श्रमजीवी पत्रकारों के वेतनमान को लेकर केंद्र सरकार की तरफ से बनाए गए वेज बोर्ड की दिल्ली में मंगलवार को हुई बैठक में जनसत्ता के पत्रकार अंबरीश कुमार ने देश भर के पत्रकारों की सामाजिक आर्थिक सुरक्षा का सवाल उठाया और बोर्ड ने इस सिलसिले ठोस कदम उठाने का संकेत भी दिया है. बैठक में जो कहा गया उसके अंश -
देश के विभिन्न हिस्सों में अभिव्यक्ति की आजादी के लिए लड़ने वाले पत्रकारों का जीवन संकट में है. चाहे कश्मीर हो या फिर उत्तर पूर्व या फिर देश का सबसे बड़ा सूबा उत्तर प्रदेश सभी जगह पत्रकारों पर हमले बढ़ रहे हैं. उत्तर प्रदेश में पिछले कुछ समय में आधा दर्जन पत्रकार मारे जा चुके है. इनमें ज्यादातर जिलों के पत्रकार है. ख़ास बात यह है कि पचास कोस पर संस्करण बदल देने वाले बड़े अख़बारों के इन संवादाताओं पर हमले की खबरें इनके अखबार में ही नही छप पाती. अपवाद एकाध अखबार है. इलाहाबाद में इंडियन एक्सप्रेस के हमारे सहयोगी विजय प्रताप सिंह पर माफिया गिरोह के लोगों ने बम से हमला किया. उनकी जान नहीं बचाई जा सकी, हालाँकि एक्सप्रेस प्रबंधन ने एयर एम्बुलेंस की व्यवस्था की पर सरकार को चिंता सिर्फ अपने घायल मंत्री की थी.
कुशीनगर में एक पत्रकार की हत्या कर उसका शव फिकवा दिया गया. गोंडा में पुलिस एक पत्रकार को मारने की फिराक में है. लखीमपुर में समीउद्दीन नीलू को पहले फर्जी मुठभेड़ में मारने की कोशिश हुई और बाद में तस्करी में फंसा दिया गया. लखनऊ में सहारा के एक पत्रकार को मायावती के मंत्री ने धमकाया और फिर मुकदमा करवा दिया. यह बानगी है उत्तर प्रदेश में पत्रकारों पर मंडरा रहे संकट की. पत्रकार ही ऐसा प्राणी है जिसका कोई वेतनमान नहीं, सामाजिक आर्थिक सुरक्षा नही और न ही जीवन की अंतिम बेला में जीने के लिए कोई पेंशन.असंगठित पत्रकारों की हालत और खराब है. जिलों के पत्रकार मुफलिसी में किसी तरह अपना और परिवार का पेट पाल रहे हैं. दूसरी तरफ अख़बारों और चैनलों का मुनाफा लगातार बढ़ रहा है.
इंडियन एक्सप्रेस समूह के दिल्ली संस्करण में छह सौ पत्रकार गैर पत्रकार कर्मचारियों में दो सौ वेज बोर्ड के दायरे में है, जो महीने के अंत में उधार लेने पर मजबूर हो जाते है. दूसरी तरफ बाकी चार सौ में तीन सौ का वेतन एक लाख रुपए महिना है. हर अखबार में दो वर्ग बन गए है. देश भर में मीडिया उद्योग ऐसा है जहाँ किसी श्रमजीवी पत्रकार के रिटायर होने के बाद उसका परिवार संकट में आ जाता है. आजादी के बाद अख़बारों में काम करने वाले पत्रकारों की दूसरी पीढी अब रिटायर होती जा रही है. पत्रकार के रिटायर होने की उम्र ज्यादातर मीडिया प्रतिष्ठानों में ५८ साल है. जबकि वह बौद्धिक रूप से ७० -७५ साल तक सक्रिय रहता है. जबकि शिक्षकों के रिटायर होने की उम्र ६५ साल तक है. इसी तरह नौकरशाह यानी प्रशासनिक सेवा के ज्यादातर अफसर ६० से ६५ साल तक कमोवेश पूरा वेतन लेते है. इस तरह एक पत्रकार इन लोगों के मुकाबले सात साल पहले ही वेतन भत्तों की सुविधा से वंचित हो जाता है. और जो वेतन मिलता था उसके मुकाबले पेंशन अखबार भत्ते के बराबर मिलती है.
