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Nandita Mahtani hosts a birthday party for Tusshar Kapoor

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पत्रकारिता के पितामह हमारे पांडे जी




पत्रकारिता के पितामह हमारे पांडे जी
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चलो अच्छा हुआ एक बार फिर हम भटके हुए लोगों ने पितामह पितामह का खेल खेल लिया. अभी दस बारह दिन पहले 9 अप्रैल को रज्जो बाबू की एक और पुण्यतिथि मनाई गई. इधर दिल्ली में तो कोरस में कोई करुण गान नहीं हुआ लेकिन उधर इंदौर में लालजी (लाल आडवानी) ने पत्रकारिता का कोई पुरस्कार जरूर थमा दिया. आयोजन रज्जो बाबू के ही नाम पर था. रज्जो बाबू यानी राजेन्द्र माथुर.
रज्जो बाबू के बारे में कहा जाता है कि राष्ट्रीय होने निकली हिन्दी की अखबारी पत्रकारिता के लिए अगर कोई आदिपुरुष है तो वह रज्जो बाबू ही हैं. रज्जो बाबू हों या फिर प्रभाष जोशी ये दोनों ही राहुल बारपुते की पैदाइश थे. नई दुनिया में रहते हुए राहुल बारपुते ने जो रत्न हिन्दी पत्रकारिता को दिये उसमें रज्जो बाबू और प्रभाष जोशी का नाम सर्वोपरि है. सर्वोपरि इसलिए क्योंकि इंदौर से यही दो पत्रकार दिल्ली दरबार आये और एक ने नवभारत टाइम्स को राष्ट्रीय अखबार बनाया तो दूसरे ने एक्सप्रेस समूह में शामिल होकर जनसत्ता का प्रकाशन शुरू किया. नवभारत टाइम्स तब अब जैसा बिल्कुल नहीं था और इसी अखबार ने सबसे पहले देश को यह अहसास कराया कि कोई राष्ट्रीय अखबार भी होना चाहिए. संभवत: रज्जो बाबू की धारदार लेखनी ने लोगों की धारणा बदल दी. और कोई चार दशक के अंदर आज हमारे पास दहाई की संख्या में हिन्दी के भीमकाय राष्ट्रीय अखबार हैं.
तना घना तो वटवृक्ष बना. शाखाएं फूंटी तो अंग्रेजीवालों की आंखें फूटी. राहुल बारपुते ने इंदौर से जो रत्न निर्मित किये उन रत्नों ने अपनी अपनी क्षमता अनुसार रत्नों की लड़ियां लगा दीं. अस्सी और नब्बे के दशक में जब हिन्दी पत्रकारिता राष्ट्रीय होने की ओर अग्रसर थी तब इन्हीं दो लोगों के बनाए हुए लोग हिन्दी पत्रकारिता को दंहज रहे थे. नब्बे के दशक में रज्जो बाबू चले गये और इसी दशक में प्रभाष जोशी का जनसत्ता भी झिलमिलाते सितारे से टिमटिमाता तारा होने लगा था. लेकिन वृक्ष तो वटवृक्ष बन चुका था. इन लोगों ने पत्रकारिता के जो लोग पैदा किये थे उनमें से कुछ नाम डुबाने टीवी चैनलों की ओर चले गये थे तो कुछ छुट्टा प्रयोगों के साथ खड़े हो गये थे. रज्जो बाबू के सिखाये शिष्ट, सौम्य, साहित्यधर्मावलंबी पत्रकार हों या फिर प्रभाष जोशी के पटराकार जनसत्ताइट सब डाइनामाइट बन गये थे. जो जहां गया वहीं मिसाइल हो गया. ये दगी हुई मिसाइलें हिन्दी पत्रकारिता के लिए अगले एक दशक में कैसे संकट बन गईं इस पर हम फिर कभी बात करेंगे लेकिन अपने पांडे जी के कैरियर की शुरूआत भी इसी जनसत्ता से होती है.
