आखिर एक बार फिर से सोशल नेटवर्किग पर फैले कुछेक साथियों ने कानून को दरकिनार वह करने का साहस दिखा दिया, जो साहस मुख्यधारा की मीडिया को करना चाहिए था। बात देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और राज्य सभा सांसद अभिषेक मनु सिंघवी के उस कथित सेक्स टेप की, जिसमें उन्हें एक महिला के साथ अतरंग पलों में दिखाया गया है। इस सीडी के प्रसारण पर कोर्ट ने रोक लगाया तो मीडिया खामोश रहा लेकिन फेसबुक, ट्विटर, ब्लॉगर और वैकल्पिक मीडिया के अलावा कुछेक न्यूज वेबसाइट्स पर मनु की पोल पट्टी खुलती गई।
लेकिन इसी के साथ यह बहस भी पैदा हो गई है कि आखिर किसी की व्यक्तिगत जिंदगी को क्यों ऐसे सरेआम उछाला जाए? जबकि कानूनी तौर पर भी किसी बालिग का किसी बालिग के साथ संबंध गलत नहीं है?
Sabhar- Voifot.com
इसका जवाब कुछ यह है कि जब कोई व्यक्ति जिम्मेदार पद पर बैठा हो, जब कोई व्यक्ति देश और समाज को दिशा देने का काम करता हो, यदि ऐसा ही व्यक्ति किसी महिला के साथ भोग-विलास में व्यस्त है, तो यह नैतिक रूप से सरासर गलत है। यह हुई पहली बात। इसी के साथ, सवाल सोशल नेटवर्किग साइट्स और डिजिटल मीडिया पर भी अंगुली उठना लाजिमी है कि आखिर कोर्ट की रोक के बावजूद सेक्स टेप क्यों अपलोड किया गया? क्या यह न्यायपालिका को आंख दिखाने का दुस्साहस है?
जवाब है, जी हां बिल्कुल। न्यायपालिका को जिस तरह से भष्ट्राचार का दीमक पूरी तरह खोखला कर चुका है, यह किसी से छुपा नहीं है। कोर्ट में माननीय जज के सामने अर्दली से लेकर चपरासी तक सरेआम रिश्वत लेते हैं। लेकिन जज साहब की आंखे बंद रहती है। आखिर इस टेप में यही तो दिखाया गया है कि जज बनने के लिए कुछ भी किया जा सकता है। इस सेक्स टेप में सिर्फ अभिषेक मनु सिंघवी नंगे नहीं हो रहे हैं बल्कि उस न्यायपालिका के भी चीरहरण हो रहे हैं जिसकी आंखों पर पहले से ही पट्टी बंधी हुई है।
मीडिया क्यों है खामोश
आखिर यह कैसे हो सकता है कि किसी चैनल के पास मनु की सिंघवी पहुंचती है और फिर बिना इसके प्रसारण के कोर्ट की रोक लग जाती है? चैनल चाहते तो इस सीडी को दिखा सकते थे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। यदि आप राजस्थान की पत्रकारिता से थोड़ा सा भी जुड़े हैं तो इसकी भी सच्चई सामने आ जाएगी। जयपुर में इन दिनों चर्चा है कि यह सीडी एक रीजनल चैनल के पास सबसे पहले पहुंची थी। लेकिन अपने चरित्र के अनुसार इस चैनल ने कातिलाना अंदाज में नेता जी की तिजोरी खाली करनी चाहिए, लेकिन नेता भी ठहरे बड़े वाले वकील तो पहुंच गए कोर्ट। वही हुआ, जो होना था। इसके बाद यह सीडी बाकी चैनलों तक भी पहुंची लेकिन कोर्ट के डंडे के बाद किसी की हिम्मत नहीं हुई कि वो मनु के खिलाफ कुछ भी बोल सकें। खैर, बाद में कचहरी में ही समझौते हुए और सब खामोश हो गये।
भस्मासुर बनती सोशल नेटवर्किग साइट्स
अब जरा बात सोशल नेटवर्किग साइट्स और डिजिटल मीडिया की भी कर ली जाए। जैसा कि खुद अभिषेक मनु सिंघवी कह रहे हैं करीब करीब वही धारणा हर किसी की है कि सोशल मीडिया या फिर नया मीडिया बेलगाम है। यह ऐसा घोड़ा है जो कभी भी कहीं भी दौड़ लगा सकता है। जो लोग मीडिया में रेगुलेशन की बात करते हैं उन्होंने इस रेगुलेशन के दायरे में सोशल मीडिया को भी लपेट लिया है. लेकिन क्या यह संभव है?
