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Nandita Mahtani hosts a birthday party for Tusshar Kapoor

http://www.sakshatkar.com/2017/11/nandita-mahtani-hosts-birthday-party.html

खबरिया चैनलों के भगवान, बने ठग और बेईमान


प्रेस : प्रेस क्या है/मैं चिल्लाया/तभी गूंजी एक अजनबी आवाज मैं प्रेस हूँ/मुझमें समाहित है मनुष्य का सारा ज्ञान मैं देवों में देव/भू,वर्तमान,भविष्य को बनाता हूँ/या फिर नीरव शांति को समर्पित करता हूँ/ जिसे याद रखूं,उसे अमर कर दूँ/जिसे भूल जाऊं,सदा के लिए खो दूँ. 
-जेम्स मांट गुमरी 

जेम्स की यह पंक्ति भारतीय मीडिया,खास कर टी.वी.चैनल्स के चाल,चरित्र और चेहरे को आइना दिखाती है और मीडिया के अहम,घमंड,आडम्बर और स्वयंभू ताकत की तरफ इशारा भी करती है. खबरिया चैनलों के चरित्र को देखिये.ये कल तक जिस निर्मल बाबा को ‘सच्चे भगवान का नया अवतार’ के तौर पर दिखाते थे,अचानक वह इनकी नज़रों में ठग,ठेकेदार,धोखेबाज और करोड़ों का मालिक हो गए.

पहले सारे चैनल उनके दरबार को दिखाते थे,अब उनके कारोबार को दिखा रहे हैं.लगता है इस देश में सिर्फ निर्मल बाबा ही ठग हैं,बाकी जो बचे हैं वे सब संत हैं.चैनलों के किस खबर को सही माना जाये.एक हफ्ते पहले दिखाए जा रहे निर्मल बाबा के ‘छठी इन्द्रिय’ वाली खबर को या मौजूदा खबर को.

दोनों में से किसने,किसको ठगा.यह हकीकत किसको पता है. निर्मल बाबा ने चैनलों को ठगा या फिर चैनलों ने निर्मल बाबा और पब्लिक दोनों को.एक बात तो है निर्मल बाबा ने इन चैनलों की पोल तो खोल कर रख ही दी है और सिद्ध किया कि मीडिया सही सूचना कम,भ्रम अधिक फैलाता है.

वर्तमान में खबरिया चैनल जिस तरह की छवि पेश कर रहे हैं.लगता है,ब्रम्हांड के जितने ज्ञान हैं,वे सब इन्हीं माध्यमों में समाहित हैं.ये माध्यम जिसे याद करते हैं,उसे निर्मल बाबा,योग गुरु रामदेव,अन्ना हजारे आदि बना देते हैं और जिसे भूल जाते हैं,उसे अंधे कुएं में ठेल दते हैं.इसका शिकार है,मुल्क की 85 फीसदी जनता है.इनके कैमरे सिर्फ १५ फीसदी लोगों के जीवन को फ्लैश करते हैं,जिनके पास कमाल की पूँजी और इसका स्रोत है. जिनसे,इनको टी.आर.पी. बढ़ने की उम्मीद हो, उसे नायक, महानायक और महा-भगवान बना देते हैं.बाकी इनके नज़र में खलनायक या फिर अनुपयोगी रहते हैं.जिन्हें प्रमोट करते हैं,उसे युवराज बना देते हैं या पुकारते हैं और उसमें एका-एक देश का भविष्य देखने लगते हैं.जब ‘युवराज’ के ‘राज’ को जनता ख़ारिज कर देती,तब इनके अंदर खाने में नीरव शान्ति फ़ैल जाती है.

इन्हें,जिनसे विज्ञापन की मोटी रकम मिलती है,उन्हें याद रखते हैं,भरसक उसे अजर-अमर करने के लिए अंतिम दम तक प्रयत्नशील भी रहते हैं.इन माध्यमों में गजब की ताकत है.जिसमें आस्था रखते हैं,उसकी दुकान चला देते हैं और जिसे नापसंद करते हैं,उसका शटर गिरा देते हैं.यह शांति भी फैलाते हैं तो मन को अशांत और व्याकुल कर देते हैं.