पांडे जी का पूरा नाम अनिल पांडेय. पत्रकार होने के लिए पत्रकार दिखने के जितने पैमाने हैं वे सबपर खरे उतरते हैं. अनिल पाण्डेय से अपनी मुलाकात वैसे तो स्वदेशी पत्रिका में आते जाते हुए लेकिन बाद के दिनों में वे जनसत्ता के आईटीओवाले दफ्तर में कई बार मिले. उत्साह और उमंग से भरे हुए पांडे जी उस वक्त भी दिल्ली फतेह से कम का जज्बा नहीं रखते थे, आज भी नहीं रखते हैं. वे वहां सी-डी-ई या फिर एफ श्रेणी के पत्रकार थे जिन्हें बाद के दिनों में प्रभाष जोशी ने छुट्टा पत्रकार का नाम दिया था. उस दौर के बाद जब जब पांडेजी मिलते जहां मिलते थे वहीं खड़े दिखाई देते थे. पांडे जी बीती को ऐसे बिसार देते हैं मानों वह बीता ही न हो. शायद यही कारण है कि जनसत्ता से बाहर आये तो थो़ड़ा बेहतर विकल्प मानकर पत्रकारिता पढ़ाने लगे. माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रिकारिता विश्वविद्यालय के नोएडा कैम्पस में वे लंबे समय तक अध्यापक रहे. वहां से 2005 में संडे इंडियन पुन: पत्रकारिता करने चले गये. पांडे जी जहां गये वहीं के होकर रह गये. अतीत का दंश उनके चेहरे पर कभी दिखाई नहीं देता. वे यह कैसे कर पाते हैं उनकी यह खूबी अभी भी पूरी पूरी समझ में आई है या नहीं, कह नहीं सकते लेकिन उनका सफरनामा अब शानदार हो चला है. प्रभाष जोशी ने हिन्दी की जिस राष्ट्रीय पत्रकारिता की नींव डाली थी उस नींव का यह छुट्टा पत्रकार अब संडे इंडियन का कार्यकारी संपादक हो गया है.
पांडे जी जनसत्ता की मिसगाइडेड मिसाइल कभी नहीं रहे, उल्टे उन्हें जनसत्ता के भस्मासुरों ने जब तब जलाने की कोशिश जरूर की लेकिन चतुर सुजान पांडे जी जानते हैं कि पत्रकारिता व्यावहारिकता का भी दूसरा नाम होता है. जीवन की सच्चाइयों से दूर नहीं जाया जा सकता और यह भी नहीं भूला जा सकता और राष्ट्रीय हो चुकी पत्रकारिता के रेड़ पुरुषों के निठल्लेपन को नकारते हुए आखिरकार वह तो करना ही होता है जिसे पत्रकारिता कहते हैं. हो सकता है रज्जो बाबू ने ही राष्ट्रीय पत्रकारिता का बिरवा रोपा हो या यह भी हो सकता है कि प्रभाष जोशी ने एक हाथ में धोती का छोर पकड़े दूसरे हाथ से ''पत्रकारिता की दुनिया को ठीक'' किया हो लेकिन अतीत में उलटे तो नहीं जाया जा सकता? समय तैरकर आगे ही जाता है, पीछे नहीं लौटता. और हमारी तथाकथित हिन्दी की राष्ट्रीय पत्रकारिता में समय आगे चला तो पानी कम, चट्टानों को ज्यादा बहा लाया. आप हिन्दी की राष्ट्रीय पत्रकारिता में डोल आइये, आपको चारों ओर ऐसे ही कंकर पत्थर गिरे पड़े मिलेंगे जो अपने होने का अनुभव तो खो ही चुके हैं, दूसरे की राह का रोड़ा बनने का माद्दा बचाए हुए हैं. दुर्भाग्य से ऐसे रोड़ा पत्रकार पैदा करने में प्रभाष जोशी का ज्यादा योगदान रहा. शायद उन पत्रकारों को प्रभाष जी के बाद प्रभाष जोशी जैसा काबिल नेतृत्व नहीं मिला जो कांकर पाथर जोड़कर मस्जिद बना लेता. कारण कुछ भी हो, हकीकत यही है.
अपने पांडे जी रोड़ा पत्रकार कभी नहीं रहे. वे हमेशा अतीत और भविष्य के बीच की कड़ी नजर आते हैं. दिल्ली के जिस यमुनापार को दूसरी दुनिया कहा जाता है पांडे जी गांव से चलकर उसी यमुनापार पहुंचे थे. लेकिन ज्यादा दिन वहां रुक न सके. आगे बढ़े तो आगे बढ़ गये. आज हमें यह जानकर भले ही थोड़ा आश्चर्य पैदा हो जाए कि कनाट प्लेस उनका प्रेरणास्थल है लेकिन उनकी इस प्रेरणाशक्ति के गर्भ में ही उनके आगे जाने की गहरी इच्छाएं हैं. वे अतीत की ओर नहीं देखते. वे भविष्य की ओर देखते हैं. उनकी यही सोच उन्हें यमुनापार के साढ़े तीन पुश्ते से कनाट प्लेस की चकाचौंध तक ले जाती है. लेकिन उनकी यही सोच पत्रकारिता के लिए एक वरदान लेकर भी आती है. गांव की माटी से शहर की भाटी तक तपते तपाते उन्होंने इतना सीख लिया वर्तमान की भलाई भविष्य को संवारने में है, अतीत को तारने में नहीं है. अतीत कालातीत हो गया. वह राजेन्द्र माथुर हो कि प्रभाष जोशी. उन्होंने पत्रकारिता में जो कुछ किया वह वर्तमान के लिए भले ही उपयोगी रहा हो लेकिन उसने भविष्य संवारने की दिशा में कुछ खास योगदान नहीं दिया. किंचित उन्हें आभास ही न हुआ हो कि वर्मतान का यह स्वर्णकाल बीतेगा तो भविष्य क्या होगा? आखिर के दिनों में प्रभाष जोशी ऐसी बहुत सी सच्चाईयों का जिक्र करते थे जो उन्हें अतीत में करना चाहिए था, लेकिन वे किन्ही कारणों से कर नहीं पाये.
