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Nandita Mahtani hosts a birthday party for Tusshar Kapoor

http://www.sakshatkar.com/2017/11/nandita-mahtani-hosts-birthday-party.html

ढोंगी है तो मत मानो निर्मल बाबा की!


-रविन्द्र नाथ शाही- 




यदि निर्मल बाबा की बात करें, तो उनकी अंधाधुन्ध सफ़लता व लोकप्रियता के कारणों का विश्लेषण करना भी आवश्यक हो जाता है । बिन मांगे धनवर्षा को ठगी मानकर उसके पूर्वाग्रहों से ग्रस्त होकर किये जाने वाला अनर्गल प्रलाप भी एक प्रकार की भेड़चाल ही कही जाएगी, मात्र भेड़ों की नस्ल और प्रजाति का ही फ़र्क़ होगा ।

निर्मलबाबा नि:संदेह एक साधारण आदमी हैं, जैसे हर साधु सन्त और फ़क़ीर होते आए हैं । युवराज सिद्धार्थ की बुनियाद टटोलें, तो क्या माना जाएगा कि उनमें किसी आराध्य भगवान के बीजतत्व जन्मजात ही मौज़ूद थे ? यानी मनुष्य जन्म से नहीं, बल्कि कर्म से महान बनता है, परम सत्य यही है । निर्मलबाबा एक साधारण गृहस्थ पंजाबी परिवार में जन्म लेकर आज भी गृहस्थ ही हैं, यदि रुपए-पैसे की हैसियत को दरकिनार करें, तो साधारण भी । जो जानकारियाँ अखबारों के माध्यम से आ रही हैं, उनके अनुसार उन्होंने कई व्यवसाय और उद्यमों में भी हाथ आजमाए, और औसतन असफ़ल रहे । फ़िर जिस प्रकार कभी सिद्धार्थ को या साईं बाबा को अपने जीवन का मक़सद समझ में आ गया था, इन्हें भी आया, तथा सम्भवत: कुछ अतीन्द्रिय शक्तियाँ भी उन्हें निश्चय ही प्राप्त हुई होंगी, जिसकी कुछ बानगी उनके हर टीवी कार्यक्रम में देखने को मिल ही जाती है । लोगों को आस्थावान बनाने तथा ईश्वर में विश्वास जगाने के शुरू से ही हर धर्म-गुरु के अपने-अपने ढंग रहे हैं, जिनका आधार स्थान और काल ही होता आया है । आज जिस तरह की मानसिकता का दौर चल रहा है, तथा जो वैश्विक वातावरण विद्यमान है, उसमें आदि शंकराचार्य, रामकृष्ण परमहंस या स्वामी विवेकानन्द की कार्यशैली को अपना कर कोई धर्मगुरु जनमानस को प्रभावित कर उसकी आस्तिक विचारधारा को कोई दिशा दे पाएगा, इसमें शतप्रतिशत संदेह है । स्वामी विवेकानन्द के पदचिह्न पर चलने वाले कई भगवाधारी आर्यसमाजियों को आज सरेआम मीडिया तथा आमजन की दृष्टि में उपहास का पात्र बनते देर नहीं लगती । आज के समय में जो आजके हिसाब से सुलभ, सुगम तथा रिमोट का बटन दबाकर इच्छित लक्ष्य प्राप्त करने वाली बात करेगा, आज का आदमी उसी की बात सुनने भर का समय बचा पा रहा है, बहुत ज़्यादा टाइम किसी के पास नहीं है । या तो निर्मल बाबा को बोध हुआ, या फ़िर ईश्वरीय शक्तियों ने उन्हें बोध कराया, यह अलग बहस का विषय हो सकता है । परन्तु यह सच्चाई तो सबके सामने है ही, कि निर्मल दरबार में जो कुछ भी है, बिल्कुल खुला रहस्य है । वह दुनिया से ऐसा कुछ भी छुपाकर नहीं कर रहे, जिसपर रहस्यमय तौरतरीक़े का आरोप लगाया जा सके । उनके यहाँ न तो कुछ खरीदा जा रहा है, न ही बेचा जा रहा है । न तो किसी जटिल ज्ञान के लेन-देन की कोई बात हो रही है, न ही किसी से एक पैसे का भी कोई सौदा किया जा रहा है । झकास सिंहासन पर साधारण वेशभूषा में लगने वाले उनके दरबार में खुद उनके मुँह से भी 'ॐ नम: शिवाय' के अतिरिक्त किसी मंत्र का उच्चारण किसी ने आजतक नहीं सुना । उनके हाव-भाव से भी स्पष्टत: अंदाज़ लग जाता है कि कोई मंत्र उन्हें शायद ही आता भी हो । जो है, बिना किसी लागलपेट के एक साधारण आम इंसान की तरह ही वे अपने बिल्कुल साधारण प्रतीत होने वाले ज्ञान का वितरण कर रहे हैं । आमजन उसी ज्ञान पर अगर लट्टू हुआ जा रहा है, तो कहीं कुछ तो है ही, जो किसी और के पास नहीं । इसी को समझने की ज़रूरत है ।

