
लाइव करते आशुतोष
पिछले दिनों DNA अखबार की एक खबर ने हंगामा मचा दिया। सेना की खस्ता हालत का कच्चा चिट्ठा खोलने वाली रिपोर्ट के छपते ही कुछ सांसदों ने सेना प्रमुख को बर्खास्त करने और पत्रकार के खिलाफ कार्रवाई की मांग की। तर्क था कि गोपनीय दस्तावेज के आम होने से राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा पैदा हो गया है। हालांकि अखबार में कुछ भी नया नहीं था। डिफेंस की किसी भी पत्रिका में साऱी जानकारी आसानी से उपलब्ध है।
ज्यादा हैरान करने वाली बात ये है कि दिसंबर महीने में ही कैग ने अपनी रिपोर्ट में सेना की खस्ता हालत का वही ब्यौरा दिया था। यानी सारी जानकारी पहले से ही सार्वजनिक है और तकनीकी तौर पर सांसदों को पता भी है। ऐसे में सवाल उठता है कि इन सांसदों ने तब हल्ला क्यों नहीं मचाया और अखबार में खबर छपने के बाद सेना प्रमुख की बर्खास्तगी और पत्रकार के खिलाफ कार्रवाई की बात क्यों की गई? क्या इसके पीछे कोई खेल है या फिर राष्ट्रीय सुरक्षा का मसला उठाकर प्रेस की आजादी पर अंकुश लगाने का षड्यंत्र?
ये सच है कि पिछले दो सालों से सरकार प्रेस की वजह से लगातार संकटों में घिरी और उसकी साख को जबर्दस्त बट्टा लगा है। सरकार खासतौर पर टीवी चैनलों से खार खाये बैठी है। किसी न किसी बहाने वो उस पर अंकुश लगाने की फिराक में है। सुप्रीम कोर्ट में इन दिनों अदालती कार्रवाई को कवर करने के लिये गाइडलाइन बनाने को लेकर भी बहस जारी है। फाली एस नरीमन, सोली सोराबजी, राजीव धवन और राम जेठमलानी जैसे दिग्गज मीडिया की आजादी की सुरक्षा के लिये तर्क पर तर्क दे रहे हैं। सवाल किसी एक पत्रकार के खिलाफ कार्रवाई का नहीं है बल्कि लोकतंत्र में प्रेस की आजादी का है। एक संस्था के तौर पर संसद, सरकार और न्यायपालिका की गरिमा और उसकी आजादी का सवाल होता है। लोकतंत्र में तीनों अंगों की अलग-अलग भूमिकाएं हैं और किसी एक को दूसरे की स्वायत्तता पर टेढी़ नजर डालने का हक नहीं है। उसी तरह से प्रेस को भी लोकतंत्र का चौथा खंभा माना जाता है। उसकी आजादी कई मायने में बाकी तीनों संस्थाओं की आजादी से ज्यादा महत्वपूर्ण है। संसद, सरकार और न्यायपालिका के पास दंडकारी अधिकार हैं, वो अपने अधिकारों की रक्षा के लिए उसका इस्तेमाल कर सकते हैं। सेना, पुलिस, जेल उनकी मदद के लिए हमेशा उपलब्ध रहते हैं। लेकिन प्रेस के पास ऐसी कोई सुविधा नहीं है। वो सिर्फ लिख सकता है और फिर दिखा सकता है, वो अपनी बात को मनवाने के लिए किसी को बाध्य नहीं कर सकता। इन तीनों दंडकारी संस्थाओं के अलग-अलग या फिर आपसी सहमति से जैसा कि इमरजेंसी के दौरान देखने में आया था, बेलगाम होने का खतरा रहता है और ये सस्थाय़ें बेलगाम न हों, उनपर हमेशा नजर ऱखने के लिये ही प्रेस की जरूरत होती है।