इंडियन एक्सप्रेस समूह में करीब दो दशक काम करने वाले एक संपादक जो २००५ में रिटायर हुए उनको आज १०४८ रुपए पेंशन मिलती है और वह भी कुछ समय से बंद है क्योकि वे यह लिखकर नहीं दे पाए कि - मैं अभी जिंदा हूँ. जब रिटायर हुए तो करीब चालीस हजार का वेतन था. यह एक उदाहरण है कि एक संपादक स्तर के पत्रकार को कितना पेंशन मिल रहा है. हजार रुपए में कोई पत्रकार रिटायर होने के बाद किस तरह अपना जीवन गुजारेगा. यह भी उसे मिलता है जो वेज बोर्ड के दायरे में है. उत्तर प्रदेश का एक उदाहरण और देना चाहता हूँ, जहां ज्यादातर अखबार या तो वेज बोर्ड के दायरे से बाहर है या फिर आंकड़ों की बाजीगरी कर अपनी श्रेणी नीचे कर लेते है, जिससे पत्रकारों का वेतन कम हो जाता है. जब वेतन कम होगा तो पेंशन का अंदाजा लगाया जा सकता है. जबकि इस उम्र में सभी का दवाओं का खर्च बढ़ जाता है. अगर बच्चों की शिक्षा पूरी नही हुई तो और समस्या.
छत्तीसगढ़ से लेकर उत्तर प्रदेश तक बड़े ब्रांड वाले अखबार तक आठ हजार से दस हजार रुपए में रिपोर्टर और उप संपादक रख रहे है. लेकिन रजिस्टर पर न तो नाम होता है और न कोई पत्र मिलता है. जबकि ज्यादातर उद्योगों में डाक्टर, इंजीनियर से लेकर प्रबंधकों का तय वेतनमान होता है. सिर्फ पत्रकार है जिसका राष्ट्रीय स्तर पर कोई वेतनमान तय नही. हर प्रदेश में अलग अलग. एक अखबार कुछ दे रहा है तो दूसरा कुछ. दूसरी तरफ रिटायर होने की उम्र तय है और पेंशन इतनी की बिजली का बिल भी जमा नही कर पाए. गंभीर बीमारी के चलते गोरखपुर के एक पत्रकार का खेत-घर बिक गया, फिर भी वह नहीं बचा, अब उसका परिवार दर दर की ठोकरे खा रहा है.
कुछ ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए ताकि रिटायर होने के बाद जिंदा रहने तक उसका गुजारा हो सके और बीमारी होने पर चंदा न करना पड़े. बेहतर हो वेज बोर्ड पत्रकारों की सामाजिक, आर्थिक सुरक्षा की तरफ ध्यान देते हुए ऐसे प्रावधान करे जिससे जीवन की अंतिम बेला में पत्रकार सम्मान से जी सके. पत्रकारों को मीडिया प्रतिष्ठानों में प्रबंधकों के मुकाबले काफी कम वेतन दिया जाता है. अगर किसी अखबार में यूनिट हेड एक लाख रुपए पाता है तो वहां पत्रकार का अधिकतम वेतन बीस पच्चीस हजार होगा. जबकि ज्यादातर रिपोर्टर आठ से दस हजार वाले मिलेगे. देश के कई बड़े अखबार तक प्रदेशों से निकलने वाले संस्करण में पांच-दस हजार पर आज भी पत्रकारों को रख रहे है.
