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Nandita Mahtani hosts a birthday party for Tusshar Kapoor

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दंगों के बाद बदल गई शहज़ाद की जिंदगी



शहजाद अहमदाबाद के भवन कॉलेज में बीएससी इलेक्ट्रॉनिक्स के छात्र हैं
फ़रवरी 2002 में हुए गुजरात दंगों में कई सौ लड़के-लडकियां या तो बेघर हो गए थे या अनाथ. उनमें से क़रीब 300 बच्चों को महाराष्ट्र के रायगढ़ शहर के एक स्कूल में भर्ती किया गया था.
इन दंगों को अब दस साल पूरे हो चुके हैं.
उनमें से दो युवाओं से जब मैं अहमदाबाद में मिला तो उन्हें पहले से कहीं खुश और सुखी पाया. शहज़ाद ख़ान 21 साल की आयु में एक चतुर युवा मालूम होते हैं.
उनसे मैं आठ साल पहले रायगढ़ के एक स्कूल में मिला था. हाल में अहमदाबाद में उनसे मिलने पर न तो मैं उन्हें पहचान पाया और न वो मुझे.
उन्होंने कहा, "मुझे केवल इतना याद है कि बीबीसी की एक टीम हमारे स्कूल आई थी. आप का चेहरा याद नहीं था."
तब शहज़ाद केवल 11 साल के थे. इतनी कच्ची उम्र में वो क्या-क्या याद रखते. उस समय वो गुमसुम रहते थे, दंगों की याद ताज़ा थी.
उनके घरवालों का सब कुछ लुट चुका था. परिवार और पड़ोस के कई लोग मारे गए थे. उनके साथ स्कूल में पढ़ने वाले सभी बच्चे या तो अनाथ थे या फिर बेघर. वो भी दंगों की याद दिलाते रहते थे.

आत्मविश्वास से भरा नौजवान

लेकिन आज का शहज़ाद आत्मविश्वास से भरा नौजवान है, मुस्कुराता रहता है. उनसे मैं जब उसके कॉलेज से बाहर मिला तो वो अभी-अभी परीक्षा देकर बाहर निकले थे.
गुजरात के लोग ये मानने के लिए तैयार नहीं हैं कि दंगा पीड़ित दस साल पुरानी बातें अब भूल कर आगे बढ़ चुके है
वो अहमदाबाद के भवन कॉलेज में बीएससी इलेक्ट्रॉनिक्स के छात्र हैं और इस बात के पूरे संकेत हैं कि उनका भविष्य उज्जवल होगा.
वो विश्वास से भरे शब्दों में कहते हैं, "मैं एमएससी इलेक्ट्रॉनिक्स की पढ़ाई ख़त्म करने के बाद इलेक्ट्रॉनिक्स के क्षेत्र में अपना कोई काम शुरू करूँगा. मेरे पास कई आइडियाज़ हैं."
शहज़ाद आज ख़ुश हैं और कुछ हद तक ख़ुशहाल भी. लेकिन आज से कुछ साल पहले उनका जीवन और उनका भविष्य दोनों अन्धकार में नज़र आता था.
वे कहते हैं, "मैं तब केवल ग्यारह साल का था और मेरे आगे सब कुछ अनिश्चित था. हमारा घर-परिवार सब उजड़ गया था."
उस समय शहज़ाद को एक ऐसे स्कूल का सहारा मिला जो राज्य से बाहर था और इस स्कूल में पढ़ने का मतलब परिवार से अलग होना था.