लोकतंत्र में सरकारों के तानाशाह होने से बचाने और लोकतंत्र में प्रेस के महत्व को समझने के लिये ही अमेरिकी राष्ट्रपति टॉमस जेफरसन का साफ कहना था कि अगर उन्हें 'प्रेस-बिना-सरकार' और 'सरकार-बिना-प्रेस' में से किसी एक को चुनना हो तो वो 'प्रेस-बिना-सरकार' को चुनना पसंद करेंगे। अमेरिका में प्रेस की आजादी को कितना महत्व दिया गया है इसका अंदाज इसी बात से लगता है कि सन 1789 में अमेरिका आजाद हुआ और सन 1791 में ही यानी दो साल के अंदर है 'फर्स्ट-अमेंडमेंट' के नाम से ये कानून बना दिया गया कि संसद कभी भी प्रेस की आजादी पर अंकुश लगाने का कानून नहीं बना सकती। जिसको बदलने का साहस आज भी अमेरिका में किसी को नहीं हुआ। सेना प्रमुख की चिट्ठी की तरह ही अमेरिका में वियतनाम युद्ध में अमेरिकी सरकार की खामियों को उजागर करने वाले 'पेंटागन-पेपर्स' को जब न्यूयॉर्क टाइम्स ने सन 1971 में छापना शुरू किया तो अमेरिकी सरकार ने उसके छापने पर प्रतिबंध लगाने की भरपूर कोशिश की और रिपोर्टर और अखबार के खिलाफ कार्रवाई की मांग निक्सन प्रशासन की तरफ से उठी। मामला सुप्रीम कोर्ट जा पहुंचा। नौ जजों की बेंच ने 6-3 के बहुमत से फैसला अखबार के पक्ष में सुनाया।
दरअसल वियतनाम युद्ध में अमेरिकी सरकारों की नीतियों और प्रशासन की भूमिका की जांच के लिये लिंडन जॉनसन के रक्षा मंत्री रॉबर्ट मैकनमारा ने बिना राष्ट्रपति को बताये अध्ययन के आदेश दिए थे। कई सालों की मेहनत के बाद 7000 पेज की रिपोर्ट बनी जिसमें खुलासा किया गया कि हैरी ट्रूमैन के जमाने से हर अमेरिकी प्रशासन ने झूठ और धोखे का सहारा लिया और जनता को गुमराह किया। प्रेस के पक्ष में फैसला सुनाने वालों में एक जज जस्टिस ब्लैक ने अपने फैसले में लिखा, 'सिर्फ आजाद और अनियंत्रित प्रेस ही सरकार के धोखे को कारगर तरीके से 'एक्सपोज' कर सकती है। प्रेस की जिम्मेदारियों में सबसे महत्वपूर्ण है कि वो सरकार या फिर सरकार के किसी भी अंग को जनता को गुमराह करने से रोके।' जस्टिस स्टीवर्ट की टिप्पणी तो और भी अहम है। उनका कहना था, 'ये सरकार की जिम्मेदारी है कि वो राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मामलों की सुरक्षा अपने स्तर पर करे। खबर पर बैन लगा उसको सुरक्षित करने का काम अदालतों का नहीं है।' यानी सरकार की जिम्मेदारी है कि किसी गोपनीय दस्तावेज को लीक न होने दे लेकिन अगर लीक हो जाये तो अदालतें उसको छपने से रोक नहीं सकतीं।अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने यहां तक कहा था कि अखबार को तब भी जंग के बारे में गोपनीय जानकारियों को छापने का अधिकार है जब देश वाकई जंग लड़ रहा हो। उनके मुताबिक, 'लोकतंत्र में जंग सिर्फ युद्ध भूमि में ही नहीं लड़ी जाती, जनता के बीच भी लड़ी जाती है। जनता को ये जानने का अधिकार है कि आखिर जंग में हो क्या रहा है ताकि वो अपनी राय बना सके और अगर इस बात का अधिकार जनता को नहीं होगा तो राजनेता और सैन्य अधिकारी देश को गुमराह करने से नहीं चूकेंगे।' वियतनाम युद्ध में और बाद में इराक युद्ध में अमेरिकी प्रशासन ने यही किया। इराक युद्ध के