मीडिया प्रतिष्ठानों के लिए वेतन की एकरूपता और संतुलन अनिवार्य हो खासकर जो अखबार संस्थान सरकार से करोड़ों का विज्ञापन लेतें है. ऐसे अख़बारों में वेज बोर्ड की सिफारिश सख्ती से लागू कराई जानी चाहिए. एक नई समस्या पत्रकारों के सामने पेड़ न्यूज़ के रूप में आ गई है. अखबार मालिक ख़बरों का धंधा कर पत्रकारिता को नष्ट करने पर आमादा है. जो पत्रकार इसका विरोध करे उसे नौकरी से बाहर किया जा सकता है. ऐसे में पेड़ न्यूज़ पर पूरी तरह अंकुश लगाने की जरुरत है. वर्ना खबर की कवरेज के लिए रखा गया पत्रकार मार्केटिंग मैनेजर बन कर रह जाएगा. और एक बार जो साख ख़तम हुई तो उसे आगे नौकरी तक नही मिल पाएगी.
इस सिलसिले में निम्न बिन्दुओं पर विचार किया जाए.
१-शिक्षकों और जजों की तर्ज पर ही पत्रकारों की रिटायर होने की उम्र सीमा बढाई जाए।२ सभी मीडिया प्रतिष्ठान इसे लागू करें, यह सुनिश्चित किया जाए .३- जो अखबार इसे लागू न करे उनके सरकारी विज्ञापन रोक दिए जाए .४ सरकार सभी पत्रकारों के लिए एक वेतनमान तय करे जो प्रसार संख्या की बाजीगरी से प्रभावित न हो.५ पेंशन निर्धारण की व्यवस्था बदली जाए.६-पेंशन के दायरे में सभी पत्रकार लाए जाए, जो चाहे वेज बोर्ड के दायरे में हो या फिर अनुबंध पर.७ न्यूनतम पेंशन आठ हजार हो.७ पेंशन के दायरे में अखबारों में काम करने वाले जिलों के संवाददाता भी लाए जाए.८- पत्रकारों और उनके परिवार के लिए अलग स्वास्थ्य बीमा और सुविधा का प्रावधान हो.९-जिस तरह दिल्ली में मान्यता प्राप्त पत्रकारों को स्वास्थ्य सुविधा मिली है, वैसी सुविधा सभी प्रदेशों के पत्रकारों को मिले.१० -किसी भी हादसे में मारे जाने वाले पत्रकार की मदद के लिए केंद्र सरकार विशेष कोष बनाए.
देश के विभिन्न हिस्सों में अभिव्यक्ति की आजादी के लिए लड़ने वाले पत्रकारों का जीवन संकट में है. चाहे कश्मीर हो या फिर उत्तर पूर्व या फिर देश का सबसे बड़ा सूबा उत्तर प्रदेश सभी जगह पत्रकारों पर हमले बढ़ रहे हैं. उत्तर प्रदेश में पिछले कुछ समय में आधा दर्जन पत्रकार मारे जा चुके है. इनमें ज्यादातर जिलों के पत्रकार है. ख़ास बात यह है कि पचास कोस पर संस्करण बदल देने वाले बड़े अख़बारों के इन संवादाताओं पर हमले की खबरें इनके अखबार में ही नही छप पाती. अपवाद एकाध अखबार है. इलाहाबाद में इंडियन एक्सप्रेस के हमारे सहयोगी विजय प्रताप सिंह पर माफिया गिरोह के लोगों ने बम से हमला किया. उनकी जान नहीं बचाई जा सकी, हालाँकि एक्सप्रेस प्रबंधन ने एयर एम्बुलेंस की व्यवस्था की पर सरकार को चिंता सिर्फ अपने घायल मंत्री की थी.
कुशीनगर में एक पत्रकार की हत्या कर उसका शव फिकवा दिया गया. गोंडा में पुलिस एक पत्रकार को मारने की फिराक में है. लखीमपुर में समीउद्दीन नीलू को पहले फर्जी मुठभेड़ में मारने की कोशिश हुई और बाद में तस्करी में फंसा दिया गया. लखनऊ में सहारा के एक पत्रकार को मायावती के मंत्री ने धमकाया और फिर मुकदमा करवा दिया. यह बानगी है उत्तर प्रदेश में पत्रकारों पर मंडरा रहे संकट की. पत्रकार ही ऐसा प्राणी है जिसका कोई वेतनमान नहीं, सामाजिक आर्थिक सुरक्षा नही और न ही जीवन की अंतिम बेला में जीने के लिए कोई पेंशन.असंगठित पत्रकारों की हालत और खराब है. जिलों के पत्रकार मुफलिसी में किसी तरह अपना और परिवार का पेट पाल रहे हैं. दूसरी तरफ अख़बारों और चैनलों का मुनाफा लगातार बढ़ रहा है.