आज का यह जलता हुआ सच है.जितने टीवी चैनल्स हैं,उससे कहीं अधिक उनके चरित्र मौजूद दिखते हैं.अब तक जितने माध्यमों का बाज़ार में आगमन हुआ है,वह उतने ही किस्म के भ्रम भी फैला रहे हैं.‘समाचार एक,दृष्टि अनेक’ के तर्ज पर इसे प्रसारित करते हैं. अब के संपादक मैनेजर बा गए हैं.इनके मैनेज करने के विचार और तरीके भी बहुरंगी होते हैं.जितने रिपोर्टर हैं,उतने ही उनके स्वरूप के दर्शन होते हैं.इनमें जीतनी गति है,उतने ही विभत्स रूप मौजूद हैं.इनमें जितने रंगों से सुसज्जित हैं,उतने ही बदरंग भी दिखाते हैं. इनमें जीतनी विविधता है,उतनी ही नाटकीयता समाहित है.ये जितने उजले दिखते हैं,उतने ही अंदर से काले भी हैं.जितने घंटे न्यूज प्रसारित करते हैं,उतने देर तक कन्फ्यूजन भी पैदा करते हैं.इनमें जितने ग्लैमर-आकर्षण है,उतने ही विकर्षण और उबन को जन्म देते हैं.

यह जितने सच होने का दावा करते हैं,उतने ही असत्य रूप को सामने लाते हैं.जितने तथ्य रखते हैं,उतने ही कथ्य पेश करते हैं.ये अपना शक्ल दिखाते हैं सकारात्मक,जबकि छवि दिखती है नकारात्मक. सफलता का जितना ही दावा करते हैं,उतने ही असफल दिखते हैं.आम जनता में जितना विश्वास पैदा करने की कोशिश करते हैं उतना ही अविश्वास का चादर फैला देते हैं.इनमें जितना आग्रह है,उतने ही पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं.मीडिया के जितने स्रोत हैं,अवाम के बीच उतने ही अफसोस दिखाई देते हैं.एकबारगी में मुट्ठी भर लोगों को जीतनी अच्छाइयां दिखती हैं, बहुसंख्यक जमात को इनमें अधिकतर बुराइयां ही नजर आती हैं.

ये अक्सर परिपक्व होने का प्रदर्शन करते हैं,लेकिन अपरिपक्वता का अधिक मुजाहिरा करते प्रतीत होते हैं. कई बार संतुलित होने का स्वांग रचते हैं,जबकि असल में संकुचित होने का संकेत देते हैं.इनके मन में जीतनी उत्कंठा जन्म लेती है,उससे कहीं अधिक कुंठा का प्रदर्शन करते हैं.यह सब जितने सेकुलर होने का दावा करते हैं,समय-समय पर उतने ही सांप्रदायिक शक्ल अख्तियार करते दिखते हैं.अच्छे बनने के जुगाड़ में,बुरा करने के जुगत बिठाते रहते हैं.कभी-कभी पारम्परिक होने का ढोंग करते हैं,जिससे सर्वाधिक गैर-पारम्परिक कदम उठाते हैं.

बात करते हैं आधुनिक नजरिये की,लेकिन पोंगापंथी और जड़तावादी होते चले जाते हैं.बहुत से मामलों में सिद्धांतवादी होने का दावा करते हैं,लेकिन वास्तव में गिरोहवादी लगते हैं.बात करते हैं सामाजिक जीवन,आदर्श और मूल्यों की और उदाहरण पेश करते हैं फिसलनवादी संस्कृति की.अपने को बताते हैं,गैर-राजनीतिक लेकिन राजनैतिक गठजोड़ के तिकड़म भिड़ाते फिरते हैं. एक को राजसत्ता हासिल करने में मदद करते हैं और दूसरे के सत्ता को पलटने के लिए अभियान चलाते हैं. जितने विश्वसनीय होने का दावा करते हैं,उतने ही अविश्वसनीय होते चले जाते हैं.जितने तटस्थ रुख अपनाते हैं,असल में उतने ही संलिप्त होते हैं. दूर होकर,नजदीक होने का भ्रम फैलाते हैं.सार्थक बात करते-करते,निरथर्क बन जाते हैं.