आधुनिक विज्ञान से पूर्व भी वह सब कुछ मौज़ूद रहा है, जिसका अनुसंधान कर विज्ञान ने अणु, परमाणु, प्रकृति और ब्रह्माण्ड के अनेक रहस्यों से पर्दा उठाने में सफ़लता प्राप्त की है, और जीवधारियों को अपने मातृ ग्रह के पड़ोसी कुछ ग्रह-उपग्रहों की सैर भी कराई है । इतनी कसरत के बावज़ूद विज्ञान खुद स्वीकार करता है कि अभी तक अनन्त रहस्यों के बीच से जो कुछ भी प्राप्त हो पाया है, वह समुद्र से एक बूँद के बराबर भी नहीं है । लाखों करोड़ों आकाशगंगाओं में से एक हमारी अपनी आकाशगंगा में ही हमारे सौरपरिवार के सूर्य जैसे लाखों सूर्यों के अस्तित्व में होने की बात विज्ञान स्वीकार करता है । फ़िर हमारी पृथ्वी जैसी ढेर सारी पृथ्वियाँ भी होंगी, जिनपर विभिन्न प्रकार का जीवन भी अस्तित्व में होगा, यह उतना ही सत्य माना जाना चाहिये, जितना कि खुद हमारा अस्तित्व । फ़िर कोई तो शक्ति है ही, जिसने इस पूरी व्यवस्था को जन्म भी दिया, और सबकुछ चला रही है । उसी शक्ति को हम ईश्वरीय सत्ता कहते आए हैं, प्रकृति कहते आए हैं, और निर्मलबाबा भी इससे इतर कुछ नहीं कह रहे हैं । चूँकि उनका मूल भारत के हिन्दुत्व में है, इसलिये स्वाभाविक रूप से उनकी मान्यता का झुकाव हिन्दू देवी देवताओं के आराध्य स्वरूप की ओर अधिक अवश्य है , परन्तु वे बार-बार यह दोहराना नहीं भूलते कि चाहे कोई भी नाम दे लो, परन्तु सभी शक्तियाँ एक हैं, उनका नामकरण और अपनी परम्परानुसार पूजा की पद्धतियाँ मनुष्य की अपनी सुविधानुसार मनुष्य द्वारा ही निर्धारित की गई हैं । अपने महिमामंडन की चाह और स्तुति सत्ता की स्वाभाविक इच्छा होती है, और ईश्वरीय सत्ता भी इस इच्छा से अछूती नहीं है । प्राकृतिक सत्ता अपनी व्यवस्था के तहत सबका पालन और विकास करने को बाध्य है, समयानुसार संहार भी वही करती है । करोड़ों अरबों वर्षों से इस प्राकृतिक अथवा ईश्वरीय संतुलन व्यवस्था की प्रक्रिया चलती ही आ रही है । परन्तु अपने कर्मों और प्रकृति द्वारा निर्धारित मापदंडों के अनुसार उसमें आस्था व्यक्त करते हुए, जो व्यक्ति स्वयं को उसका जिस अनुपात में कृपापात्र बनाने में सफ़ल हो पाता है, उसकी भौतिक प्राप्तियों का स्तर भी उसी के अनुरूप कम या अधिक होता है । यह दुनिया सहृदय और आस्थावान मनुष्यों द्वारा ही पोषित हो पाती है । प्रकृति के विरुद्ध आचरण करने वाले प्राकृतिक व्यवस्था के विरुद्ध होते हैं, और प्रकृति या ईश्वरीय शक्तियाँ अपनी संतुलन व्यवस्था के तहत ऐसे तत्वों को तदनुसार ही उचित दंड भी देती हैं । स्वचालित रूप से यह संतुलन व्यवस्था अपना काम करती रहती है, जिसे किसी भी प्रकार की कुटिल छेड़छाड़ से प्रभावित कर पाना असंभव है । निरन्तर किये जाने वाले आस्तिक अभ्यास से मनुष्य आस्थावान और प्रकृति के क़रीब रह कर जीने का अभ्यस्त बन जाएगा, जिससे स्वत: समस्त बुराइयों का शमन होगा, जो प्राकृतिक असंतुलन का मूल कारक होती हैं । अब इस प्रकार की सोच रखकर तदनुसार आचरण करने वाले, तथा कम से कम अपने देश में ऐसा वातावरण निर्मित करने का प्रयास करने वालों को यदि ठग और पाखंडी समझा जाएगा, तो पाखंड को एक बार पुन: परिभाषित करने की आवश्यकता पड़ जाएगी ।