पांडे जी करते दिखते हैं. उस करने में उनकी सबसे बड़ी करनी है भविष्य के साथ तालमेल. गोया छत्तीस अढतीस साल की उम्र में अपने ओहदेदारों के लिए क्या गजब के सक्रिय रहते हैं वे. हिन्दी की हदों को अनहद तक ले जाने के लिए पांडे जी पत्रकारिता को नवप्रयोगों से जोड़ना चाहते हैं. ये नवप्रयोग वे नौजवान करें जो पत्रकारिता में आ रहे हैं. लेकिन जैसा कि हम आपको पहले ही बता आये हैं कि ऐसा सोचते हुए भी पांडे जी व्यावहारिकता का दामन नहीं छोड़ते हैं. अतीत की तल्खी ने जिस तरह से वर्तमान के मुख पर कालिख मल दिया है, पांडे जी अपनी ताकतभर उस कालिख को काटने में लगे रहते हैं. चाहे वह जनसत्ता में रहे, चाहें वे स्टार न्यूज में काम करें या कि संडे इंडियन में. जब वे पत्रकारिता पढ़ा रहे थे तब भी पत्रकारिता ही सिखाते थे और अब जब वे कुद एक प्रतिष्ठान होने की ओर अग्रसर हो गये हैं तब भी न जाने क्यों उन्हें हमेशा याद रहता है कि पाने से ज्यादा देते रहना है. शायद इसी देने की कला में भविष्य की जगमगाहट उभरकर सामने आ पाये जो कि ठीक हमारे से पहलेवाले दौर में दरिद्रता की हद तक गायब था.
अगरे पिछले दौर में दरिद्रता न रही होती तो हमें पूरा विश्वास है कि आज के दौर में हम बेहतर स्थिति में काम कर रहे होते. यह शायद हिन्दी का ही पत्रकार होता है जो काम तो हिन्दी में करता है लेकिन पेट भरने के लिए अंग्रेजी का जूठन चाटता है. भाषा की यह दरिद्रता अनायास या अचानक नहीं है. इस दरिद्रता के मूल में कई तरह की मानसिकताएं हैं जिन्होंने हमें एक अच्छा भविष्य मिलने से रोक दिया. हमारी हिन्दी पत्रकारिता के पितृपुरुषों की करनी की वजह से अगर आज ईमानदारी दरिद्रता का शिकार है तो तय मानिए कि आज की हमारी करनी भविष्य पर असर जरूर डालेगी. अब हमारे सामने दो रास्ते हैं. हम अतीत को गाली देते बैठ जाएं या फिर भविष्य को संवारने में जुट जाएं. इसे हम नौजवान पत्रकारों का दुर्भाग्य ही कहिए कि पत्रकारिता में हमारा कोई बाप नहीं है. जो बाप हो सकते थे, वे बच्चों के निवाले पर डाका डालकर जिन्दगी बसर करते हैं. ऐसे में गाहे बेगाहे जब भी पांडे जी नजर आ जाते हैं तो लगता है कि बाप विहीन हिन्दी पत्रकारिता में वे बड़ी कम उम्र में बाप होने की जिम्मेदारियों का अहसास कर चुके हैं. ठीक वैसे ही जैसे किसी नौजवान बच्चे का बाप मर जाता है तो वह जवानी में ही वे सारी जिम्मेदारियां उठाने लगता है जो उसके बाप को उठानी होती है. बापमुक्त हिन्दी पत्रकारिता में पांडे जी भरी जवानी में ही पितामह नजर आने लगे तो क्या इसमें कुछ गलत है?
Sabhar- Visfot.com

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