इंडियन एक्सप्रेस समूह के दिल्ली संस्करण में छह सौ पत्रकार गैर पत्रकार कर्मचारियों में दो सौ वेज बोर्ड के दायरे में है, जो महीने के अंत में उधार लेने पर मजबूर हो जाते है. दूसरी तरफ बाकी चार सौ में तीन सौ का वेतन एक लाख रुपए महिना है. हर अखबार में दो वर्ग बन गए है. देश भर में मीडिया उद्योग ऐसा है जहाँ किसी श्रमजीवी पत्रकार के रिटायर होने के बाद उसका परिवार संकट में आ जाता है. आजादी के बाद अख़बारों में काम करने वाले पत्रकारों की दूसरी पीढी अब रिटायर होती जा रही है. पत्रकार के रिटायर होने की उम्र ज्यादातर मीडिया प्रतिष्ठानों में ५८ साल है. जबकि वह बौद्धिक रूप से ७० -७५ साल तक सक्रिय रहता है. जबकि शिक्षकों के रिटायर होने की उम्र ६५ साल तक है. इसी तरह नौकरशाह यानी प्रशासनिक सेवा के ज्यादातर अफसर ६० से ६५ साल तक कमोवेश पूरा वेतन लेते है. इस तरह एक पत्रकार इन लोगों के मुकाबले सात साल पहले ही वेतन भत्तों की सुविधा से वंचित हो जाता है. और जो वेतन मिलता था उसके मुकाबले पेंशन अखबार भत्ते के बराबर मिलती है.
इंडियन एक्सप्रेस समूह में करीब दो दशक काम करने वाले एक संपादक जो २००५ में रिटायर हुए उनको आज १०४८ रुपए पेंशन मिलती है और वह भी कुछ समय से बंद है क्योकि वे यह लिखकर नहीं दे पाए कि - मैं अभी जिंदा हूँ. जब रिटायर हुए तो करीब चालीस हजार का वेतन था. यह एक उदाहरण है कि एक संपादक स्तर के पत्रकार को कितना पेंशन मिल रहा है. हजार रुपए में कोई पत्रकार रिटायर होने के बाद किस तरह अपना जीवन गुजारेगा. यह भी उसे मिलता है जो वेज बोर्ड के दायरे में है. उत्तर प्रदेश का एक उदाहरण और देना चाहता हूँ, जहां ज्यादातर अखबार या तो वेज बोर्ड के दायरे से बाहर है या फिर आंकड़ों की बाजीगरी कर अपनी श्रेणी नीचे कर लेते है, जिससे पत्रकारों का वेतन कम हो जाता है. जब वेतन कम होगा तो पेंशन का अंदाजा लगाया जा सकता है. जबकि इस उम्र में सभी का दवाओं का खर्च बढ़ जाता है. अगर बच्चों की शिक्षा पूरी नही हुई तो और समस्या.
छत्तीसगढ़ से लेकर उत्तर प्रदेश तक बड़े ब्रांड वाले अखबार तक आठ हजार से दस हजार रुपए में रिपोर्टर और उप संपादक रख रहे है. लेकिन रजिस्टर पर न तो नाम होता है और न कोई पत्र मिलता है. जबकि ज्यादातर उद्योगों में डाक्टर, इंजीनियर से लेकर प्रबंधकों का तय वेतनमान होता है. सिर्फ पत्रकार है जिसका राष्ट्रीय स्तर पर कोई वेतनमान तय नही. हर प्रदेश में अलग अलग. एक अखबार कुछ दे रहा है तो दूसरा कुछ. दूसरी तरफ रिटायर होने की उम्र तय है और पेंशन इतनी की बिजली का बिल भी जमा नही कर पाए. गंभीर बीमारी के चलते गोरखपुर के एक पत्रकार का खेत-घर बिक गया, फिर भी वह नहीं बचा, अब उसका परिवार दर दर की ठोकरे खा रहा है.