निर्मलबाबा के प्रति विरोध का स्वर उठने का एकमात्र कारण वही है, जो हमेशा ही किसी भी विवाद के मूल में होता है, अर्थात धन । धन क्यों आ रहा है, सारे फ़साद की जड़ यही है । बाबा रामदेव के विरोधियों को भी उनमें एकमात्र यही बुराई दिखती रही है, कि बाक़ी सबकुछ तो ठीक है, परन्तु इनका ट्रस्ट और योगपीठ इतना धन क्यों कमा रहा है ? तो अब इसका क्या जवाब दिया जाय ? है कोई जवाब ? दरअसल स्वाभाविक रूप से हम दूसरों के धन के बारे में हमेशा नकारात्मक रुख रखने की बीमारी से पीड़ित रहते हैं, और यह मर्ज़ लाइलाज़ है ।

निर्मलबाबा भी एक आम मनुष्य हैं, और आम मनुष्य का धनोपार्जन की प्रकृति के साथ पैदा होना कोई अस्वाभाविक नहीं है । चार पुरुषार्थों में से एक 'अर्थ' भी पुरुष के लिये उतना ही आवश्यक है, जितना कि धर्म, काम और मोक्ष की प्राप्ति । धन यदि अधार्मिक तरीक़े से उपार्जित नहीं किया जा रहा हो, तो उसे कदापि निन्दनीय नहीं माना जा सकता । किसी डाक्टर और वक़ील की भी अपनी निर्धारित फ़ीस होती है, जिसपर कभी आपत्ति प्रकट नहीं की जा सकती । निर्मलबाबा यदि चाहें तो आज उनकी लोकप्रियता का जो स्तर है, वे अपने समागम की फ़ीस 2000 रुपए से बढ़ाकर 10000 रुपए भी कर दें, तो बुकिंग की लाइन और बढ़ जाएगी, घटेगी नहीं । क्या यह भीड़ सचमुच की भेड़ों की ही भीड़ है ? समागम की फ़ीस के अतिरिक्त उनके दरबार में दसवन्द की राशि के रूप में भी अच्छा दान प्राप्त हो रहा है, जिसका हिसाब लेना मेरे या किसी भी अनधिकृत व्यक्ति के अधिकार क्षेत्र के बाहर है । जिस प्रकार बाबा रामदेव का योग के विषय में स्पष्ट कथन है कि योग भारत के प्राचीन ॠषि-मुनियों की देन है, उन्होंने मात्र सर्वसाधारण से उसका परिचय कराया है, निर्मलबाबा का दसवन्द के बारे मं भी ऐसा ही कहना है । पुराने समय से ही कमाई के एक हिस्से को धर्मादा या ज़क़ात के रूप में निकाले जाने की परम्परा समाज में रही है । ऐसी मान्यता है कि ईश्वरीय शक्तियों को अर्पण के रूप में निकाले जाने वाले इस हिस्से से बदले में शक्तियों से निरन्तर बरक़त और सुख-शान्ति की प्राप्ति होती है । निर्मलबाबा