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Nandita Mahtani hosts a birthday party for Tusshar Kapoor

http://www.sakshatkar.com/2017/11/nandita-mahtani-hosts-birthday-party.html

ब्लॉगिंग अगर इंडस्ट्री है तो गलत आ गये यार!!!

ब्लॉगिंग अगर इंडस्ट्री है तो मैने गलत चुन ली. अफसोस होता है कभी कभी. कभी कभी कहना बहुत मर्यादित वक्तव्य है सिर्फ इसलिए क्यूँकि मैं इसका हिस्सा हूँ. न होता तो कहता ‘हमेशा’.
मैं बचपन से यह गलती करता रहा हूँ मगर फितरत ऐसी कि बार बार ऐसी ही गलती कर बैठता हूँ. यही फितरत मुझे एक अच्छा भारतीय इन्सान बनाती है. मानो गलती से कुछ सीखने को तैयार ही नहीं. हर बार वो ही गलती दोहराये जा रहे हैं और कोस रहे हैं दूसरों को.
सबसे पहले सी ए(चार्टड एकाउंटेन्ट- सनधि लेखापाल) बना, एक ऐसी इन्डस्ट्री सलाहकारों की जिसमें आपकी सलाह की पूछ ही तब हो जब बाल सफेद हो जायें. जब प्रेक्टिस करता था तो हर वक्त लगता था कि जल्दी बाल सफेद हों तो प्रेक्टिस चमके और जम कर चमके..मगर सफेद भी ऐसे हों कि सिर्फ साईड साईड से कलम पर (फैशन कॉन्शस तो था ही शुरु से. रुप रंग तो अपने हाथ में होता नहीं मगर सजना संवरना तो खुद को ही पड़ता है वरना तो रुप रंग भी धक्का खाता नजर आये, खाता ही है-आपने भी अनुभव किया होगा.)
फिर राजनीति में हाथ आजमाया. यूथ कांग्रेस ज्वाईन की. शायद कारण था कि जब नेहरु जी मरे तब मैं एक बरस का भी न था. शायद दूध पीने के लिए भूख के मारे रो रहा हूँगा और घर वालों ने समझा कि नेहरु जी के मरने की खबर जानकर रो रहा है तो तब से ही कांग्रेसी होने का ठप्पा लग गया. अब घर वालों को झुठलाना तो हमारी भारतीय संस्कृति नहीं सिखाती तो कांग्रेसी ही बन गये और अब तक निभाये जा रहे हैं.
जब आस पास नजर घुमाता हूँ तब पाता हूँ कि ९० प्रतिशत से ज्यादा किसी भी राजनैतिक पार्टी में इसी तरह की किसी ऊलजलूल वजहों से हैं, कोई पहचान से, तो कोई जुगाड़ से तो कोई विकल्प के आभाव में. बहुत मुश्किल से ऐसे नेता दिखेंगे जो किसी पार्टी में उस पार्टी की मान्यताओं और राजनैतिक विचारों की वजह से हैं. तभी तो मौका देख देख कर पार्टियाँ बदलते रहते हैं.
जब यूथ कांग्रेस ज्वाईन की तो ज्वाईन करने के बाद, फिर वही पाया कि लड़कों की कौन सुने? युवा पाले जाते हैं राजनीति में ताकि शांति भंग न करें मगर सुने नहीं जाते. शांति भंग न करें का तात्पर्य यह कतई न लगायें कि बिल्कुल शांति भंग न करें बल्कि इसे ऐसा समझे कि अपने मन से किसी तरह की कोई शांति भंग न करें यानि की सिर्फ वहीं शांति भंग करें जो सफेद बाल वाले तथाकथित वरिष्ट चाहते हों जटिल मुद्दों से आमजन का ध्यान भटकाने के लिए.
राजनैतिक पार्टी में भी सुनवाई के लिए फिर बालों में सफेदी जरुरी है भले ही दिमाग युवाओं से भी गया गुजरा हो. देश की छोड़ कोई सी भी चिन्ता पालो मगर बाल सफेद रहें. ज्यादा सफलता चाहिये तो घुटना भी रिप्लेसमेन्ट लायक कर लो. खुद चल पाओ या नहीं, मगर देश चलाने लायक मान लिए जाओगे. ये बात फिर सिर्फ एक पार्टी में नहीं, सभी पार्टियों में है. राजनीति तो राजनीति है, पार्टियाँ तो सिर्फ मन का बहलाव है मतदातओं के लिए. वो ही आज इस पार्टी में, तो कल उस में. फिर भी जीते जा रहा है. ऐसे कितने ही नेता हैं जो हर जीती पार्टी के साथ जीते. बात टाईमिंग की है और टाईम मैनेजमेन्ट की. मगर यही टाईम मैनेजमेन्ट तो ब्लॉगिंग में दगाबाज बनकर उभरा.
खैर, यह सब तो जैसे तैसे समय के साथ पार हो ही गया. होना ही था, इस पर इंसानी जोर कहाँ? समय कहाँ रुकता है? एक नियमित गति से चलता जाता है. यह तो आप पर है कि उससे तेज भाग लो, या धीरे चलो या फिर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहो समय के भाग जाने की दुहाई देते. आधे से ज्यादा लोग इसी कोसने में जिन्दगी गुजारे दे रहे हैं और इसी मे संतोष प्राप्त कर रहे हैं. आश्चर्य यह है कि वो इसके बावजूद भी खुश हैं.