बारे में ये खुलासा भी हुआ था कि जानबूझकर ये बात फैलाई गयी थी कि इराक खतरनाक न्यूक्लियर हथियारों का निर्माण कर रहा है और उसे रोकने के लिये अमेरिका को इराक पर युद्ध छेड़ना ही पड़ेगा। बाद में सीआईए प्रमुख ने ये कबूला भी था कि पूरी कहानी गढ़ी गयी थी। झूठ बोला गया था। जोसफ सी विल्सन जैसे राजनयिक ने युद्ध के पहले इस झूठ को सार्वजनिक किया था। जोसफ विल्सन को अमेरिकी प्रशासन ने ही मध्य पूर्व एशिया भेजा था ये जानने के लिये कि क्या इराक न्यूक्लियर हथियारों को बनाने में जुटा है या नहीं? उसने लौटकर अपनी रिपोर्ट सौंपी और कहा कि ऐसा नहीं है। ये बात उसने न्यूयॉर्क टाइम्स में अपने कॉलम में भी लिख दी। उस पर दबाव डाला गया कि वो अपनी बात का खंडन करे। जब उसने नहीं किया तो उसकी पत्नी जो सीआईए की अंडरकवर एजेंट थी, की पहचान सार्वजनिक कर दी गई। इस वजह से दोनों का जीवन नरक हो गया। दूसरे तरीके से भी दोनों को प्रताड़ित किया गया। यानी पेंटागन पेपर्स के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने जो कहा था कि राजनेता और सैन्य अधिकारी लोगों को गुमराह कर सकते हैं वो बात इराक युद्ध में सच साबित हुई। साफ है कि सरकारों पर अंकुश लगाने के लिये, उन्हें देश को गुमराह करने से रोकने के लिये प्रेस की आजादी जरूरी है। अमेरिका में प्रेस ने ही बताया कि किस तरह से वियतनाम युद्ध और बाद में इराक युद्ध में अमेरिकी प्रशासन ने देश को धोखा दिया और असली तस्वीर छिपाई। ऐसे में इस बात की क्या गारंटी है कि जो लोग आज देशप्रेम के नाम पर भावनाओं का ज्वार उठाकर प्रेस की आजादी पर अंकुश लगाना चाहते हैं उन लोगों ने सन 1962 में और करगिल की लड़ाई में देश से झूठ नहीं बोला, जनता को गुमराह नहीं किया क्योंकि इन दोनों युद्धों की सचाई आज भी फाइलों में दबी है। पूरा सच सामने नहीं आया। ( लेखक हिंदी समाचार चैनल आईबीएन-7 के मैनेजिंग एडिटर हैं. यह लेख उनके ब्लॉग "ब्रेक के बाद" से साभार लिया गया है. )
ये सच है कि पिछले दो सालों से सरकार प्रेस की वजह से लगातार संकटों में घिरी और उसकी साख को जबर्दस्त बट्टा लगा है। सरकार खासतौर पर टीवी चैनलों से खार खाये बैठी है। किसी न किसी बहाने वो उस पर अंकुश लगाने की फिराक में है। सुप्रीम कोर्ट में इन दिनों अदालती कार्रवाई को कवर करने के लिये गाइडलाइन बनाने को लेकर भी बहस जारी है। फाली एस नरीमन, सोली सोराबजी, राजीव धवन और राम जेठमलानी जैसे दिग्गज मीडिया की आजादी की सुरक्षा के लिये तर्क पर तर्क दे रहे हैं। सवाल किसी एक पत्रकार के खिलाफ कार्रवाई का नहीं है बल्कि लोकतंत्र में प्रेस की आजादी का है। एक संस्था के तौर पर संसद, सरकार और न्यायपालिका की गरिमा और उसकी आजादी का सवाल होता है। लोकतंत्र में तीनों अंगों की अलग-अलग भूमिकाएं हैं और किसी एक को दूसरे की स्वायत्तता पर टेढी़ नजर डालने का हक नहीं है। उसी तरह से प्रेस को भी लोकतंत्र का चौथा खंभा माना जाता