पवन कुमार अरविंद
दुनिया की कोई भी विचारधारा हो, यदि वह समग्र चिंतन पर आधारित है और उसमें मनुष्य व जीव-जंतुओं सहित सभी प्राणियों का कल्याण निहित है; तो उसको गलत कैसे ठहराया जा सकता है। इस पृथ्वी पर साम्यवाद एक ऐसी विचारधारा है जिसके संदर्भ में गभीर चिंतन-मंथन करने से ऐसा प्रतीत होता है कि इसके प्रेरणा पुरुषों ने यह नया वैचारिक रास्ता खोजते समय समग्र चिंतन नहीं किया। मात्र कुछ समस्याओं के आधार पर और वह भी पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर, इस रास्ते को खोजा। यही कारण है कि साम्यवाद एक कृत्रिम विचारधारा के सदृश प्रतीत होती है। यदि दुनिया में इस विचारधारा का प्रभाव और उसके अनुयायियों की संख्या तेजी से घट रही है तो फिर अनुचित क्या है ?
सृष्टि के प्रारम्भ से आज तक; कोई भी विचारधारा रही हो, उसका सदा-सर्वदा से यही कार्य रहा है कि वह समाजधारा को अपने अनुकूल करे। लेकिन यह कार्य बड़ा कठिन है या यूं कहें कि यह तपस्या के सदृश है। इस कठिन तपस्या के डर से लोग शार्ट-कट अपनाते हैं। समाज के लोगों को शीघ्र जुड़ता न देख साम्यवाद का झंडा लेकर चलने वाले अधीर कार्यकर्ताओं ने एक नए विकल्प की तलाश की। इन्हीं शार्ट-कट की परिस्थितियों में नक्सलवाद का जन्म हुआ। साम्यवाद ही नक्सलवाद की बुनियाद है।
मनुष्य के जीवन में कभी-कभी ऐसी स्थितियां आती हैं कि पुत्र जब ज्यादा बिगड़ जाता है तो पिता लोक-लाज के भय से उसको अपना मानने से ही इन्कार कर देता है। ठीक वैसी ही स्थिति साम्यवाद और नक्सलवाद के साथ है। साम्यवाद का बिगड़ैल (Spoiled) पुत्र है नक्सलवाद! साम्यवाद के कर्ता-धर्ता भले ही इससे इन्कार करें, लेकिन सत्य भी यही है। नक्सलवाद की नींव में साम्यवादी ईंट का जमकर प्रयोग हुआ है।
आज नक्सलवाद देश के लिए विध्वंसक साबित हो रहा है। इन कथित क्रांतिकारियों की गतिविधियों से देश की जनता त्राहि-त्राहि कर रही है। सुरक्षाबल और पुलिस के सैंकड़ों जवानों सहित अनगिनत निर्दोष लोग; इस कथित आंदोलन के शिकार हुए हैं। इन्हीं खूनी नक्सलियों का समर्थन करने वाले व उनकी गतिविधियों में सहायक की भूमिका निभाने के आरोप में डॉ. विनायक सेन को छत्तीसगढ़ की एक अदालत ने 24 दिसम्बर को देशद्रोही करार देते हुए आजीवन कारावास की सजा सुनाई है। डॉ. सेन के साथ प्रतिबंधित नक्सली नेता नारायण सान्याल और कोलकाता के व्यवसायी पीयूष गुहा को भी आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई है।
विदित हो कि छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा चलाए गए सलवा जुडूम नामक अभियान के खिलाफ डॉ. सेन काफी मुखर रहे हैं। यह अभियान नक्सलियों के सफाए के लिए चलाया गया था। उन्होंने इस अभियान के खिलाफ धरती-आसमान एक कर दिया था। डॉ. सेन पेशे से चिकित्सक एवं ‘पीपुल्स यूनियन फार सिविल लिबरटीज’ की छत्तीसगढ़ इकाई के महासचिव हैं। वे मानवाधिकार कार्यकर्ता के रूप में ज्यादा चर्चित हैं। इस बात की भी प्रबल संभावना है कि उन्होंने चिकित्सा की आड़ में भोले-भाले गरीब आदिवासी व वनवासियों को नक्सलवाद से जोड़ने में अहम भूमिका निभाई। उन्होंने जेल में बंद नक्सली नेता नारायण सान्याल के लिए व्यक्तिगत पोस्टमैन की भूमिका अदा की और जेल अधिकारियों के पूछने पर उनका उत्तर रहता था कि “मैं तो सान्याल के घर का हूं, उनका हालचाल जानने आया हूं।” लेकिन यह झूठी सूचना ज्यादा दिनों तक नहीं चल सकी।
डॉ. सेन के संदर्भ में वामपंथी वुद्धिजीवियों और अंग्रेजी मीडिया के एक वर्ग को अदालत का यह फैसला नागवार गुजरा है। इन्हीं वुद्धिजीवियों में से कुछ ने सोमवार को नई दिल्ली के जंतर-मंतर पर धरना दिया और उनकी रिहाई की मांग की। वामपंथी प्रदर्शनकारियों का कहना था कि डॉ. सेन को जबरन फंसाया गया है। वे यह कतई मानने को तैयार नहीं है कि यह अदालत का फैसला है और इसके बाद अभी ऊपरी अदालतों का फैसला आना शेष है। आखिर सत्र न्यायालय के फैसले के आधार पर ही सेन साहब को दोषी कैसे मानलिया जाए ? तो फिर ये वामपंथी चिंतक इतने अधीर क्यों हैं ? उनको धैर्य पूर्वक शीर्ष अदालत के फैसले का इंतजार करना चाहिए। जब तक सुप्रीम कोर्ट का फैसला नहीं आ जाता, सेन साहब सचमुच निर्दोष हैं।
वामपंथी बुद्धिजीवियों को भारतीय न्यायिक प्रणाली के तहत अब तक हुए निर्णयों पर भी ध्यान देना चाहिए। स्वतंत्र भारत के इतिहास में आज तक कभी भी कोई निर्दोष व्यक्ति कठोर सजा का भागी नहीं हुआ है। भारतीय न्याय प्रणाली की यह एक बहुत बड़ी विशेषता है। यही विशेषता उसकी रीढ़ है। भले ही न्याय देर से क्यों न मिले लेकिन इस देरी के पीछे मुख्य कारण यह है कि कोई निरपराध व्यक्ति न्यायालय की तेजी का शिकार न हो जाए।
तो फिर वामपंथी वुद्धिजीवी इतने अधीर क्यों हो रहे हैं ? उनको न्याय प्रणाली पर भरोसा रखना चाहिए। उनको यह भी विश्वास करना चाहिए कि यदि वास्तव में डॉ. सेन ने देशहित का कार्य किया है तो अंतिम न्यायालय का निर्णय अन्यायपूर्ण नहीं होगा। लेकिन जिस प्रकार वामपंथी वुद्धिजीवियों ने कानून का उपहास किया है और फैसले पर आपत्ति की है, वह स्वस्थ परम्परा का द्योतक नहीं कहा जा सकता है। कानून का उपहास करना और न्यायप्रणाली पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करना देश की सम्प्रभुता के खिलाफ माना जाना चाहिए। धीरे-धीरे यही कदम देश की सम्प्रभुता के समक्ष मजबूत चुनौती पेश कर सकती है। इसलिए खतरनाक है। .
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