Feature

Nandita Mahtani hosts a birthday party for Tusshar Kapoor

http://www.sakshatkar.com/2017/11/nandita-mahtani-hosts-birthday-party.html

नीतीश बिहार में इन दिनों अपने विरोधियों को निपटाने का काम बख़ूबी कर रहे हैं

 आवाज़ों पर पहरा है : स्तब्ध करने वाली जानकारी थी मेरे लिए। पटना से कई लेखक-पत्रकार मित्रों के अलावा कई अनजाने लोगों ने फ़ोन पर जो जानकारी दी वह सदमे और हैरत में डालने वाली थी। मित्रों ने बताया कि मुसाफिर बैठा और अरुण नारायण को बिहार विधान परिषद की नौकरी से निलंबित कर दिया गया है। निलंबित करने की वजह उनका लेखन है। दोनों का सरोकार साहित्य से है और दोनों अच्छे लेखक-कवि-साहित्यकर्मी हैं। उनका इस तरह निलंबित किया जाने किसी सदमे से कम नहीं था। मुसाफ़िर बैठा के कवि कर्म से मैं परिचित हूं। जब-तब फेसबुक पर एक-दूसरे से बातें भी होती रहती हैं। क़रीब सात-आठ महीने पहले पटना प्रवास के दौरान दो बार उनसे मुलाक़ात हुई थी। पहली बार युवा सहित्यकार परिषद की काव्य गोष्ठी में और दूसरी बार कवि-मित्र शहंशाह आलम के साथ। हमने साथ-साथ चाय भी पी थी और साहित्य पर चर्चा भी की थी। अरुण नारायण से मिला तो नहीं हूं लेकिन उनकी रचनात्मक गतिविधियों से परिचित हूं।


कुछ महीने पहले बिहार विधान परिषद से जावेद हसन को भी नौकरी से हाथ धोनी पड़ी थी। जावेद भी अच्छे लेखक हैं। वे विधान परिषद में उर्दू रिपोर्टर के पद पर कार्यरत जावेद ‘ये पल’ नाम की पत्रिका निकालते हैं। इसके अलावा उनका एक उपन्यास ‘गोश्त’ और कहानी संग्रह ‘दोआतशा’ प्रकाशित हुआ है। उनकी यह दोनों कृतियां हिंदी और उर्दू में चर्चित भी रही हैं। कई साल पहले जावेद हसन ने अपना उपन्यास ‘गोश्त’ मुझे दिया था। आज भी उनकी दी गई किताब का कवर मुझे बेतरह आकर्षित करता है, उनके उपन्यास का तो मैं क़ायल हूं ही। इस कथा-लेखक को हटाए जाने की कथा अलग है लेकिन इस नई घटना ने तो अचंभित और कहीं अंदर तक चोट पहुंचाई है। मित्रों के अलावा कुछ ऐसे लोगों को फ़ोन भी आए जिन्हें मैं पहले से नहीं जानता था। उन लोगें ने भी इस घटना की जनाकारी दी और कहा कि आपने सही कहा था कि बिहार में आवाज़ों पर पहरा है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बिहार में अघोषित सेंसरशिप लगा रखी है और सच लिखने-बोलने वाले उनके राज में सताए और प्रताड़ित किए जा रहे हैं। ये लोग कृष्ण मेमोरियल हाल में आयोजित बिहार नवनिर्माण मंच के सम्मेलन में मेरी कही बातों का उल्लेख कर इस घटना की जानकारी दे रहे थे। 

इनमें से कइयों का सरोकार साहित्य और पत्रकारिता से था लेकिन वे नीतीश कुमार की नीतियों की वजह से चुप और ख़ामोश हैं। दरअसल बिहार में इन दिनों नीतीश कुमार ने आवाज़ों पर जिस तरह का पहरा लगा रखा है वह काफ़ी ख़तरनाक है। बिहार में मीडिया भले अभी नीतीश कुमार की जी हज़ूरी में यह भूल बैठा है कि अगर यह सूरत इसी तरह रही तो उनके सामने ख़तरा बाहरी और भीतरी दोनों है। बाहरी ख़तरा सत्ता प्रतिष्ठानों से है तो भीतरी ख़तरा प्रबंधन और बड़े पदों पर बैठे लोगों से है। यह दोनों ही ख़तरे पत्रकारिता को अपने तरीक़े से हांकने की कोशिश में जुटा है। अगर ऐसा ही चलता रहा तो भविष्य में भी सत्ता और प्रबंधन मिल कर पत्रकारों को अपने तरीक़े से चलाने की कोशिश करेंगे और मीडिया से जुड़े लोग ऐसा करने के लिए अभिशप्त होंगे। इन ख़तरों से वाक़िफ़ होने का बावजूद बिहार में मीडिया की यह चुप्पी डराती भी है और चौंकाती भी है। क्योंकि इसी बिहार में जब जगन्नाथ मिश्र ने प्रेस बिल ला कर अख़बार वालों को डराने की कोशिश की थी तो इसके ख़िलाफ़ पत्रकार लामबंद हुए थे और यह लामबंदी देश के पैमाने पर इतनी मुखर हो गई कि आख़रिकार जगन्नाथ मिश्र को यह काला प्रेस बिल वापस लेना पड़ा था। लेकिन आज हालत ठीक इसके उलट है। मीडिया पर लगातार हमले हो रहे हैं लेकिन मीडया चुपचाप इन हमलों को झेल रहा है।

