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Nandita Mahtani hosts a birthday party for Tusshar Kapoor

http://www.sakshatkar.com/2017/11/nandita-mahtani-hosts-birthday-party.html

प्रभु चावला की कहानी, विजेंदर त्यागी की जुबानी

एक दिन 'सीधी बात' वाले टेढ़े आदमी ने मुझे टेलीफोन किया. ''त्‍यागी जी मुझे आपसे एक व्‍यक्तिगत काम है''. मैंने पूछा- ''चावला जी, मुझसे ऐसा कौन सा काम आ पड़ा. आप तो पत्रिका के संपादक हैं और पत्रकारिता के स्‍टार यानी सितारे''. उनका जवाब था - ''मजाक छोडि़ये, मेरी आज मदद कीजिए. आपने पत्रकारों के सरकारी मकान जो खाली कराने का अभियान चलाया है उससे सभी संबंधित कागजात ले आएं''.
साथ ही प्रभु चावला ने यह भी कहा- ''आपने 12 पेज का एक व्‍हाइट पेपर भी निकाला है और दूरदर्शन पर इससे रिलेटेड जो प्रोग्राम दिखाया है 'न्‍यूज वाच', उसका कैसेट भी ले आएं ''. मैंने जवाब दिया - ''कब तक''. उन्‍होंने कहा- ''अभी एक घंटे में''. मैंने कहा- ''अच्‍छा देखता हूं''. खैर, मैं प्रभु चावला जी के पास उस सभी सामग्री को लेकर पहुंच गया. चावला जी ने मुझे धन्‍यवाद कहा और मैं वहां से चला आया. मुझे उनके खेल का पता नहीं था.
दरअसल, प्रभु चावला और एचके दुआ दोनों ने ही इंडियन एक्‍सप्रेस समाचार पत्र के संपादक पद के लिए अप्‍लाई कर रखा था. दोनों का इंटरव्यू था. एचके दुआ ने सरकारी मकान पर कब्‍जा कर रखा था. यह एक ऐसा प्‍वाइंट था जो एचके दुआ के खिलाफ था. इन दस्‍तावेजों के आधार पर प्रभु चावला और एचके दुआ में समझौता हो गया. इस समझौते के कारण एक को इंडियन एक्‍सप्रेस और दूसरे को फाइनेंशियल एक्‍सप्रेस में संपादक की हैसियत से नौकरी मिली. दोनों खिलाड़ी संतुष्‍ट हो गए.
सवाल उठता है कि यह पत्रकारिता के स्‍तम्‍भ कहे जाने वाले लोग अपने स्‍वार्थ के लिए कैसे-कैसे लोगों का प्रयोग करते हैं. एक दिन मेरे एक मित्र जेएन शर्मा ने बुलाया और कहा- ''त्‍यागी जी हमने एक फार्म हाउस खरीदा है. मैं चाहता हूं, उस पर मकान बनाना है, आप उसकी बुनियाद रखें''. मैं शर्मा जी के निमंत्रण को मना नहीं कर सका. गाजियाबाद से पहले डाबर फैक्‍टरी के समीप नहर के किनारे उस फार्म हाउस पर कार्यक्रम आयोजित हुआ. मैंने उस बिल्डिंग का शिलान्‍यास किया. उसी समय सत्‍ता की वैशाखियों पर चढ़े मशहूर फोटोग्राफर रघु राय भी अपनी बेटी के साथ आ गए थे. उन्‍होंने कहा- ''चलिए त्‍यागी जी. मैं भी अपना फार्म हाउस दिखाता हूं''. फिर हम सब लोग उनका फार्म हाउस देखने चले गए. उनके फार्म हाउस पर ट्यूबवेल चल रहा था. सिंचाई हो रही थी. मैंने उसी जगह से मिट्टी उठाई. उसे उठाकर देखा तो उसमें रेत की मात्रा ज्‍यादा थी. मैंने कहा- ''रघुराय जी, इस मिट्टी में धान और गन्‍ना, कपास जैसी फसल अच्‍छी नहीं होगी. इसमें रेत ज्‍यादा है''. वह कहने लगे- ''इसमें पानी ज्‍यादा लगाना पड़ता है''. मैने कहा- ''मक्‍का, बाजरा, गेहूं आदि के लिए ठीक है. रेत वाली जमीन में पानी की ज्‍यादा जरूरत होती है''. मैंने पूछा किसने फार्म हाउस दिलवाया. दोनों ने बताया- प्रभु चावला ने. आपको भी चाहिए तो प्रभु चावला आपको भी दिलवा देंगे. यहां उन्‍होंने औरों को भी दिलवाये हैं. सवाल उठता है बड़े पत्रकार जब प्रॉपर्टी खरीदने-बेचने का धंधा करते हो तो कैसी पत्रकारिता.
चोर-चोर मौसेरे भाई : उधर प्रभु चावला ने दिल्‍ली के बिल्‍डरों के विरुद्ध एक कम्‍पेन चलाया. बिल्‍डरों के समूह में से एक ने प्रभु चावला से समझौता कर लिया. उन्‍हें बिल्‍डर ने एक बड़ा प्‍लाट दे दिया. निर्धारित रकम न होने के कारण उन्‍होंने रघु राय से सम्‍पर्क किया. रघु राय ने प्रभु चावला को पैसा दे दिया और जमीन अपने नाम लिखवा ली. थोड़े दिन के पश्‍चात जमीन के दाम बढ़ गए तो प्रभु चावला ने रघु राय से कहा कि आप अपना पैसा वापस ले लें और जमीन वापस कर दें. इस पर रघु राय ने कहा- ''मैंने तो जमीन आपसे खरीदी है, मैं तो जमीन आपको नहीं लौटाऊंगा''. फिर आपस में कहा-सुनी हुई. परन्‍तु रघु राय ने प्‍लाट वापस करने से स्‍पष्‍ट इनकार कर दिया. सवाल यह उठता है कि इन लोगों के पास फार्म हाउस खरीदने, बिल्डिंगें बनाने के लिए इतना-इतना धन कहां से आ रहा है.
पत्रकारिता की यह बगुले भगत क्‍या-क्‍या धंधे कर रहे हैं. बड़े समाचार पत्रों के नाम पर ब्‍लैकमेलिंग, धोखाधड़ी करके संपत्ति अर्जित कर रहे हैं. कुछ लोगों का तो यह भी कहना है कि प्रभु चावला ने पेट्रोलियम मिनिस्‍ट्री से पेट्रोल पम्‍प भी अपने और रिश्‍तेदारों के नाम पर अलाट कराये हैं. 1991 में चन्‍द्रशेखर जब देश के प्रधानमंत्री थे तब शायद बंगलौर या नागपुर से प्रधानमंत्री के वायु सेना के विमान में कहीं से चढ़े थे. उसी प्‍लेन में हरियाणा के मुख्‍यमंत्री ओम प्रकाश चौटाला भी प्रधानमंत्री के साथ सफर कर रहे थे. जैसे ही चौटाला प्रधानमंत्री के पास से उठकर अधिकारियों और पत्रकारों की ओर आए तो प्रभु चावला ने अखबार से अपना मुंह ढंक लिया. पता नहीं ओम प्रकाश चौटाला की निगाह प्रभु चावला पर पड़ी की नहीं. चौटाला तो आगे निकल गए. मैं भी उसी वायुयान में मौजूद था. मैंने प्रभु चावला से उनके द्वारा अखबार द्वारा अपना मुंह ढंकने के बारे में पूछा, तो उनका उत्‍तर था- ''त्‍यागी जी जरा अभी शांत रहो, इसके चले जाने दो. आपको पता है महम कांड के बाद इसने हमारे इंडिया टुडे के फरीदाबाद की प्रेस पर क्‍या करवाया था. अभी थोड़े देर शांत रहें. इस चौटाला का कुछ पता नहीं चलता, कहीं भी प्‍लेन रुकवाकर मुझे प्‍लेन से उतरवा देगा. मेरे लिए आज दिल्‍ली पहुंचना जरूरी है''.
चौटाला लौट आए. उन्‍होंने मुझसे दूर से ही राजी खुशी का हाल पूछा और फिर प्रधानमंत्री के पास जाकर बैठ गए. उनके जाने पर प्रभु चावला ने मुंह से अखबार हटा लिया. चावला जी ने संतोष की सांस ली. तो इस प्रकार, इंडिया टुडे और आज तक जैसे चैनल का प्रधान संपादक कहलाने वाला प्रभु चावला कैसे अखबार में मुंह छिपा लिया था.