कुछ ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए ताकि रिटायर होने के बाद जिंदा रहने तक उसका गुजारा हो सके और बीमारी होने पर चंदा न करना पड़े. बेहतर हो वेज बोर्ड पत्रकारों की सामाजिक, आर्थिक सुरक्षा की तरफ ध्यान देते हुए ऐसे प्रावधान करे जिससे जीवन की अंतिम बेला में पत्रकार सम्मान से जी सके. पत्रकारों को मीडिया प्रतिष्ठानों में प्रबंधकों के मुकाबले काफी कम वेतन दिया जाता है. अगर किसी अखबार में यूनिट हेड एक लाख रुपए पाता है तो वहां पत्रकार का अधिकतम वेतन बीस पच्चीस हजार होगा. जबकि ज्यादातर रिपोर्टर आठ से दस हजार वाले मिलेगे. देश के कई बड़े अखबार तक प्रदेशों से निकलने वाले संस्करण में पांच-दस हजार पर आज भी पत्रकारों को रख रहे है.
मीडिया प्रतिष्ठानों के लिए वेतन की एकरूपता और संतुलन अनिवार्य हो खासकर जो अखबार संस्थान सरकार से करोड़ों का विज्ञापन लेतें है. ऐसे अख़बारों में वेज बोर्ड की सिफारिश सख्ती से लागू कराई जानी चाहिए. एक नई समस्या पत्रकारों के सामने पेड़ न्यूज़ के रूप में आ गई है. अखबार मालिक ख़बरों का धंधा कर पत्रकारिता को नष्ट करने पर आमादा है. जो पत्रकार इसका विरोध करे उसे नौकरी से बाहर किया जा सकता है. ऐसे में पेड़ न्यूज़ पर पूरी तरह अंकुश लगाने की जरुरत है. वर्ना खबर की कवरेज के लिए रखा गया पत्रकार मार्केटिंग मैनेजर बन कर रह जाएगा. और एक बार जो साख ख़तम हुई तो उसे आगे नौकरी तक नही मिल पाएगी.
इस सिलसिले में निम्न बिन्दुओं पर विचार किया जाए.
१-शिक्षकों और जजों की तर्ज पर ही पत्रकारों की रिटायर होने की उम्र सीमा बढाई जाए।२ सभी मीडिया प्रतिष्ठान इसे लागू करें, यह सुनिश्चित किया जाए .३- जो अखबार इसे लागू न करे उनके सरकारी विज्ञापन रोक दिए जाए .४ सरकार सभी पत्रकारों के लिए एक वेतनमान तय करे जो प्रसार संख्या की बाजीगरी से प्रभावित न हो.५ पेंशन निर्धारण की व्यवस्था बदली जाए.६-पेंशन के दायरे में सभी पत्रकार लाए जाए, जो चाहे वेज बोर्ड के दायरे में हो या फिर अनुबंध पर.७ न्यूनतम पेंशन आठ हजार हो.७ पेंशन के दायरे में अखबारों में काम करने वाले जिलों के संवाददाता भी लाए जाए.८- पत्रकारों और उनके परिवार के लिए अलग स्वास्थ्य बीमा और सुविधा का प्रावधान हो.९-जिस तरह दिल्ली में मान्यता प्राप्त पत्रकारों को स्वास्थ्य सुविधा मिली है, वैसी सुविधा सभी प्रदेशों के पत्रकारों को मिले.१० -किसी भी हादसे में मारे जाने वाले पत्रकार की मदद के लिए केंद्र सरकार विशेष कोष बनाए.
साभार - भड़ास ४ मीडिया .कॉम
har kisi ke haq ki ladai ladne wala patrkaar kitna bebas hai isi baat se pata chalta hai ki aaj bhi bade bade sansthan apne yaha 8000\10000\ mahina me kaam karte hai or overtime ki baat to bemani hi hai ,,,,,,,,,,na jane kab wo samay aayega jab ek patrkaar apne parivar ka bojh khud utha payega ,,,,WO SUBHA KABHI TO AAYEGI WO SUBHA KABHI TO AAYEGI isi umeed ke saath anil mittal dehradun
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