लेकिन यह ताज़ा घटना एक तीसरे ख़तरे की तरफ़ भी इशारा कर रही है। यह ख़तरा ज्यादा गंभीर है। यह ख़तरा अभिव्यक्ति की आज़ादी पर मंडरा रहा है। बिहार में इन दिनों सच बोलना और लिखना मना है। नीतीश कुमार और उनकी सरकार के प्यादे नहीं चाहते कि अख़बारों में सच लिखा जाए और लेखक-पत्रकार सच बोलें। फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने ऐसे ही माहौल के लिए लिखा होगा ‘चली है ऐसी रस्म यहां कि कोई न सर उठा के चले’। बिहार में लिखने-पढ़ने वालों के लिए हालात ऐसे ही हैं। मुसाफ़िर बैठा और अरुण नारायण के निलंबन पर लिखने से पहले कुछ बातें और। इन बातों का कोई सीधा तालुल्क़ इन दोनों के निलंबन से भले न हो लेकिन बिहार में अभिव्यक्ति की आज़ादी और आवाज़ों को दबाने की जिस तरह से कोशिश की जा रही है उसकी नज़ीर ज़रूर है। साथ ही इन बातों से बिहार में अख़बारों और चैनलों की क्या हालत है इनका भी पता चलता है।

कहां ज्यादा दिन हुए हैं। पटना के श्रीकृष्ण मेमोरियल हाल में बिहार नव निर्माण मंच का सम्मेलन था। यह एक ग़ैरराजनीतिक मंच है। यह बात दीगर है कि इसका गठन नीतीश कुमार के कुशासन के ख़िलाफ़ राजनीति से जुड़े लोगों ने ही किया है। कभी नीतीश के सहयोगी रहे उपेंद्र कुशवाहा, वरिष्ठ समाजवादी नेता और सांसद मंगनीलाल मंडल, पूर्व सांसद अरुण कुमार, एजाज अली, शंकर आज़ाद और संजय वर्मा इस मंच के गठन के पीछे हैं। पिछले कई साल से बिहार में नीतीश कुमार की उन कारगुज़ारियों को ये उजागर करने में जुटे हैं जो अमूमन लोगों के सामने नहीं आ पा रही हैं या उन्हें आने नहीं दिया जा रहा है। शंकर आज़ाद से मेरा संबंध कोई दो दशक से भी ज्यादा का है इसलिए उन्होंने मंच से मुझे भी जोड़ रखा है। आज़ाद ने पटना सम्मेलन की जानकारी पहले ही दे रखी थी और एक तरह से मुझे निर्देश दे रखा था कि उसमें हिस्सा लेना है। मंच का यह पहला कार्यकर्ता सम्मेलन था लेकिन लोगों की बड़ी तादाद इसमें शामिल हुई थी। श्रीकृष्ण मेमोरियल हॉल में उमड़ी भीड़ से नीतीश कुमार की ‘लोकप्रियता’ का पता चल रहा था।

