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Nandita Mahtani hosts a birthday party for Tusshar Kapoor

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शेखर गुप्ता पर मैं सवाल उठाता हूं कि...




शेखर गुप्ता पर मैं सवाल उठाता हूं कि...
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20 मार्च को मेरे पास एक रिपोर्ट आई कि भारतीय सेना देश में सैनिक क्रांति करना चाहती है. जो सज्जन मेरे पास यह ख़बर लेकर आए, उनसे मैंने पूछा कि इस ख़बर का स्रोत क्या है. जब उन्होंने मुझे स्रोत बताया तो मेरी समझ में आ गया कि यह देश के ख़िला़फ बहुत सोची-समझी साज़िश है और इस साज़िश में सेना की छवि जानबूझ कर बर्बाद करने की सोची-समझी योजना है. मैंने उसी समय अपने कुछ मित्रों से बात की. मुझे पता चला कि यह स्टोरी कई अख़बारों और कुछ टेलीविज़न चैनलों को संपर्क करके पहले ही दी जा चुकी है, लेकिन सबने मना कर दिया. उन्होंने कहा कि हम इस स्टोरी को नहीं छापेंगे, क्योंकि यह बेसलेस स्टोरी है. लोगों को इस तरह की स्टोरी छापने के लिए कई तरह के प्रलोभन भी दिए गए.
सबने मना कर दिया कि न तो हम इस स्टोरी को टेलीविज़न पर दिखाएंगे, न छापेंगे, क्योंकि यह वाहियात स्टोरी है और यह देश की सेना की छवि ख़राब करने वाली खतरनाक स्टोरी है. मैंने अपने सेना के सोर्सेज से बात की. उन्होंने भी यही कहा कि यह बुलशिट है, लेकिन वहां से मुझे यह ख़बर पता चली कि इंडियन एक्सप्रेस इस ख़बर को छापने वाला है. मुझे लगा कि पत्रकार होने के साथ-साथ इस देश का नागरिक होने के नाते मेरा धर्म है कि मुझे इंडियन एक्सप्रेस को बताना चाहिए कि यह ख़बर अगर वह छापता है तो वह शायद देशहित के ख़िला़फ काम करेगा. मैंने इस विश्वास के आधार पर यह सोचा, क्योंकि मैं जानता हूं कि शेखर गुप्ता अब तक यानी इस रिपोर्ट के छपने तक, जो इंडियन एक्सप्रेस में छपी, एक जुझारू, ईमानदार और बहादुर पत्रकार माने जाते थे.
मेरी शेखर गुप्ता से पहली मुलाक़ात रविवार में रहते हुए तत्कालीन संपादक सुरेंद्र प्रताप सिंह के साथ हुई थी और सुरेंद्र प्रताप सिंह ने ही मेरा परिचय शेखर गुप्ता से कराया था. शेखर गुप्ता को तबसे मैं वरिष्ठ, अपने से ज़्यादा समझदार, अपने से ज़्यादा जानकार और अपने से ज़्यादा बहादुर पत्रकार मानता था. मुझे लगा कि बिना हिचक शेखर गुप्ता से कहना चाहिए कि आपके अख़बार में इस रिपोर्ट को छपवाने की साज़िश हो रही है, आप इसके ऊपर थोड़ा ध्यान दीजिए. यह पत्रकारिता से बड़ी चीज़ है, किसी तरह की ग़ैर ज़िम्मेदाराना पत्रकारिता से बड़ी चीज़ है. आप सारी दुनिया के सामने सेना को बदनाम कर दें, फिर मा़फी मांगने से काम नहीं चलता.