जवाब है, जी हां बिल्कुल। न्यायपालिका को जिस तरह से भष्ट्राचार का दीमक पूरी तरह खोखला कर चुका है, यह किसी से छुपा नहीं है। कोर्ट में माननीय जज के सामने अर्दली से लेकर चपरासी तक सरेआम रिश्वत लेते हैं। लेकिन जज साहब की आंखे बंद रहती है। आखिर इस टेप में यही तो दिखाया गया है कि जज बनने के लिए कुछ भी किया जा सकता है। इस सेक्स टेप में सिर्फ अभिषेक मनु सिंघवी नंगे नहीं हो रहे हैं बल्कि उस न्यायपालिका के भी चीरहरण हो रहे हैं जिसकी आंखों पर पहले से ही पट्टी बंधी हुई है।
मीडिया क्यों है खामोश
आखिर यह कैसे हो सकता है कि किसी चैनल के पास मनु की सिंघवी पहुंचती है और फिर बिना इसके प्रसारण के कोर्ट की रोक लग जाती है? चैनल चाहते तो इस सीडी को दिखा सकते थे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। यदि आप राजस्थान की पत्रकारिता से थोड़ा सा भी जुड़े हैं तो इसकी भी सच्चई सामने आ जाएगी। जयपुर में इन दिनों चर्चा है कि यह सीडी एक रीजनल चैनल के पास सबसे पहले पहुंची थी। लेकिन अपने चरित्र के अनुसार इस चैनल ने कातिलाना अंदाज में नेता जी की तिजोरी खाली करनी चाहिए, लेकिन नेता भी ठहरे बड़े वाले वकील तो पहुंच गए कोर्ट। वही हुआ, जो होना था। इसके बाद यह सीडी बाकी चैनलों तक भी पहुंची लेकिन कोर्ट के डंडे के बाद किसी की हिम्मत नहीं हुई कि वो मनु के खिलाफ कुछ भी बोल सकें। खैर, बाद में कचहरी में ही समझौते हुए और सब खामोश हो गये।
भस्मासुर बनती सोशल नेटवर्किग साइट्स
अब जरा बात सोशल नेटवर्किग साइट्स और डिजिटल मीडिया की भी कर ली जाए। जैसा कि खुद अभिषेक मनु सिंघवी कह रहे हैं करीब करीब वही धारणा हर किसी की है कि सोशल मीडिया या फिर नया मीडिया बेलगाम है। यह ऐसा घोड़ा है जो कभी भी कहीं भी दौड़ लगा सकता है। जो लोग मीडिया में रेगुलेशन की बात करते हैं उन्होंने इस रेगुलेशन के दायरे में सोशल मीडिया को भी लपेट लिया है. लेकिन क्या यह संभव है?
सिंघवी की सीडी के उदाहरण के जरिए इसे हम बखूबी समझ सकते हैं। मनु अपनी निजता की दुहाई देते हुए नये मीडिया को ताना मार रहे हैं कि कोई गैंग है जो उनकी इज्जत को तार तार करने पर आमादा है। हो सकता है ऐसा हो भी लेकिन क्या अभिषेक मनु सिंघवी चाहकर भी वह रोक पाये जिसे उन्होंने अपने बंद चैम्बर में किया था? एक जगह से विडीयो डिलिट हुआ तो दूसरी जगह आ गया. दूसरी जगह से डिलिट हुआ तो तीसरी जगह. सोशल नेटवर्किंग साइट ऐसे लोगों के लिए भस्मासुर बनती जा रही हैं जो गलत को दबाने की मुहिम पर लगे रहते हैं।
मीडिया के बस की बात नहीं है सेल्फ रेग्युलेशन
कई सालों से मीडिया में सेल्फ रेग्युलेशन को लेकर बहस चल रही है। अधिकांश संपादकों का मानना है कि मीडिया को खुद पर खुद ही नियंत्रण करना चाहिए। यह अधिकार सरकार को नहीं सौंपना चाहिए। इसके पीछे तर्क यह है कि यदि सरकार के पास मीडिया को नियंत्रण करने का चाबुक आ गया तो वह उन खबरों को रूकवाने लगेगी, जो उसके लिए अहितकारी है। लेकिन क्या अभी ऐसा नहीं होता है? यह संपादकों और मालिकों को अपने दिल पर हाथ रखकर पूछना चाहिए। खैर हम इस बहस से थोड़ा आगे बढ़ते हैं। क्या अब तक किसी मीडिया संस्थान खुद पर नियंत्रण रखा है? जवाब ना में ही मिलेग।
मीडिया के बस की बात नहीं है सेल्फ रेग्युलेशन
कई सालों से मीडिया में सेल्फ रेग्युलेशन को लेकर बहस चल रही है। अधिकांश संपादकों का मानना है कि मीडिया को खुद पर खुद ही नियंत्रण करना चाहिए। यह अधिकार सरकार को नहीं सौंपना चाहिए। इसके पीछे तर्क यह है कि यदि सरकार के पास मीडिया को नियंत्रण करने का चाबुक आ गया तो वह उन खबरों को रूकवाने लगेगी, जो उसके लिए अहितकारी है। लेकिन क्या अभी ऐसा नहीं होता है? यह संपादकों और मालिकों को अपने दिल पर हाथ रखकर पूछना चाहिए। खैर हम इस बहस से थोड़ा आगे बढ़ते हैं। क्या अब तक किसी मीडिया संस्थान खुद पर नियंत्रण रखा है? जवाब ना में ही मिलेग।
कुछेक मामले जरूर अपवाद हो सकते हैं। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है खुद पर सेल्फ रेग्युलेशन सबसे कठिन काम है। वह भी ऐसे दौर में, जहां सबकुछ बाजार तय करता है। बाजार में मुनाफे की अंधी दौड़, टीआरपी और अधिक से अधिक विज्ञापन के लालच में मीडिया ने हर बार अपनी हदे लांघी है। तो क्यों नहीं, एक ऐसी संस्था खड़ी होनी चाहिए, मीडिया पर निगरानी और नियंत्रण का काम कर सके। इसमें अखबारों, इलेक्ट्रानिक मीडिया, सोशल नेटवर्किग साइट्स, डिजिटल मीडिया को शामिल किया जाए। सरकार को इस बात का ध्यान रखना होगा कि इस संस्था में किसी भी प्रकार कोई भी नियंत्रण नहीं होगा। इस संस्था में न कोई नेता हो और न कोई अफसर।
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