फिर न जाने किस मनहूस घड़ी में शौक जागा ब्लॉगिंग का, वो भी हिन्दी में. पुरानी दो उम्मीदों के चलते नाजुक उमर में ही बाल तो सफेद कर बैठे थे. पत्नी की लाख लानत पर भी रंगने को कतई तैयार नहीं हुए हैं आज तक.
जैसे ही सन २००६ में लिखना शुरु किया तो पहले लोग आये कि वाह समीर, क्या लिखते हो. अच्छा लगा. तारीफ किसे बुरी लगती है. जानकारी के अनुसार, मात्र १०० लोग थे उस वक्त इस जगत में जो हिन्दी में लिखते थे अपना ब्लॉग और उनमें से एक हम भी.
फिर देखते देखते एक और नई खेप आई, समीर जी वाली..तुम से आप हो लिये. अच्छा लगा. कारवां तो बढ़ना ही था वरना शायर गलत हो जाते जो कहते हैं कि लोग खुद जुड़ते रहे और कारवां बनता गया, वो तो फिर नाकाबिले बर्दाश्त गुजरता:
लोग बढ़े, स्वभाविक है, बढ़ना ही था. जो भी होता है उसे बढ़ना ही है. वरना तो होना ही एक दिन खो जयेगा. नये लोग आये और आदरणीय कहने लगे, श्रेद्धेय, मठाधीष, गुरुवर, प्रणाम, चरण स्पर्श और न जाने क्या क्या-सब सहते रहे, अच्छा लगता रहा. कोई और रास्ता भी न था.
फिर समय के साथ चच्चा, अंकल और मामा का दौर लिए नवयुवा आये. नवयुवाओं के साथ लफड़ा ये है कि उनकी उम्र की कोई रेन्ज नहीं होती. कितने नेता तो मरते दम तक युवा नेता रहे. मानो असमय गुजर गये मात्र ८५ साल की अवस्था में.
सारी राजनीतिक पार्टियाँ ऐसी ही युवा शक्तियों से पटी पड़ी हैं जिनकी युवा अवस्था उनके गुजरने के पूर्व गुजरने का नाम ही नहीं लेती.
चुप रहना कई बार क्या, हमेशा ही, जुर्म बढ़वाते जाता है... मगर फिर भी लोग मजबूरीवश चुप रहते हैं.सबकी अपनी अपनी मजबूरी होती है और अपने अपने आसमान. कहते हैं कि प्रतिकार आवश्यक है अक्सर. मगर वो आदत रही नहीं, आप तो जानते हैं, तो देखते देखते धीरे से दद्दा, नाना जी कहलाने लगे और वरिष्ट एवं बुजुर्ग बन बैठे.
५० पार की उम्र वाले भी चरण स्पर्श कह करके जाने लगे, कोई दादा जी, कोई नाना जी, कोई बाबू जी, कोई बाउ जी, तो कोई परम श्रद्धेय तो कोई नतमस्तक कह कर बढ़ जाता और हम अपना सा मूँह लिये टपते रहते. क्या करते?
सोचता हूँ कि काश, फिल्म इन्डस्ट्री में होता तो इस उम्र में तो सलमान की जगह मैं बिग बास का संचालन कर रहा होता. युवाओं का आईकान, जाने कितनों का स्वप्नकुमार और रातों की नींद, तन्हाई का साथी और दीवारों पर टंगी तस्वीर. आहें भर रहे होते लोग मेरे नाम पर मेरी इस बाली उम्र में और यहाँ..चार साल की ब्लॉगिंग में जिस स्पीड से उम्र बढ़ी है, इस रफ्तार से कदमताल मिलाने के लिए महामानव होना जरुरी लग रहा है और मैं, चुपचाप बैठा निठल्लों की तरह कह रहा हूँ कि समय बहुत तेज भाग रहा है.
केशव तो खैर बिना ब्लॉगिंग ही ऐसे लफड़े में फंस गये थे, और तब मजबूरी में उन्हें लिखना पड़ा:
केशव केसन अस करी जस अरिहूं न कराहिं, चंद्रवदन मृगलोचनी बाबा कहि-कहि जांहि।
यही गति रही तो वो दिन दूर नहीं जब जीते जी लोग स्वर्गवासी कहने लग जायेंगे... कहना ही तो है-हैं कि नहीं इससे तो पहले भी कहाँ मतलब रखा किसी ने.
इन्हीं सब के मद्देनजर अब तो कई बार मन करता है कि किसी नजदीकी कब्रिस्तान में ही जाकर बिस्तर लगा कर सो जाऊँ. क्या पता नींद खुले न खुले. तब इन चहेतों की इच्छा भी रह जायेगी और यदि भूले से नींद खुल गई तो अगली रचना रच देंगे उसी अनुभव पर. आज तक तो किसी ने लिखा नहीं है कब्रिस्तान में सोने का अनुभव या कब्रिस्तान का यात्रा वृतांत. नयापन मिलेगा लोगों को. कुछ और लोग आकर चरण स्पर्श कर जायेंगे भावी स्वर्गवासी के.
किसी वाकई वाले बुजुर्ग से पूछा तो उसने कहा कि चुप रहना ही बेहतर है, साहित्यजगत की यही रीत है (हालांकि ब्लॉगिंग को वो वाले साहित्यकार साहित्य मानते नहीं हैं फिर भी दिल बहलाने को गालिब ख्याल अच्छा है कि तर्ज पर मान लेते हैं). बस, संतुष्ट हूँ इस रीत का पालन कर कि शायद हिन्दी साहित्य जगत का हिस्सा कहलाया जाऊँ.
एक उम्मीद ही तो है...एक उम्मीद के सहारे ही तो पूरा भारत जिये जा रहा है, तब इसे मैं पाल बैठा तो क्या बुराई है?

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