मैं शेखर गुप्ता के पास गया और मैंने उनसे बिना कोई भूमिका बांधे पूछा कि ऐसा सुनने में आया है कि एक स्टोरी बाज़ार में घूम रही है कि सेना सत्ता के ऊपर क़ब्ज़ा करना चाहती है और यह स्टोरी कुछ संदिग्ध तत्व, जो देश के ख़िला़फ क़दम उठा रहे हैं, आपके अख़बार में छपवाना चाहते हैं और उन्होंने इसके लिए आपके पत्रकार को तैयार कर लिया है. शेखर गुप्ता ने मुझे कहा कि नहीं, अभी एक जनरल यहां बैठे थे, वह भी यही बात कह रहे थे, उन्हें मैंने उस पत्रकार के पास भेज दिया है. मैंने शेखर से नहीं पूछा कि कौन जनरल थे, क्योंकि मुझे शक हुआ कि कहीं सेना का ही तो कोई आदमी सेना के ख़िला़फ ख़बर नहीं दे रहा है. लेकिन शेखर गुप्ता ने कहा कि जो आप कह रहे हैं, वह भी यही कहने आए थे कि जो ख़बर बाज़ार में चल रही है, वह ग़लत है, कोई छाप नहीं रहा है. हम छापने जा रहे थे, लेकिन अब हम इसमें सावधानी रखेंगे और इसे नहीं छापेंगे. जब शेखर गुप्ता ने यह आश्वासन दिया तो मुझे लगा कि वह अभी भी उसी पत्रकारिता का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिससे समाज विरोधी तत्व डरा करते हैं.
दो दिन बाद शेखर गुप्ता और मैं, देश के एक वरिष्ठ व्यक्ति के साथ खाना खा रहे थे. खाना खाते हुए शेखर गुप्ता ने कई सवाल पूछे, जिनके जवाब अन-ऑफिशियली उस व्यक्ति ने बहुत सा़फ- सा़फ दिए और तभी शेखर गुप्ता ने पूछा कि क्या सेना का कोई मूवमेंट 16 जनवरी को हुआ था. उसने कहा, हां हुआ था. फिर उस व्यक्ति ने कहा, जिस तरह से बाज़ार में ख़बर बनी हुई है, उस तरह से नहीं हुआ था. उस व्यक्ति ने पूरी कहानी शेखर गुप्ता को बताई कि उसके पीछे क्या कारण थे.
कारण यह था कि धुंध में अगर देश की राजधानी के ऊपर कोई हमला हो, किसी तरह का, तो हम राजधानी को कैसे सुरक्षित रख सकते हैं और इसके पीछे डर आतंकवादियों का या वेस्टेड इंटरेस्ट का था, जो देश के ख़िला़फ साज़िश कर रहे हैं. जिस तरह से लोग अभी कुछ साल पहले संसद में घुस गए और हमारे कई बहादुर सिपाहियों की मौत हुई. मान लीजिए, घुसने वाले ज़्यादा होते और वे संसद के अंदर चले जाते. सारे मिनिस्टर्स, प्राइम मिनिस्टर, एमपी वहां थे. उन्हें मारने लगते तो सिवाय सेना के कोई चारा नहीं था, जो वहां पर मूव करती. दूसरी चीज़, दिल्ली में ही प्रधानमंत्री हैं, राष्ट्रपति हैं. यह साज़िश हो सकती है किसी की. सेना अपने आपको इस तरह की सिचुएशन का सामना करने के लिए टाइम टू टाइम, अचानक एक्सरसाइज करती रहती है और यह सेना का धर्म है, उसका फर्ज़ है. सेना को सबसे ज़्यादा दिक्क़त तब आती है, जब जाड़े होते हैं, धुंध होती है, कोहरा होता है. उस समय एयरफोर्स का कोई सपोर्ट सेना को नहीं मिल पाता. ये टुकड़ियां, जो स्ट्राइकर टुकड़ियां होती हैं, दिल्ली से थोड़ी दूर रखी जाती हैं, लेकिन हमेशा यह देखा जाता है कि किस समय गर्मी हो, जाड़ा हो, बरसात हो और धुंध हो. बाक़ी एक्सरसाइज तो हो चुकी थीं, लेकिन यह धुंध वाली एक्सरसाइज नहीं हुई थी. जब विशेषज्ञों ने यह बताया कि उस दिन बहुत कोहरा रहेगा, धुंध रहेगी. इसलिए यह एक्सरसाइज उस दिन तय की गई कि उस समय ट्रुप्स को दिल्ली आने में कितना समय लगता है, किसी भी अकल्पनीय स्थिति का सामना करने के लिए.
सेना की टुकड़ियां आगरा और हिसार से दिल्ली की तऱफ चलीं. ये टुकड़ियां दो घंटे के नोटिस पर मूव कर सकती हैं. इन टुकड़ियों की ट्रेनिंग ऐसी होती है कि इन्हें तैयार होने में कोई व़क्त नहीं लगता. ये हमेशा तैयार रहती हैं, पर मैक्सिमम इनके लिए 2 घंटे का टाइम होता है कि सब कुछ तैयार करके ये 2 घंटे के भीतर उस ट्रबल एरिया की तऱफ मूव कर जाएं, अगर सरकार या देश की साख के ऊपर कोई हमला करता है. शेखर गुप्ता को उन सज्जन ने यह भी बताया कि उस एक्सरसाइज में हमें कई माइनस प्वाइंट नज़र आए. मसलन, टुकड़ी कहीं है, हथियार कहीं हैं. यह पता चला कि आप कहां से कहां आ सकते हैं, आपको यह सपोर्ट मिल सकता है या नहीं. यह बहुत ही रिगरस एक्सरसाइज़ हुई और पता चल गया कि हमें अपनी किन-किन खामियों को दूर करना है. उन दोनों ट्रुप्स को जो टास्क दिए गए थे, जैसे ही वे टास्क खत्म हुए, उन ट्रुप्स को कह दिया गया कि नाउ गो बैक. उन्हें एक रात रुकने के लिए कहा गया, उसके बाद उन्हें जाने के लिए कह दिया गया. यह सेना की एक्सरसाइज़ थी. लेकिन वे लोग, जो सेना की साख खत्म करना चाहते थे और सेना की साख खत्म करने में मीडिया को अपना हथियार बनाना चाहते थे, उन्होंने इसे दिल्ली पर क़ब्ज़ा करने की साज़िश के रूप में प्रचारित करना शुरू कर दिया. किसी अख़बार और टेलीविज़न चैनल ने इसके ऊपर भरोसा नहीं किया. स़िर्फ इंडियन एक्सप्रेस ने इसके ऊपर भरोसा किया. उसके कारण हम भी तलाश सकते हैं, लेकिन उन कारणों को ईमानदारी से सरकार को तलाशना चाहिए.

