा रहा है, क्योंकि आप बहुत ही सीनियर व्यक्ति हैं, मगर दबे मन से यह कहना चाह रहा हूं कि आप ऐसे ‘बड़बोलेपन’ से बचें। नहीं तो आने वाली पत्रकारिता पीढ़ी के लिए आप ‘नासूर’ बन जाएंगे और भावी लिखने वाले लोग आपके लिए प्रशंसा तो दूर आलोचना भी लिखना पसंद नहीं करेंगे। वैसे आपने यह साबित कर दिया है कि अखबार की मुख्यधारा से अलग होने के बाद किस तरह ‘राखी सावंत स्टाइल’ से भी सुर्खियां बटोरी जाती है। चलते-चलते मैं एक और नेक सलाह देता चल रहा हूं कि बुजुर्गों को तकलीफ न दें, वैसे आप भी उसी मुहाने पर हैं और अगर नहीं हैं तो होंगे। आज के इस मिलावटी युग में 40 के बाद तमाम बीमारियां (उच्च रक्तचाप, शुगर वगैरह-वगैरह पनप रही हैं), खुद तनाव कम लीजिए और न किसी को दीजिए। मेरी सलाह से आप भी ‘मार्निंग वॉक’ जरूर करें। स्वस्थ रहिए... मस्त रहिए..। धन्यवाद!
लेखक मनोज दुबे जनसत्ता एक्सप्रेस, आई नेक्स्ट (दैनिक जागरण) सहित कई पत्र-पत्रिकाओं में काम कर चुके हैं तथा वर्तमान में लखनऊ से ‘चौपाल चर्चा’ पत्रिका का संपादन कर रहे हैं। इनसे मोबाइल नम्बर 9956080433 के जरिए संपर्क किया जा सकता है
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