बहुतों को ज्ञानी बनाते हैं,उतने ही अज्ञानी भी दिखते हैं.इनके संतुलन में भी उग्रता दिखती है.जितने ही जिम्मेदार होने का दावा करते हैं,उतने ही लापरवाह नजर आते हैं.प्रचार करते हैं प्रतिबद्ध होने का,परन्तु अप्रतिबद्ध दिखते हैं. इन्हें लोग जितने सभ्य समझते हैं,कभी-कभी उतने ही असभ्य प्रदर्शन करते हैं.ये वैज्ञानिक होने का दावा करते हैं,लेकिन अंधविश्वास फैलाते हैं. दावा करते हैं मानवीय होने का,दिखते हैं अमानवीय.

इस विधा में जितनी दृष्टि हैं,उतने ही कोणों से चीजों को देखते हैं.इन्हें जितना लोकतान्त्रिक समझा जाता है या ये दावा करते हैं उतने ही अलोकतांत्रिक कदम उठाते हैं.बाह्य दुनिया में ये भले ही स्वतंत्र रूप में दीखते हैं,आतंरिक ढांचे में उतने ही परतंत्र हैं. ये जितने ईमानदार दिखते हैं,इनके बेईमानी की कथाएं भी उतनी ही मशहूर हैं.जितने सच्चे हैं,उतने झूठे भी.जितने साहसी हैं,उतने डरपोक भी हैं.ये जितने सुखी हैं,उतने ही दुखी भी.लोगों की नज़र में जितने समझदार हैं,उतने ही नासमझी का उदाहरण पेश करते हैं. वैसे तो ये संवेदनशीलता के ठेकेदार बनते हैं,लेकिन असल में उतने ही असंवेदनशील प्रदर्शन करते हैं.जितने मजबूत हैं,उतने ही कमजोर भी हैं.जितने तेज रफ़्तार से खबरें चलाते हैं,उतने ही धीमी गति से जनता के बीच पहुंच बना रहे हैं.यानी जितने सफल हैं उतने ही असफल भी.इसके हिस्से में सिर्फ बुराइयां ही नहीं हैं.अच्छाइयां भी हैं.लेकिन यह पूरी आबादी की तुलना में कम है.

यहाँ पर टीवी माध्यमों के मूल्यांकन का मकसद,उन्हें ख़ारिज करना नहीं है,बल्कि उनका पुनर्मूल्यांकन करना है.यह माध्यम अपने आपको लोकतंत्र का ‘चौथा खम्भा’ होने का दावा करता है.जाहिर है,लोग इसके मजबूती का आकलन भी तो करेंगे. इसके ‘खम्भे’ यानी ‘पिलर’ के निर्माण में किस कंपनी का सरिया,गिट्टी,बालू और सीमेंट लगा है.इसमें कितनी मिलावट है और इसकी गुणवत्ता कैसी है.उसका जीवन कितना है.इसमें कितने लोगों के भार को सहने की क्षमता है.इसकी परख तो लाजिमी है.

हम मीडिया के स्वतंत्रता के पक्षधर हैं,इसके स्वच्छन्दता के नहीं.इसलिए इसकी निरंतर आलोचना होनी चाहिए.ताकी इसमें सुधार आये.इसका आग्रह आम जनता के पक्ष में खड़े होने का होना चाहिए,न कि मुट्ठी भर लोगों का भोपूं बनने की. इन चैनलों को भूमंडलीकरण,बाजारवाद और आर्थिक उदारीकरण के अंधा प्रचार की जगह राष्ट्रीयहित के बारे में सोचना होगा.कोतवाल,जज और सत्ता का औजार बनने से इंकार करना होगा.बाजार में जिन्दा रहने की चुनौतियों के साथ-साथ आम अवाम के पक्ष में खड़ा होना होगा.तभी ये माध्यम अपने आप को बचा पाएंगे.
(लेखक पत्रकारिता एवं नवीन मीडिया अध्ययन विद्यापीठ,इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय,मैदान गढ़ी में सहायक प्रोफेसर हैं.)
Mediakhabar.com

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