अब आपको एक और रहस्य बताते हैं. इंडियन एक्सप्रेस के संवाददाता ने कई वरिष्ठ अधिकारियों से बात करने की कोशिश की और चाहा कि कोई उससे यह कह दे कि हमें तो ऐसा नहीं पता, लेकिन हो भी सकता है. ऐसा हो भी सकता है, स्टोरी कंफर्मेशन के रूप में छाप दिया जाए. इस सिलसिले में यह संवाददाता नेशनल सिक्योरिटी एडवाइजर के दफ्तर तक गया. उन्होंने इंटरव्यू देने से मना कर दिया, टाइम देने से मना कर दिया. स्टोरी इसके बाद भी रखी रही. संदेह तब होता है, जब सबसे बड़े अधिकारियों में से एक से शेखर गुप्ता ने यह बातचीत कर ली और उन्होंने इसकी सच्चाई शेखर गुप्ता को बता दी, तब यह स्टोरी 4 अप्रैल को क्यों छपी? यह सच्चाई 22 मार्च को दोपहर के खाने के समय शेखर गुप्ता को उस अधिकारी ने बताई, जहां वह थे और मैं था और जिस पर शेखर गुप्ता ने ऐसा कोई सवाल नहीं पूछा था या ऐसा कोई रिएक्शन नहीं दिया था कि उन्हें उसकी बात पर कोई भरोसा नहीं है. मैं यहां सवाल उठाता हूं कि आप छोटे-मोटे लोगों से बातचीत करते हैं कि यह बात सही है या ग़लत, आपको कोई जवाब नहीं मिलता, लेकिन आप जब सबसे बड़े अधिकारी, चाहे प्रधानमंत्री हों, रक्षा मंत्री हों या रक्षा सचिव हों या सेनाध्यक्ष हों, जब इनसे पूछ लेते हैं कोई बात और वे कह देते हैं कि नहीं, आपके पास जो ख़बर आई है, वह बिल्कुल ग़लत है. तब फिर आप उस ख़बर को सही बनाकर छापते हैं तो यह मानना चाहिए कि कोई बहुत बड़ी ताक़त है, जो इन चारों से बड़ी है और आपसे काम करा रही है. वह हथियारों की लॉबी है? अमेरिका है? अंडरवर्ल्ड है? क्या है? इसका जवाब हम शेखर गुप्ता से सार्वजनिक रूप से मांगना चाहते हैं, क्योंकि उन्होंने इस देश में अविश्वास का वातावरण जानबूझ कर पैदा किया है.
(चौथी दुनिया के प्रधान संपादक संतोष भारतीय का चौथी दुनिया में लिखे लंबे लेख का एक अंश)

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