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Nandita Mahtani hosts a birthday party for Tusshar Kapoor

http://www.sakshatkar.com/2017/11/nandita-mahtani-hosts-birthday-party.html

पत्रकारिता के अजीबोगरीब किस्से


-जगमोहन फुटेला-
85-86  की बात है. बरेली के अखबार में उपसंपादक था मैं. समाचार सम्पादक बताते थे कि कैसे रोको,मत जाने दो और रोको मत,जाने दो में सिर्फ कौमा आगे पीछे होने से कैसे पूरा भावार्थ बदल जाता है. उसी अखबार में एक दिन एक शीर्षक लग गया 'महिलाओं की लाठी-डंडों से पिटाई,छ: घायल'. अब हुआ क्या कि डंडों में 'ड' की जगह कुछ और लग गया. छप भी गया. और शहर में जो सत्रह हज़ार अखबार बंटता था, बंट भी गया. और फिर उसके बाद शुरू हुआ दफ्तर में फ़ोनों और उनपे आने वाली गालियों का सिलसिला. अगले दिन सिर्फ सात और उसके अगले दिन बमुश्किल दो हज़ार अखबार ही बिके. पर तय हो गया कि ठण्ड को कभी ठण्ड नहीं, हमेशा सर्दी लिखा जाएगा.
मैं इसी अखबार में था कि मुझे पन्त यूनिवर्सिटी के एक क्लर्क महाबीर प्रसाद कोटनाला ने कुछ जानकारी दी. दो ख़ुफ़िया अफसरों से मिलाया. उनकी जानकारी थी कि इंदिरा गाँधी को कन्वोकेशन के बहाने बुला कर पंतनगर में मारने की योजना है. उन ने बताया कैसे दो विदेशी 'प्रोफेसरों' को एक ऐसे प्रोजेक्ट में सलाहकार बना के बुलाया गया कि जिस विषय पे उनका कोई अध्ययन ही नहीं था. कैसे उनको  यूनिवर्सिटी  की गाडी लेने गई. उसकी लाग बुक नहीं भरी गई. कैसे उनको  यूनिवर्सिटी के गेस्ट हाउस की बजाय वीसी ने अपने घर में रखा. कैसे समारोह स्थल पे इंदिरा जी के आने का रास्ता कुछ यों बदला गया कि वे कम से कम पांच मिनट तक शूटर के निशाने पे होतीं. शूटर को सही जगह पे बिठाने लिए दूर लायब्रेरी के ऊपर एक मंजिल खड़ी की गई. किसी विचार विमर्श और सेंक्शन के बगैर. जिस अखबार में था, उसने ये खबर नहीं छापी. कोटनाला ने कहा इसको सिर्फ एक आदमी है जो छाप सकता है, कमलेश्वर. मैं दिल्ली आया. उन्हें ढूँढा. बताया. उन ने 'गंगा' में खबर छाप दी. अक्टूबर 84 के अंक में खबर छपी और उसी महीने के अंतिम दिन इंदिरा जी की दिल्ली में हत्या हो गई. मुझे बहुत बाद में पता चला कि इस पूरे षड़यंत्र में जो वीसी शामिल था और जिसका ज़िक्र सूत्रधार के रूप में बार बार हुआ, वो उनका करीबी रिश्तेदार था.
जनसत्ता चंडीगढ़ में मेरा एक साथी था. ट्रेड यूनियन उसकी बीट थी. प्रशासन मेरी. एक बार पीजीआई में नर्सों का कोई प्रदर्शन था. मैं अपने किसी काम से गया था उधर. मुझे देखा होगा. भाई ने उसकी खबर नहीं की. सुबह सम्पादक ने पूछा मीटिंग में, खबर क्यों नहीं लगी? भाई बोला, मैंने इनको (मुझे) देख लिया था. सोचा प्रदर्शन कवर  करने ही आए होंगे. इस लिए मैं नर्सों को अनकवर ही छोड़ के चला आया !
इसी अखबार में एक भाई और था. खेल डेस्क देखता था. रोज़ फोन आता, मेरा स्टेफी ग्राफ वाला हैडिंग देखा? नवरातिलोवा को तो मैंने सिर्फ सिंगल कालम में निबटा दिया. सोचा जो होगा देखी जाएगी (जैसे नवरातिलोवा रोज़ लन्दन अखबार मंगा के पढ़ती हो). सुबह आठ बजे रोज़ कुछ ऐसी ही कहानी. एक दिन मैंने पूछ लिया. मेरी खबर देखी. बोला कहाँ? मैंने कहा,पहले पेज पे बाक्स. जवाब था, मैं पागल हूँ. मैं स्पोर्ट्स का आदमी हूँ. मेरा दूसरी ख़बरों से क्या काम !
यहीं बंदा शौक शौक में एक बार मेरे साथ चल पड़ा. रेल दुर्घटना हुई थी. लाशें स्टेशन पे जीआरपी पोस्ट के पास किसी ट्रक में थीं. अब लाशें तो बोलती नहीं. मैंने सोचा उनके पहरावे और उनकी कमीज़ पैंटों पे दर्जी के स्टीकर लिख देने से शायद घर वालों को अपने बंदे के बारे में जानकारी मिल जाएगी. ट्रक लाशों से भरा था. मैं उनके बीच. उसको कागज़ पेन दे के कहा कि वो डाले पे खड़ा डिटेल नोट करता जाए. थोड़ी में देखा तो तो धड़ाम की एक आवाज़ और भाई नीचे सड़क पर. मुझे लाशों को बचाते नीचे उतरने में दो मिनट लग गए. देखा तो लोग बाग़ उसके मुंह पर पानी के छींटे मार रहे हैं. कोई पैर मसल रहा है कोई सीना. आधे घंटे में उसे होश आया. हम वापिस लौटे. रास्ते भर वो गुमसुम. उसके कई दिन बाद तक वो दूर दूर. एक दिन मैंने पकड़ ही लिया. बोला क्राइम तुम्हें मुबारक. अपने को तो स्पोर्ट्स ही ठीक है

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