कभी किसीसे ज़बर्दस्ती दसवन्द निकाले जाने की बात नहीं करते । जिसकी दान की स्थिति नहीं है, या पेंशन आदि से दसवन्द निकालने की स्पष्ट मनाही है । वे खुले तौर पर कहते आए हैं कि उनके बताए तरीक़ों पर चलकर जब बरक़त अथवा धन की प्राप्ति ईश्वरीय कृपा से होने लगती है, तभी उसके दसवें हिस्से को दसवन्द के रूप में निकाले जाने की बारी आती है । ज़बर्दस्ती के जुगाड़, कर्ज़ की राशि अथवा गलत तौर-तरीक़े इस्तेमाल कर कमाए गए धन से निकाले गए दसवन्द की राशि को शक्तियाँ कभी स्वीकार नहीं करतीं, चाहे उसकी राशि लाखों करोड़ों में ही क्यों न हो । टेढ़े-मेढ़े हथकंडों के माध्यम से, या शोषण की सीमा वाले सूद-व्याज से कमाए गए धन को भी स्वीकार नहीं किया जाता । ऐसा किये जाने पर ईश्वरीय दंड की चेतावनी भी निर्मलबाबा स्पष्ट रूप से देते आए हैं । निर्मलबाबा द्वारा अपने दरबार के माध्यम से बताई जाने वाली बातों का लब्बोलुआब कुछ इस प्रकार है --

1. कोई किसी भी रूप में माने, ईश्वरीय शक्तियाँ सभी एक हैं, उनमें कोई भेद नहीं है । परन्तु आस्था के प्रकार को बदलते रहना हितकारी नहीं होता । जो व्यक्ति अपने बचपन से जिस इष्ट को मानता आया है, शक्ति के उसी स्वरूप से उसका मानसिक तादात्म्य स्थापित हो जाता है, अत: उस स्वरूप की पूजा ही विशेष रूप से फ़लदायी होती है ।

2. फ़ल प्राप्ति या अनिष्ट निवारण हेतु उपाय के तौर पर किया जाने वाला कोई भी अनुष्ठान या तांत्रिक क्रिया, अथवा तंत्र-मंत्र का प्रयोग किया जाना ईश्वरीय शक्तियों को नाराज़ करने की कार्रवाई है । इनसे बचना चाहिये । किसी भी निहित स्वार्थी तत्व द्वारा बेचे गए या दूरगामी लाभ को देखते हुए प्रदान किये गए गंडे तावीज़, यंत्र, कथित अभिमंत्रित मूर्तियाँ, माला, क़ीमती पत्थरों की अंगूठियाँ, रुद्राक्ष आदि ग्रहण करना ईश्वरीय शक्तियों को नाराज़ करता है । वे यह मानती हैं कि उस व्यक्ति द्वारा उन्हें अपने स्वार्थ के तहत बाँधने का प्रयास किया जा रहा है, और शक्तियों की बजाय उसे उपायों पर अधिक विश्वास है । इन प्रवृत्तियों से बचना चाहिये, क्योंकि इससे लाभ की बजाय हानि अधिक होती है ।