आमतौर पर जो होता है, मंच से ज़िलों से आए लोग भाषण दे रहे थे। भाषणों के इसी सिलसिले में किसी ज़िले से आए एक सज्जन ने जो बात कही उसने चौंकाया था। बिहार में नीतीश कुमार के सत्ता संभालने के बाद मीडिया की जो हालत है उसे लेकर उन्होंने टिपण्णी की थी। वह टिपण्णी बिहार के मीडिया के बदले चरित्र का एक तरह से आईना था। उन्होंने अख़बारों की भूमिका पर सवाल उठाते हुए जो कहा था वह ठीक-ठीक तो याद नहीं है लेकिन जो कहा था उसका लब्बोलुआब यह था कि नीतीश कुमार बिहार से प्रकाशित होने वाले अख़बारों के ब्यूरो प्रमुख बन गए हैं। हालांकि यह टिपण्णी उन्होंने अख़बारों को लेकर की थी लेकिन मीडिया के दूसरे फार्म पर भी यह बात उतनी ही लागू होती है जितनी अख़बारों पर। पटना से दूर बैठे एक आम से आदमी की यह टिपण्णी बेधने वाली थी। सम्मेलन के राजनीतिक प्रस्ताव में भी मीडिया को लेकर इसी तरह की कुछ बातें की गईं थीं। ज़ाहिर है कि बिहार में इन दिनों मीडिया की भूमिका से सरकार के अलावा कोई ख़ुश नहीं है, क्योंकि अख़बारों में वह छापा जा रहा है जो नीतीश कुमार चाहते हैं और चैनलों पर वह ही दिखाया जा रहा है जो सरकार चाहती है।

सम्मेलन में मुझे भी बोलना होगा, इसकी जानकारी मुझे नहीं थी। लेकिन अचानक ही पूर्व सांसद और मित्र अरुण कुमार ने मुझे बोलने के लिए आमंत्रित किया तो मैं थोड़ा अचकचाया। शायद शंकर आज़ाद ने पहले ही यह तय कर रखा था। लेकिन नाम पुकारे जाने के बाद कुछ न कुछ तो बोलना ही था। राजनीतिक बातें लोग कर रहे थे और उसे दोहराने का कोई मतलब नहीं था। लेकिन जिस एक बात ने मुझे बेधा था, मैंने वहीं से सूत्र पकड़ा और मीडिया को केंद्र में रख कर अपनी बातें कहीं। आठ-दस हज़ार की भीड़ वाली किसी राजनीतिक रैली में बोलने का यह पहला मौक़ा था। बिहार में मीडिया के बदलते चरित्र पर मैंने अपनी बात बहुत साफ़-साफ़ रखी। मुझे यह पता था कि बहुत ज्यादा बौद्धिक बातें करने की यहां कोई ज़रूरत नहीं है। जो भी कहना है साफ शब्दों में कहना है, इसलिए सारी बातचीत मैंने मीडिया तक सीमित रखी। लेकिन मेरी बातें उस भीड़ में जिस तरह सुनी गईं, उससे मुझे बेतरह हैरत हुई और यह पता भी चला कि बिहार का मीडिया अपनी तमाम प्रसार संख्या और टीआरपी के बावजूद लोगों से दूर है। नीतीश कुमार की मां की श्राद्ध की ख़बर को बिहार के अख़बारों ने जिस तरह छह-सात तस्वीरों के साथ छापा था, मैंने लोगों के सामने इस उदाहरण के साथ मीडिया के बदलते चरित्र की तरफ़ इशारा किया था। यह बात लोगों के मर्म को कहीं छू गई थी। बिहार में आवाज़ों को दबाने की कोशिश पिछले छह-सात सालों में जिस तरह से नीतीश कुमार कर रहे हैं, उसकी एक झलक वहां दिखाई दी थी। इसलिए मेरे बाद कई लोगों ने मीडिया के रवैये पर बातें कीं और बातों-बातों में यह भी बताया कि नीतीश कुमार ने पार्टी कार्यकर्ताओं को यह निर्देश दिया था कि उनकी मां का श्राद्ध किसी पार्टी कार्यक्रम की तरह हर जिला मुख्यालय पर आयोजित किया जाए।

इस घटना को बताने की ज़रूरत शायद नहीं थी लेकिन, बिहार में साहित्य और पत्रकारिता से सरोकार रखने वालों की हालत क्या है, इससे समझा जा सकता है। कवि-मित्र मुसाफिर बैठा और अरुण नायारण के साथ घटी घटना इसी सिलसिले की कड़ी है। लेकिन अगर इसे गंभीरता से नहीं लिया गया तो आने वाले दिनों में नीतीश कुमार अपने ‘निरंकुश सुशासन’ के और भी बेहतर नमूने पेश करेंगे। साहित्य और पत्रकारिता पर हमले बढ़ेंगे। नीतीश कुमार ने बिहार में साहित्य और सरोकारों की पत्रकारिता करने वालों का जो हाल बना रखा है वह किसी से छुपा नहीं है। हिंदी के विकास के लिए बना ‘हिंदी भवन’ एक शिक्षण संस्थान को दे दिया जाता है और बिहार के साहित्य जगत और मीडिया में कोई हलचल नहीं होती। यानी जो है, जैसा है, चल रहा है, चलने दो। बिहार में ऐसा ही कुछ चल रहा है। इसलिए मुसाफिर बैठा और अरुण नारायण के निलंबन को लेकर बिहार के साहित्य जगत में जिस तरह की हलचल होनी चाहिए थी, नहीं हुई है।