जीवन का अहम मोड़

शहज़ाद कहते हैं, "ये स्कूल मेरे लिए मेरे जीवन में अब तक का सबसे बड़ा मोड़ साबित हुआ".
महाराष्ट्र के रायगढ़ ज़िले में अरब सागर के साहिल पर स्थित ये स्कूल 11 साल के शहज़ाद के घर से काफी दूर था. लेकिन ये उनके लिए आख़िरी उम्मीद थी. पढ़ाई मुफ्त थी, रहना भी मुफ्त.
ये स्कूल मुंबई की एक मुस्लिम संस्था चलाती है. गुजरात दंगों के बाद इस स्कूल ने राज्य में दंगा पीड़ित बेघर और अनाथ लड़के-लड़कियों को न केवल पनाह दी बल्कि उन्हें पढ़ा-लिखाकर इस लायक भी बनाया कि वो अपने पैरों पर खड़े हों और समाज में सर ऊंचा करके रह सकें.
दिसंबर 2003 में इस स्कूल में 300 से अधिक ऐसे बच्चों से मिलने मैं भी गया था. मैंने कई अनाथ और बेघर बच्चों से बातें की थीं. उनमें शहज़ाद और शफ़ीक़ भी शामिल थे.
शफ़ीक़ के चेहरे पर जलने के निशान उस समय साफ़ दिखाई देते थे और शहज़ाद की आँखों की चमक ग़ायब थी.

शहज़ाद

"अल्लाह को यही मंज़ूर था. मुझे लगता है कि हमें किसी से बदला लेने की ज़रुरत नहीं है. हमें किसी से लड़ने की ज़रुरत नहीं है. अगर हमें किसी से लड़ना है तो हिंसा और आपसी नफ़रत से."
तब मुझे नहीं मालूम था कि कई साल बाद उसी शहज़ाद से दोबारा मिलने का अवसर मिलेगा और यह तो सपने में भी नहीं सोचा था कि शहज़ाद आत्मविश्वास से भरे एक युवा बनकर उभरेंगे.

'अल्लाह को यही मंजूर था'

मुंबई की रेहाना उन्द्रे इस स्कूल की कर्ताधर्ता हैं. वो कहती हैं, "आप को ख़ुशी होगी कि आपने जिन बच्चों को स्कूल में देखा था और जिनसे बातें की थीं, उनमें से अधिकतर समाज में वापस लौट चुके हैं. कई नौकरियां करते हैं और कई दूसरे ऊंची पढ़ाई के लिए गुजरात वापस जा चुके हैं. हमारे पास अब केवल 20 अनाथ बच्चे-बच्चियां रह गए हैं."
आज के शहज़ाद से मिलकर प्रभावित न होना लगभग असंभव मालूम होता है. वो दंगों में लुटने के बाद भी हिंसा के ख़िलाफ़ खुलकर यक़ीन के साथ बातें करते हैं.
वो कहते हैं, "अल्लाह को यही मंज़ूर था. मुझे लगता है कि हमें किसी से बदला लेने की ज़रुरत नहीं है. हमें किसी से लड़ने की ज़रुरत नहीं है. अगर हमें किसी से लड़ना है तो हिंसा और आपसी नफ़रत से."
तसल्ली इस बात की थी कि दंगों का असर शहज़ाद पर ज़रा भी नहीं था. वे कहते हैं, "हां, जब भी कहीं दंगे होते हैं तो हमें अपना बुरा वक़्त याद आता है. हम उन दंगों को मरते दम तक नहीं भूल सकते. लेकिन बदले की भावना बिल्कुल नहीं है. जो हुआ वो क़िस्मत में लिखा था."
शहज़ाद को इस बात का भी गर्व है कि आज उनके मोबाइल फोन में जिन दोस्तों के नाम हैं, उनमें से अधिकतर हिन्दू हैं.
वो कहते हैं, "मेरे ज़्यादातर दोस्त हिन्दू हैं. हम साथ खाते हैं, साथ उठते-बैठते हैं. एक ही थाली में खाना खाते हैं. हम हिन्दू-मुस्लिम के बारे में सोचते भी नहीं हैं"
शहज़ाद इलेक्ट्रॉनिक्स में नाम कमाने के अलावा हिन्दू-मुस्लिम के बीच आपसी भाईचारा बढ़ाने का भी काम करने की इच्छा रखते हैं जो एक बड़ा काम है लेकिन असंभव नहीं
Sabhar- bbc.co.uk/hindi

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