3. शक्तियाँ सर्वत्र विराजमान हैं, और सबकुछ देख रही होती हैं । परन्तु घरों में विधिवत पूजा हमेशा संदिग्ध होती है । आडम्बर की संभावनाएँ बनती हैं, जो शक्तियाँ पसन्द नहीं करतीं । सही स्थान मंदिर ही होते हैं, परन्तु घर में भी ईश्वरीय शक्तियों के लिये एक उपयुक्त स्थान देना अनिवार्य है । यथासम्भव कम से कम फ़ोटो आदि रखकर रोज़ एक निश्चित समय पर अगरबत्ती दिखाकर दो से पाँच मिनट की भी पूजा पर्याप्त है । दीप, भोग, प्रसाद आदि के साथ घर में पूजा करना उचित नहीं है । इनके लिये मंदिर ही उपयुक्त स्थल है । शिवलिंग, शालिग्राम, घंटी, शंख और रुद्राक्ष आदि संवेदनशील वस्तुएं हैं, जिनका घर की पूजा में इस्तेमाल निर्मल बाबा वर्जित करते हैं, क्योंकि विधिपूर्वक इनका नियमित प्रयोग एक जटिल प्रक्रिया है, जिसका सही मान न हो पाने पर हानि संभावित है । निर्मलबाबा के असंख्य भक्तों ने अपने घर के शिवलिंग आदि या तो मंदिरों के हवाले किया, या तो बहती धारा वाले जल में प्रवाहित कर दिया ।

4. महीने में एक से दो बार अपने गाँव शहर के नज़दीकी मंदिर में जाकर प्रसाद और चढ़ावे के साथ अपने आराध्य के सामान्य दर्शन पूजन की नितान्त आवश्यकता होती है । पूजा में सामग्री की कम, भावना की प्रधानता अधिक होती है । भावनाएँ यदि आराध्य से जुड़ी हों, नीयत साफ़ हो, तो दो फ़ूल और एक नारियल आदि से ही पूजन काफ़ी है । परम्परानुसार फ़ल, मिठाई आदि का प्रसाद चढ़ाया जा सकता है । परन्तु चूँकि सबकुछ शक्तियाँ ही देती हैं, अत: उनके प्रति सम्मान और त्याग प्रदर्शित करने हेतु मंदिरों के गुल्लक (दानपात्र) में एक समुचित राशि का डाला जाना अनिवार्य है । यह राशि किसके द्वारा किस प्रयोजनार्थ कहाँ खर्च की जाती है, इसपर दिमाग खर्च करना भक्त का काम नहीं है । उसके उपयोग दुरुपयोग का हिसाब रखना और तदनुसार फ़ल या दंड देना शक्तियों का काम है । उनके न्याय से कोई बच नहीं सकता । साल दो साल में एक से दो बार शक्तियों के प्रमुख स्थल यथा वैष्णो देवी, शिरडी के साईं बाबा, मुम्बई के सिद्धिविनायक मंदिर, हरिद्वार, अजमेरशरीफ़, हाज़ीअली तथा तिरुपति बालाजी मंदिर आदि का दर्शन भी आवश्यक है, जहाँ कम जा पाने के कारण गुल्लक का चढ़ावा भी स्थानीय मंदिरों से अधिक होना ही चाहिये । कहीं भी श्रद्धापूर्वक जायँ । भय, दबाव या लालच और मन्नत की इच्छा लेकर कत्तई न जायँ । शक्तियाँ भाव से प्रसन्न होती हैं । उन्हें अपने भक्त की इच्छा और ज़रूरतों की जानकारी भक्त से भी अधिक होती है । उनकी कृपा हो गई, तो सबकुछ बिना मांगे ही स्वत: प्राप्त हो जाना है । समय-समय पर गाय को रोटी तथा नियमित रूप से चिड़ियों को दाना-पानी देना ईश्वरीय व्यवस्था को संतुष्ट करता है, जिससे विशेष कृपा की प्राप्ति होती है । 