हैरत तो इस बात पर हो रही है कि इन दोनों के निलंबन का आधार फेसबुक पर लिखी गई उनकी टिपण्णियां बनीं। फेसबुक न तो अख़बार है और न ही पत्रिका। वह एक ऐसी सामाजिक साइट है, जहां लोग अपने मित्रों के साथ सुख-दुख ही नहीं दुनिया-जहान से जुड़ी ख़बरें साझा करते हैं। साहित्य से सरोकार रखने वाले अपनी अभिव्यक्ति के लिए भी इस मंच का इस्तेमाल करते हैं। मुसाफ़िर बैठा और अरुण नारायण ने भी इस मंच का इस्तेमाल अपनी अभिव्यक्ति के लिए किया। मुसाफ़िर बैठा ने अपने विभाग से भविष्य निधि खाते की जानकारी मांगी थी। सात सालों से उनके खाते जस के तस हैं। विभाग उनके खातों को अपडेट नहीं करा रहा था और अधिकारी इसके लिए उनसे जवाब तलब कर रहे थे। तब मुसाफ़िर ने इसे लेकर फेसबुक पर अपने मन की व्यथा ‘दीपक तले अंधेरा’ शीर्षक से लिख कर पोस्ट कर दिया। अधिकारियों को उनकी यह बेबाकी पसंद नहीं आई। एक लिपिक की यह जुर्रत कि वह सरकार की कार्यशैली पर सवाल उठाए। आननफानन उन्हें निलंबन का पत्र थमा दिया गया। अरुण नारायण का क़िस्सा थोड़ा अलग है। उन्होंने इस तरह की कोई सीधी टिपण्णी नहीं की थी। उन्होंने जनता दल (एकी) के विधान परिषद सदस्य प्रेम कुमार मणि को पार्टी से निकाले जाने को असंवैधानिक बताया था। साहित्यकार से नेता बने मणि कभी नीतीश् कुमार के सखा रहे हैं और उनकी ही मेहरबानी से वे एमएलसी बने थे। लेकिन नीतीश कुमार की नीतियों को लेकर मणि इन दिनों उनका विरोध कर रहे हैं और इसका ख़मियाज़ा उन्हें निलंबन के तौर पर उठाना पड़ा। अरुण नारायण को यह ठीक नहीं लगा था। इसका इज़हार उन्होंने फेसबुक पर किया और नतीजे में सरकार ने उन्हें भी निलंबन का पत्र थमा दिया। फेसबुक पर कुछ लिखने की वजह से किसी को नौकरी से निलंबित किए जाने की यह अपने आप में पहली नज़ीर है।

नीतीश बिहार में इन दिनों कुछ करें या नहीं करें लेकिन अपने विरोधियों को निपटाने का काम बख़ूबी कर रहे हैं। हैरत इस बात पर है कि पत्रकारों के साथ-साथ साहित्यिक समाज भी अब बिहार में सरकार की तानाशाही और अलोकतांत्रिक रवैये पर चुप्पी साधे हुई है। मुसाफ़िर बैठा और अरुण नारायण के मामले में भी कहीं कुछ सुगबुगाहट नहीं हो रही है। यह चुप्पी और ख़ामोशी बेतरह डरा रही है। यह चुप्पी इसी तरह बरक़रार रही तो नीतीश कुमार के निशाने पर अगली बार हम में से कोई हो सकता है। इस पर हममें से किसी ने ग़ौर किया है, नहीं, तो गौर करें और मुसाफ़िर बैठा, अरुण नारायण और जावेद हसन के पक्ष में खड़े होकर सरकार की आंखों में आंखें डाल कर बात करें। हम ऐसा नहीं कर पाते हैं तो फिर सरकार के अगले क़दम के लिए तैयार रहें। उस निशाने पर हममें से ही कोई एक होगा, देख लेना।
लेखक फ़ज़ल इमाम मल्लिक पत्रकार और स्तंभकार हैं.

Sabhar:- News.bhadas4media.com

No comments:

Post a Comment

Famous Post