है। उसकी आजादी कई मायने में बाकी तीनों संस्थाओं की आजादी से ज्यादा महत्वपूर्ण है। संसद, सरकार और न्यायपालिका के पास दंडकारी अधिकार हैं, वो अपने अधिकारों की रक्षा के लिए उसका इस्तेमाल कर सकते हैं। सेना, पुलिस, जेल उनकी मदद के लिए हमेशा उपलब्ध रहते हैं। लेकिन प्रेस के पास ऐसी कोई सुविधा नहीं है। वो सिर्फ लिख सकता है और फिर दिखा सकता है, वो अपनी बात को मनवाने के लिए किसी को बाध्य नहीं कर सकता। इन तीनों दंडकारी संस्थाओं के अलग-अलग या फिर आपसी सहमति से जैसा कि इमरजेंसी के दौरान देखने में आया था, बेलगाम होने का खतरा रहता है और ये सस्थाय़ें बेलगाम न हों, उनपर हमेशा नजर ऱखने के लिये ही प्रेस की जरूरत होती है।
लोकतंत्र में सरकारों के तानाशाह होने से बचाने और लोकतंत्र में प्रेस के महत्व को समझने के लिये ही अमेरिकी राष्ट्रपति टॉमस जेफरसन का साफ कहना था कि अगर उन्हें 'प्रेस-बिना-सरकार' और 'सरकार-बिना-प्रेस' में से किसी एक को चुनना हो तो वो 'प्रेस-बिना-सरकार' को चुनना पसंद करेंगे। अमेरिका में प्रेस की आजादी को कितना महत्व दिया गया है इसका अंदाज इसी बात से लगता है कि सन 1789 में अमेरिका आजाद हुआ और सन 1791 में ही यानी दो साल के अंदर है 'फर्स्ट-अमेंडमेंट' के नाम से ये कानून बना दिया गया कि संसद कभी भी प्रेस की आजादी पर अंकुश लगाने का कानून नहीं बना सकती। जिसको बदलने का साहस आज भी अमेरिका में किसी को नहीं हुआ। सेना प्रमुख की चिट्ठी की तरह ही अमेरिका में वियतनाम युद्ध में अमेरिकी सरकार की खामियों को उजागर करने वाले 'पेंटागन-पेपर्स' को जब न्यूयॉर्क टाइम्स ने सन 1971 में छापना शुरू किया तो अमेरिकी सरकार ने उसके छापने पर प्रतिबंध लगाने की भरपूर कोशिश की और रिपोर्टर और अखबार के खिलाफ कार्रवाई की मांग निक्सन प्रशासन की तरफ से उठी। मामला सुप्रीम कोर्ट जा पहुंचा। नौ जजों की बेंच ने 6-3 के बहुमत से फैसला अखबार के पक्ष में सुनाया।
दरअसल वियतनाम युद्ध में अमेरिकी सरकारों की नीतियों और प्रशासन की भूमिका की जांच के लिये लिंडन जॉनसन के रक्षा मंत्री रॉबर्ट मैकनमारा ने बिना राष्ट्रपति को बताये अध्ययन के आदेश दिए थे। कई सालों की मेहनत के बाद 7000 पेज की रिपोर्ट बनी जिसमें खुलासा किया गया कि हैरी ट्रूमैन के जमाने से हर अमेरिकी प्रशासन ने झूठ और धोखे का सहारा लिया और जनता को गुमराह किया। प्रेस के पक्ष में फैसला सुनाने वालों में एक जज जस्टिस ब्लैक ने अपने फैसले में लिखा, 'सिर्फ आजाद और अनियंत्रित प्रेस ही सरकार के धोखे को कारगर तरीके से 'एक्सपोज' कर सकती है। प्रेस की जिम्मेदारियों में सबसे महत्वपूर्ण है कि वो सरकार या फिर सरकार के किसी भी अंग को जनता को गुमराह करने से रोके।' जस्टिस स्टीवर्ट की टिप्पणी तो और भी अहम है। उनका कहना था, 'ये सरकार की जिम्मेदारी है कि वो राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मामलों की सुरक्षा अपने स्तर पर करे। खबर पर बैन लगा उसको सुरक्षित करने का काम अदालतों का नहीं है।' यानी सरकार की जिम्मेदारी है कि किसी गोपनीय दस्तावेज को लीक न होने दे लेकिन अगर लीक हो जाये तो अदालतें उसको छपने से रोक नहीं सकतीं।अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने यहां तक कहा था कि अखबार को तब भी जंग के बारे में गोपनीय जानकारियों को छापने का अधिकार है जब देश वाकई जंग लड़ रहा हो। उनके मुताबिक, 'लोकतंत्र में जंग सिर्फ युद्ध भूमि में ही नहीं लड़ी जाती, जनता के बीच भी लड़ी जाती है। जनता को ये जानने का अधिकार है कि आखिर जंग में हो क्या रहा है ताकि वो अपनी राय बना सके और अगर इस बात का अधिकार जनता को नहीं होगा तो राजनेता और सैन्य अधिकारी देश को गुमराह करने से नहीं चूकेंगे।' वियतनाम युद्ध में और बाद में इराक युद्ध में अमेरिकी प्रशासन ने यही किया। इराक युद्ध के बारे में ये खुलासा भी हुआ था कि जानबूझकर ये बात फैलाई गयी थी कि इराक खतरनाक न्यूक्लियर हथियारों का निर्माण कर रहा है और उसे रोकने के लिये अमेरिका को इराक पर युद्ध छेड़ना ही पड़ेगा। बाद में सीआईए प्रमुख ने ये कबूला भी था कि पूरी कहानी गढ़ी गयी थी। झूठ बोला गया था। जोसफ सी विल्सन जैसे राजनयिक ने युद्ध के पहले इस झूठ को सार्वजनिक किया था। जोसफ विल्सन को अमेरिकी प्रशासन ने ही मध्य पूर्व एशिया भेजा था ये जानने के लिये कि क्या इराक न्यूक्लियर हथियारों को बनाने में जुटा है या नहीं? उसने लौटकर अपनी रिपोर्ट सौंपी और कहा कि ऐसा नहीं है। ये बात उसने न्यूयॉर्क टाइम्स में अपने कॉलम में भी लिख दी। उस पर दबाव डाला गया कि वो अपनी बात का खंडन करे। जब उसने नहीं किया तो उसकी पत्नी जो सीआईए की अंडरकवर एजेंट थी, की पहचान सार्वजनिक कर दी गई। इस वजह से दोनों का जीवन नरक हो गया। दूसरे तरीके से भी दोनों को प्रताड़ित किया गया। यानी पेंटागन पेपर्स के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने जो कहा था कि राजनेता और सैन्य अधिकारी लोगों को गुमराह कर सकते हैं वो बात इराक युद्ध में सच साबित हुई। साफ है कि सरकारों पर अंकुश लगाने के लिये, उन्हें देश को गुमराह करने से रोकने के लिये प्रेस की आजादी जरूरी है। अमेरिका में प्रेस ने ही बताया कि किस तरह से वियतनाम युद्ध और बाद में इराक युद्ध में अमेरिकी प्रशासन ने देश को धोखा दिया और असली तस्वीर छिपाई। ऐसे में इस बात की क्या गारंटी है कि जो लोग आज देशप्रेम के नाम पर भावनाओं का ज्वार उठाकर प्रेस की आजादी पर अंकुश लगाना चाहते हैं उन लोगों ने सन 1962 में और करगिल की लड़ाई में देश से झूठ नहीं बोला, जनता को गुमराह नहीं किया क्योंकि इन दोनों युद्धों की सचाई आज भी फाइलों में दबी है। पूरा सच सामने नहीं आया। ( लेखक हिंदी समाचार चैनल आईबीएन-7 के मैनेजिंग एडिटर हैं. यह लेख उनके ब्लॉग "ब्रेक के बाद" से साभार लिया गया है. )

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