5. बहुत सारे लोग बहुत मेहनत कर के भी कुछ खास हासिल नहीं कर पाते, और उनके रास्तों में अनपेक्षित व्यवधान आते रहते हैं, तो इसका कारण बस यही होता है कि वे खुद को ईशकृपा का पात्र नहीं बना पाए । जो ईश्वरीय शक्तियों का कृपापात्र बन जाता है, कामयाबी हर कार्य में उसके क़दम चूमती है । क्योंकि ईश्वरीय शक्तियाँ उसके समस्त विघ्नों का नाश कर सफ़लता के सारे रास्ते खोल देती हैं । शक्तियाँ भविष्यवक्ता या भाग्यवाचक नहीं होतीं, बल्कि खुद भाग्य निर्माता होती हैं । वे यदि चाहें तो पलों में किसी भी अभागे का दुर्भाग्य सौभाग्य में बदल सकती हैं । 

6. इस दुनिया के ही समानान्तर एक सुपरनेचुरल संसार भी है । वह संसार भी ईश्वरीय शक्तियों द्वारा ही निर्मित व संचालित है । मृत्यु के पश्चात जीवधारी की आत्मा वहाँ वास करती है । जिन पुरखों के जीते जी उनकी पूजा उपासना नहीं की गई, उनकी मृत्यु के पश्चात उन्हें माल्यार्पित कर धूप, दीप और अगरबत्ती आदि दिखाकर उनका वन्दन करना ईश्वरीय शक्तियों का अपमान करने के समान है । इसकी बजाय उनका श्राद्ध कर गरीबों को भोजन व दान आदि करना अधिक श्रेयस्कर है, इसी से पुरखों की आत्मा तृप्त व शान्त होती है । उनकी तस्वीर के आगे दिया जलाने से खुद के साथ-साथ उन्हें भी कष्ट ही होता है । अत: इन कार्यों से बचना चाहिये । गलत तरीक़े से कुछ सिद्धियाँ हासिल कर कुछ निम्नस्तरीय सोचविचार वाले लोग अतृप्त आत्माओं को माध्यम बनाकर, तंत्र-मंत्र को अपना रोजगार बनाकर धन कमाने में लिप्त रहते हैं, जो ईश्वरीय प्राकृतिक व्यवस्था के विरुद्ध है । ऐसे लोगों को शक्तियाँ उचित समय पर उचित दंड अवश्य देती हैं । 

अब यदि देखा जाय, तो निर्मल बाबा धन कमाने हेतु कोई ऐसा कार्य नहीं कर रहे, जो आपत्तिजनक हो, धर्मभीरु जनता को बरगलाकर गलत रास्ते पर ले जाता हुआ प्रतीत होता हो, या धनार्जन के लिये गलत और असंवैधानिक कृत्य जैसा लगता हो । लोकतांत्रिक देश के किसी भी नागरिक को अपने परिश्रम तथा बुद्धि-विवेक का इस्तेमाल करते हुए धन कमाने व सम्पत्ति रखने का अधिकार है, यदि वह गैरकानूनी तरीक़े का इस्तेमाल या दूसरों का हक़ मारकर, किसी की मजबूरी का फ़ायदा उठाकर बलात किसी और नागरिक के धन का अपहरण न कर रहा हो । जिस प्रकार कोई मंदिर या किसी ट्रस्ट को अपनी इच्छानुसार दान करता है, यदि वैसे ही दान के माध्यम से निर्मलबाबा के पास धन सम्पत्ति आ रही है, तो उसपर इतनी हायतौबा क्यों ? धन कमाने से किसको किसने रोका है ? अब उनकी कर योग्य किसी आय में यदि कर की कोई हेराफ़ेरी हो रही हो, या देय कर चुकाया न जा रहा हो, तो इसको देखने समझने के लिये पूरा सरकारी तामझाम देश में मौज़ूद है । इतना तो निर्विवाद है कि निर्मलबाबा पर न तो अंधविश्वास फ़ैलाकर जनता को गुमराह करने का कोई आरोप लगाया जा सकता है, और न ही भूत-प्रेत, टोने-टोटके या गंडे तावीज़ आदि बेचकर सतही तरीक़े से धन कमाने का ही कोई अनैतिक मामला बनता है ।


(शाही पत्रकार हैं, सहारा इंडिया में.)

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