लेखक विजेंदर त्यागी देश के जाने-माने फोटोजर्नलिस्ट हैं. पिछले चालीस साल से बतौर फोटोजर्नलिस्ट विभिन्न मीडिया संगठनों के लिए कार्यरत रहे. कई वर्षों तक फ्रीलांस फोटोजर्नलिस्ट के रूप में काम किया और आजकल ये अपनी कंपनी ब्लैक स्टार के बैनर तले फोटोजर्नलिस्ट के रूप में सक्रिय हैं. ''The legend and the legacy: Jawaharlal Nehru to Rahul Gandhi'' नामक किताब के लेखक भी हैं विजेंदर त्यागी. यूपी के सहारनपुर जिले में पैदा हुए विजेंदर मेरठ विवि से बीए करने के बाद फोटोजर्नलिस्ट के रूप में सक्रिय हुए. वर्ष 1980 में हुए मुरादाबाद दंगे की एक ऐसी तस्वीर उन्होंने खींची जिसके असली भारत में छपने के बाद पूरे देश में बवाल मच गया. तस्वीर में कुछ सूअर एक मृत मनुष्य के शरीर के हिस्से को खा रहे थे. असली भारत के प्रकाशक व संपादक गिरफ्तार कर लिए गए और खुद विजेंदर त्यागी को कई सप्ताह तक अंडरग्राउंड रहना पड़ा. विजेंदर त्यागी को यह गौरव हासिल है कि उन्होंने जवाहरलाल नेहरू से लेकर अभी के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की तस्वीरें खींची हैं. वे एशिया वीक, इंडिया एब्राड, ट्रिब्यून, पायनियर, डेक्कन हेराल्ड, संडे ब्लिट्ज, करेंट वीकली, अमर उजाला, हिंदू जैसे अखबारों पत्र पत्रिकाओं के लिए काम कर चुके हैं.
sabhaar : bhadas 4 media .com

2 comments:

  1. आज तो बहुत रोचक बात पढ़ने को मिली है यंहा पर |

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  2. जय हो। पत्रकारिता के लिए अब क्‍या कहा जाए। अभी कुछ दिन पहले भोपाल गयी थी वहाँ एक बहुत विशाल मॉल खुला है नाम था डी बी मॉल। मैंने पूछा कि यह डीबी क्‍या है? तो मालूम पड़ा कि दैनिक भास्‍कर है। अब पत्रकारिता में भी हजारों नहीं जी लाखों करोड़ रूपए हैं। देखा जाए तो ये ही सत्ता में किसे बैठाना है निर्धारित करते हैं। धन्‍य हैं ये लोग और धिक्‍कार हैं हम जैसे लोग।

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